
सूफ़ीवाद का यथार्थ
शिवेन्द्र राणा. प्रत्येक धर्म या पंथ के दो पहलू होते हैं, बाह्य एवं आतंरिक. आतंरिक पहलू ही अध्यात्म से जुड़ा होता है. इस्लाम के रहस्यवादी प्रवृतियों एवं आंदोलनों को तसव्वुफ अथवा सूफ़ीवाद कहा जाता है. साधक के रूप में सूफ़ी शब्द का प्रयोग 9वीं सदी में प्रारम्भ हुआ. सूफ़ीवाद की उत्पत्ति के केंद्र में वहदत-उल-वजूद का सिद्धांत है जिसके प्रवर्तक इब्न-उल-अरबी (1165-1240 ई.) थे.किंतु बाद में शेख अहमद सरहिंदी ने इसका विरोध किया और वहदत- उल-शुहूद(प्रत्यक्षवादी दर्शन) का प्रतिपादित किया. 18वीं सदी में शाह वली उल्लाह ने इन दोनों सिद्धांतों को समन्वित करने का प्रयास किया.
सूफ़ीवाद अपना आधार भक्ति और प्रेम को घोषित करता है. सूफ़ी सिद्धांतो में तर्क- ए-दुनिया का अर्थ ‘उदबुद्ध विश्व’ है. सूफ़ी ‘सर्वेश्वरवादी’ माने जाते हैं. सूफ़ी दस बातों के पालन को आवश्यक मानते हैं, तोबा, बारा, रिजा, सब्र, फकर, खौफ, राज, सुकर, जुहूद, ताबालुख. सामान्यतः सूफ़ीमत दो प्रमुख सिद्धांतों से संचालित होता है. पहला, ‘मराफत का सिद्धांत’ जिसमें ईश्वरीय ज्ञान की प्राप्ति के लिए तर्क का त्याग करना पड़ता है. दूसरा, अबू यजीद द्वारा प्रवर्तित ‘फना का सिद्धांत’. फना यानि स्वयं क़ो ईश्वर में विलीन कर लेना. फना की अवस्था के पश्चात् सूफ़ी बका यानि अंतिम अवस्था में प्रवेश करता है जिसमें ईश्वर और सूफ़ी के मध्यय के सारे अंतर ख़त्म हो जाते हैं.
सूफ़ी सामान्यतः सिलसिलों में विभाजित होते थे. भारत में सूफियों के चौदह सिलसिले प्रचलित थे. लेकिन समय के साथ ये संख्या घटती बढ़ती रहती थी.भारत में सुफियों का आगमन इस्लामी आक्रमणकारियों के साथ प्रारम्भ हुआ. भारत आने वाला पहला सूफ़ी शेख इस्माइल था जो महमूद गज़नवी की सेना के साथ 1001 ई. में आया था. ख़्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती 1192 ई. में मुहम्मद गोरी की फ़ौज के साथ भारत आया. सूफ़ी सिलसिलों में दो सबसे कट्टरपंथी सिलसिलों ‘सुहरावर्दी’ एवं ‘नक्शबंदी’ का मध्यकालीन हिंदुस्तान की राजनीति में सबसे अधिक दखल रहा हैं
सुहरावर्दी सूफ़ी शेख बहाउद्दीन जकरिया राजनीति में रूचि रखने वाला एक षड़यंत्रकारी किस्म का व्यक्ति था. कुबाचा, जिसने उसे राजकीय संरक्षण, धन, पद सबकुछ दिया, उसके विरुद्ध शेख बहाउद्दीन ने सुल्तान इल्तुतमिश को आमंत्रित किया और उसको पराजित करवाने और उसकी हत्या में पूर्ण साझीदार रहा. इसके पुरस्कार स्वरुप शेख बहाउद्दीन ने सुल्तान इल्तुतमिश से शेख-उल-इस्लाम का पद प्राप्त किया. इसी सिलसिले के सूफ़ी शेख जलालुद्दीन तबरीजी, जिसका केंद्र बंगाल था, ने वहाँ के आदिवासियों का बड़े पैमाने पर धर्मान्तरण कराया.
