विपुल रेगे। ख्यात व्यक्तियों के पैरों के निशान वक्त की रेत पर कुछ गाढ़े होते हैं। कुछ अधिक समय तक टिकते हैं, कुछ को हवा मिटा देती है। सुब्रत राय के पैरों के निशान कुछ अधिक गाढ़े थे। उनके चले जाने के बाद भी ये निशान वक्त की पैर पर मौजूद हैं। ख्यात व्यक्तियों का जीवन खुली किताब होने के साथ प्रेरणादायी भी होता है। हालाँकि कभी-कभी भटके जहाज़ों को रोशनी दिखाने वाले ये ‘लाइट हाउस’ असमय बुझ जाते हैं। सुब्रत राय एक ऐसे ही ‘लाइट हाउस’ थे।
तिनके से वृक्ष बनने का स्वप्न हर मनुष्य ताउम्र पालता रहता है। यदि तिनका गरीबी की मिट्टी में जन्मा हो तो वृक्ष बनने की उत्कंठा बड़ी ही तीव्र होती है।हालाँकि सुब्रत एक शिक्षित और प्रभावशाली परिवार से आते थे। उनके पिता सुधीर चंद्र राय बंगाल के धनिक भाग्यकुल रॉय परिवार से थे। इस परिवार की सम्पत्तियाँ बंगाल से बिहार तक फैली हुई थी। इसी परिवार ने पंडित ईश्वर चंद्र विद्यासागर को विद्यासागर कॉलेज शुरू करने के लिए ऋण प्रदान किया था।
ऐसा भी कहा जाता है कि भाग्यकुल रॉय परिवार ने सन 1890 में बंगाल विभाजन का विरोध किया था। हालाँकि पिता की मृत्यु के साथ ही सुब्रत की राह अपने धनाढ्य परिवार से अलग हो गई थी। उन्हें आजीविका के लिए स्कूटर से सड़कों पर नमकीन बेचना पड़ा। 1978 में जब उन्होंने ‘सहारा’ लॉन्च किया तो उनकी जेब में दो हज़ार रुपये बचे थे। इसके बाद सुब्रत की उड़ान पूरे भारत ने देखी। परिवार से अलग होने के बाद वे पुनः भाग्यकुल रॉय परिवार का ‘भाग्य’ पा गए थे। ये वह समय था, जब सरकारें सुब्रत की जेब में हुआ करती थी।
अपने छोटे से कार्यालय में सुब्रत दो कुर्सी लगाकर बैठते थे और एक स्कूटर उनके पास था। इस छोटी सी सम्पत्ति से उन्होंने दो लाख करोड़ की हिमालयीन ऊंचाई देखी। जो भी सुब्रत की कामयाबी को देखता था, उसे लगता था कि ये आदमी ईश्वर का आशीर्वाद लेकर धरती पर आया है। राजनीति और सरकार उनकी जेब में थी और लाखों निवेशकों की शक्ति उनकी रीढ़ की हड्डी बन चुकी थी। कोई नहीं कह सकता था कि विशाल सहारा साम्राज्य को किसी की नज़र भी लग सकती है।
समय गुज़रा और इन्दौर शहर का एक व्यक्ति सुब्रत की कुंडली में ‘शनि’ बनकर प्रवेश कर गया। इन्दौर के एक चार्टेड अकाउंटेंट रोशनलाल ने सन 2009 में सेबी को एक पत्र लिखकर सूचना दी कि सहारा ने 24,000 करोड़ के बॉन्ड जुटाने में सेबी के नियमों का उल्लंघन किया है। हालाँकि एक ‘पिन’ के चुभने से ‘गुब्बारा’ नहीं फटा। ये मामला कई वर्ष तक चलता रहा। सुब्रत के साथ राजनीति और सरकार थी लेकिन रोशनलाल के साथ कोई न था। समय पलटा और एक दिन सुब्रत को जेल जाना पड़ा। जो युवा सुब्रत को रोल मॉडल मानते थे, ये उनके लिए गहरा झटका था।
एक समय ऐसा भी था जब सुब्रत युवाओं के प्रेरणास्त्रोत हुआ करते थे। आमिर खान की एक फिल्म ‘गजनी’ में मुख्य किरदार एक बड़ा बिजनेसमैन था। इस संजय सिंघानिया के कैरेक्टर के लिए सुब्रत राय के गेटअप की कॉपी की गई थी। भारत में युवाओं के लिए किसी को रोल मॉडल बनाना बड़ा ही कठिन है। वे जिसे अपना रोल मॉडल बनाते हैं, वह कुछ वर्ष बाद खलनायक में परिवर्तित हो जाता है। शुक्र है कि अब तक कोई बड़ा खिलाड़ी या वैज्ञानिक अपने कॅरियर के बाद के वर्षों में खलनायक नहीं हुआ। कभी सलमान खान युवाओं के लिए प्रेरणास्त्रोत थे और बाद में उन्होंने फुटपाथ पर गाडी चढाने जैसा काम किया।
भारतीय ‘दर्शन’ है कि जो आत्मा चली गई हो, उसके बारे में बुरा मत बोलो। ये ‘दर्शन’ सुब्रत राय पर भी अप्लाई हो रहा है। बहुत से प्रसिद्ध व्यक्ति सुब्रत और उनकी दरियादिली को याद कर रहे हैं। याद तो वे गरीब भी कर रहे हैं, जिनका रोज़ का पांच-दस रुपया सहारा की नींव का पत्थर बन गया। सुब्रत राय को अंतिम समय में बेटे के हाथ अग्नि नसीब नहीं हुई। उनके पोते हिमांक ने उन्हें अग्नि दी। बताया जा रहा है कि सुब्रत की पत्नी स्वप्ना रॉय और दोनो बेटे सीमांतो और सुशांतो सेबी के राडार पर हैं और इसी कारण वे पिता को अग्नि देने भारत नहीं आ सके।
क्या इसे विधाता का न्याय नहीं कहा जाना चाहिए कि खरबों का साम्राज्य बनाने वाले सुब्रत को उनके ही कथित अपराध के चलते बेटे के हाथ अग्नि नहीं प्राप्त हुई। कहते हैं मरने के कुछ क्षण पूर्व हमारा जीवन रिवाइंड होकर एक फिल्म के रुप में हमें दिखाई देता है। क्या सुब्रत को इस रिवाइंड फिल्म में वे मेहनतकश लोग दिखाई दिए होंगे, जिनका भरोसा जीतकर सुब्रत ने अपना स्वर्ग रचाया था। ऐसे दारुण अंत युवा पीढ़ी को सुंदर सीख दे सकते हैं। पैसा कमाने का कोई शार्ट कट नहीं होता। निर्धनों की पीठ में छूरा घोंपकर आप अपने स्वर्ग में आनंद से नहीं रह सकते। जब ईश्वर लाठी चलाता है तो आपकी अकूत संपदा, आपकी जेब में पड़े नेता और सरकार भी बेकार हो जाते हैं।