बंगाल के ही सुहरावर्दी सूफ़ी शेख जमालुद्दीन ने पांडुआ के निकट देवतल्ला में अपना खानकाह (सुफियों का निवास स्थान) बनवाने के लिए एक हिंदू मंदिर को ध्वस्त करा दिया. वह हिन्दुओं के इस्लाम में बलात् धर्मान्तरण कराने के लिए कुख्यात था. अब नक्शबंदी सिलसिले को देखें तो इनसे मुगलों का संबंध बाबर के जमाने से रहा था. बाबर नक्शबंदी सूफ़ी ओबैदुल्ला अहरार का अनुयायी था. इसी सिलसिले का सूफ़ी ख्वाजा ख्वान्द महमूद भारत आया एवं कश्मीर को अपना केंद्र बनाकर इस्लाम के प्रचार में लिप्त हो गया. इसके संबंध अकबर तथा जहांगीर से थे.
बाद में शाहजहां के काल में ये लाहौर में बस गया. अकबर की उदार नीतियों के विरुद्ध नक़्शबंदी सूफ़ी बाकी बिल्लाह ने एक आंदोलन खड़ा कर दिया. इस आंदोलन के विरुद्ध उसने उमरा वर्ग से समर्थन माँगा, एवं कई मुग़ल अमीर उसके मुरीद भी बने. इसी बाकी बिल्लाह का आध्यात्मिक उत्तराधिकारी शेख अहमद सरहिन्दी था. ये वही शेख अहमद था जो पूरे हिंदू समाज को ‘कुत्ते से बदतर’ तथा शियाओं को ‘काफिरों से भी घटिया’ मानता था. गैर – इस्लामिक लोगों के प्रति अकबर की उदार नीतियों का वह घोर विरोधी था. वह चाहता था कि हिन्दुओं पर पुनः ‘जिजिया’ लागू हो और गो-हत्या की छूट प्रदान की जाए. जहांगीर इस शेख अहमद का शिष्य था.
औरंगजेब भी इसी कट्टरवादी नक्शबंदी परंपरा का अनुयायी था, और शेख मासूम का शिष्य था. शेख मासूम के उकसाने पर ही उसने पुनः ‘जिजिया’ लागू किया. इन उदाहरणों का ये बिल्कुल अर्थ नहीं कि बाकी सूफ़ी सिलसिले प्रेम, साहिष्णुता, भक्ति में ही डूबे एवं राजनीति से परे थे.चिश्ती सूफ़ी शेख निजामुद्दीन औलिया (मृत्यु -1325 ई.) ने, जिनकी मज़ार दिल्ली में हैं, खुसरो बरादू के सत्ता पर बलात् कब्जे के दौरान राजकोष की लूट से एक धन का एक बड़ा हिस्सा प्राप्त किया. बाद में इसी सार्वजनिक धन को नये सुल्तान गियासुद्दीन तुगलक ने लौटने को कहा. शेख निजामुद्दीन के धन वापस लौटाने से मना करने पर सुल्तान गियासुद्दीन से मनमुटाव हो गया था.
दूसरे चिश्ती सूफ़ी नसीरुद्दीन चिराग देहली (मृत्यु -1356 ई.) ने उस षड़यंत्र में हिस्सा लिया जिसके तहत मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् उसके बेटों या भाईयों के बजाय चचेरे भाई फिरोज तुगलक को सत्तासीन कराया गया. ये वही इतिहास में कुख्यात धर्मान्ध फिरोज हैं जिसे सिकंदर लोदी एवं औरंगजेब का अग्रगामी या पथप्रदर्शक माना जाता है. हिन्दुओं के विरुद्ध अत्याचार के कुख्यात और औरंगजेब का पूर्वगामी सिकंदर लोदी कादिरिया सिलसिले के सूफ़ी मखदूम जिलानी का शिष्य था.
शत्तारिया सिलसिले के सूफ़ी मोहम्मद गौस ने हुमायूं के ग्वालियर हमले में मदद की. इसी ने संगीतज्ञ तानसेन क़ो इस्लाम में धर्मान्तरित कराया. इसी सिलसिले के शेख शेख बुरहानुद्दीन ने उत्तराधिकार युद्ध में औरंगजेब का पक्ष लिया. चिश्ती सूफ़ी शेख निजामुद्दीन फारुकी ने भी मुग़ल राजनीति में रूचि ली. जहाँगीर के विद्रोही पुत्र खुसरो का पक्ष लेने के कारण उसे राज्य से निष्कासित कर दिया गया. कुब्राबिया सिलसिला जो कश्मीर में सक्रिय था, वहाँ हिन्दू जाति के धर्मान्तरण में लिप्त रहा था. इन्होंने अपने समर्थकों को सनातनियों के मंदिरों एवं धार्मिक स्थलों को अपवित्र और ध्वस्त करने के लिए प्रोत्साहित किया. मीर सैय्यद अली हमदानी इसी सिलसिले से सम्बंधित था.
फ़िरदौसिया संप्रदाय के सूफ़ी फ़ख्रउद्दीन ने पेनकोंडा के राजा और प्रज़ा को इस्लाम में दीक्षित किया. दक्षिण में चिश्ती सूफ़ी शेख बुरहानुद्दीन गरीब (दौलताबाद), हाजी रूमी( बीज़ापुर) एवं मुहम्मद गेसूदराज(गुलबर्गा)ने इस्लाम के प्रसार- प्रचार किया और धर्मान्तरण विशेष रूचि ली. सामान्यतः सूफ़ीवाद का जो चित्रण इस देश में किया जाता रहा है, यथार्थ उससे अलग है. उपरोक्त पंक्तियों में प्रस्तुत कुछ ऐतिहासिक तथ्यों से इसकी पुष्टि हो जाएगी. कोई भी लेखक या इतिहासकार अपनी रूचि के विषय पर लेखन के लिए स्वतंत्रता है.
आपत्ति तथ्यों एवं घटनाओं के गलत निरुपण से है. कोई भी अर्द्धसत्य असत्य के समतुल्य ही होता है. सूफ़ीवाद को यूँ प्रदर्शित करना मानो वह कोई प्रेम , सदभाव विषयक पंथ हो, सही नहीं है. उन संपादक महोदय की बात अर्द्धसत्य थीं ऐसा हीं एक अर्धसत्य जम्मू कश्मीर के एक पूर्व मुख्यमंत्री एवं राज्यसभा में विपक्ष के नेता रह चुके व्यक्ति ने भी कहा. दो अर्धसत्य कभी भी पूर्ण सत्य नहीं होते सकते लेकिन इनसे पूर्ण सत्य की परिकल्पना जरूर की जा सकती है. अपनी उत्पत्ति के तीन सौ सालों के भीतर इस्लाम ने एशिया, अफ्रीका और यूरोप तक अपना प्रभाव स्थापित किया. लेकिन इसके साथ ही इस्लाम के अनुयायियों के ध्वँसात्मक कार्यों ने इस्लाम के प्रति दुनिया में नकारात्मकता पैदा कर दी.
अरब फिर भी कुछ सभ्य थे किंतु तुर्को एवं तातारियों ने गैर- मुसलमानों के प्रति अति बर्बर रवैया अपनाया. प्रारम्भ में भारत में भी इस्लाम का स्वागत अन्य पंथो की भाँति नम्रता से हुआ किंतु इस्लामिकों के क्रूर रवैये के बाद सनातनी भी अपने धर्म- संस्कृति के रक्षार्थ सन्नाद्ध हो गये. सूफ़ीवाद का प्रारम्भ इस्लाम के मानवीय एवं भावुक पक्ष क़ो उभार कर उसके प्रति उपजी नकारात्मकता को दूर करना था. ऐसा नहीं था कि सिर्फ रूढ़िवादी उलेमा ही धर्मान्तरण को उत्सुक थे, सूफियों का मूल उद्देश्य भी धर्मान्तरण ही था, लेकिन सद्भावना और प्रेम के साथ.
जो कार्य इस्लाम की तलवार नहीं कर पाई उसे बहुत हद तक सूफियों ने किया. रुढ़ीवादी उलमा एवं सुफियों में इस मसले पर एकमतता थी कि धर्मान्तरण होना चाहिए, फर्क सिर्फ इतना था कि सूफ़ी इसे बलात् नहीं बल्कि सदभाव, प्रेम एवं सौहार्द के द्वारा करवाने के इक्छुक थे.सूफियों में वास्तविक प्रेम भी मात्र इस्लाम के अनुयायियों के लिए ही था. एक वामपंथी इतिहासकार दबे शब्दों में स्वीकार करते हैं कि, ‘यद्यपि सूफ़ी सतों का मुख्य सरोकार मुसलमानों का दुःख दूर करने से था….’इस्लाम के रूढ़िवादी एवं आक्रामक चेहरे क़ो सूफ़ीवाद ने चाहे जितना ढंकने का प्रयास किया हो, इसके बावजूद कट्टरपंथी उलेमा की शत्रुता सुफियों के प्रति कम नहीं हुई.
कई सूफियों जैसे,मंसूर अल हज़्ज़ाज, शाह इनायत (विख्यात पंजाबी कवियों बुल्ले शाह एवं वारिस शाह के गुरु) आदि की हत्या इस्लाम के अपमान के नाम पर हुई. उत्तराधिकार युद्ध में हारने के पश्चात् उलेमा की जिस अदालत ने दारा शिकोह क़ो मृत्युदंड दिया उसने दारा के सूफ़ी विचारों क़ो ही आधार बनाकर उस पर अभियोग चलाया. सूफ़ीवाद के आगमन के साथ ही भारत में उसकी स्वीकार्यता के पीछे भी भक्ति आंदोलन की पृष्ठभूमि थी. भारत में आठवीं सदी में ही दक्षिण में भक्ति आंदोलन प्रारम्भ हो चुका था.
11वीं-12वीं सदी तक यह उत्तर में भी प्रसारित होने लगी थी. ऐतिहासिक रूप से यही समय सूफ़ी मत के उत्तर भारत में आगमन का भी है. सुफियों ने भक्ति आंदोलन के प्रतीकों एवं तत्वों क़ो तेजी से अपनाया. यही वजह थी कि भारतीय समाज में उन्हें स्वीकृति मिलने में विशेष समस्या नहीं हुई. उदाहरणस्वरुप, सूफियों ने यहाँ प्रचलित लोकप्रिय प्रेम कथाओं के के किरदार यथा, शशि-पुन्नू, लोरिक-चंदा, हीर-रांझा, सोहनी- महिवाल आदि को अपने साहित्य में स्थान देकर सूफ़ी सन्देश को भारतीय जनता के लिए सुग्राह बनाया.
यही नहीं शेख नूरुद्दीन (कश्मीर) और उसके अनुयायियों ने खुद क़ो हिंदू संतो के समान ऋषि कहना शुरू कर दिया. अब्दुल वाहिद बिलग्रामी ने हकैक- ए- हिंदी की रचना कर कृष्ण, गोपी, गोकुल, राधा, वंशी, गंगा आदि शब्दों क़ो इस्लामी पर्याय देने का प्रयास किया. इन्होंने ने सनातन ज्ञान पर भी अपना दावा किया. शेख नासिरुद्दीन देहलवी ने प्राणायाम क़ो सूफ़ीवाद का तत्व बता दिया, इत्यादि.
समझना कठिन है कि इस देश में धार्मिक सद्भावना के प्रसार के नाम कब तक इतिहास को विकृत और असत्य रूप में परोसा जाता रहेगा.इसमें कोई समस्या नहीं की कोई लेखक या पत्रकार समाज में सदभाव, भाईचारा फैलाना चाहता हो अथवा गंगा-जमुनी तहजीब का ध्वजवाहक बनना चाहता हो. विरोध ऐतिहासिक तथ्यों के गलत निरुपण और उनके दुष्प्रचार से है. इतिहास की प्रस्तुति ईमानदारी जरुरी है क्योंकि आपके द्वारा तथ्यों से की गयी छेड़छाड़ इतिहास को विकृत कर सकती है और विकृतिपूर्ण इतिहास भावी पीढ़ियों को पथभ्रष्ट करेगा. जिससे उन्हें बचाना आवश्यक है.
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