श्वेता पुरोहित। महाराज युधिष्ठिर कौरवों को युद्ध में पराजित करके समस्त भूमण्डल के एकच्छत्र सम्राट् हो गये थे। उन्होंने लगातार तीन अश्वमेध यज्ञ किये। उन्होंने इतना दान किया कि उनकी दानशीलता की ख्याति देश-देशान्तर में फैल गयी। पाण्डवों के भी मनमें यह भाव आ गया कि उनका दान सर्वश्रेष्ठ एवं अतुलनीय है।
उसी समय जब कि तीसरा अश्वमेध यज्ञ पूर्ण हुआ था और अवभृथ-स्नान करके लोग यज्ञभूमि से गये भी नहीं थे, वहाँ एक अद्भुत नेवला आया। उस नेवले के नेत्र नीले थे और उसके शरीर का एक ओर का आधा भाग स्वर्ण का था। यज्ञभूमि में पहुँचकर नेवला वहाँ लोट-पोट होने लगा।
कुछ देर वहाँ इस प्रकार लोट-पोट होनेके बाद बड़े भयंकर शब्द में गर्जना करके उसने सब पशु-पक्षियों को भयभीत कर दिया और फिर वह मनुष्यभाषा में बोला – ‘पाण्डवो ! तुम्हारा यह यज्ञ विधि पूर्वक हुआ, किंतु इसका पुण्यफल कुरुक्षेत्र के एक उञ्छवृत्तिधारी ब्राह्मण के एक सेर सत्तू के दानके समान भी नहीं हुआ।’
नेवले को इस प्रकार कहते सुनकर आश्चर्यचकित ब्राह्मणों ने धर्मराज युधिष्ठिर के धर्माचरण, न्यायशीलता तथा अपार दानकी प्रशंसा करके पूछा- ‘नकुल! तुम कौन हो? कहाँ से आये हो? इस यज्ञकी निन्दा क्यों करते हो?’
नेवले ने कहा – मैं न आपके द्वारा कराये यज्ञ की
निन्दा करता हूँ न गर्वकी या झूठी बात करता हूँ। मैं उस ब्राह्मणकी कथा आपको सुना रहा हूँ। कुछ वर्ष पूर्व कुरुक्षेत्रमें एक धर्मात्मा ब्राह्मण रहते थे। उनके परिवार में उनकी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधू थी। वे धर्मात्मा ब्राह्मण किसानों के खेत काट लेनेपर वहाँ गिरे हुए अन्न के दाने चुन लाते थे और उसी से अपनी तथा परिवार की जीविका चलाते थे।
एक बार घोर दुर्भिक्ष पड़ा। ब्राह्मण के पास संचित अन्न तो था नहीं। और खेतों में तो बोया हुआ अन्न उत्पन्न ही नहीं हुआ था। ब्राह्मण को परिवार के साथ प्रतिदिन उपवास करना पड़ता था। कई दिनों के उपवास के अनन्तर बड़े परिश्रम से बाजार में गिरे दानों को चुनकर उन्होंने एक सेर जौ एकत्र किया और उसका सत्तू बना लिया।
नित्यकर्म करके देवताओं तथा पितरों का पूजन- तर्पण समाप्त हो जानेपर ब्राह्मण ने सत्तू चार भाग करके परिवार के सभी सदस्यों को बाँट दिया और भोजन करने बैठे। उसी समय एक भूखे ब्राह्मण वहाँ आ गये। अपने यहाँ अतिथि को आया देखकर उन तपस्वी ब्राह्मण ने उनको प्रणाम किया, अपने कुल-गोत्रादि का परिचय देकर उन्हें कुटी में ले गये और आदरपूर्वक आसनपर बैठाकर उनके चरण धोये । अर्घ्य-पाद्यादि से अतिथि का पूजन करके ब्राह्मण ने अपने भाग का सत्तू नम्रता पूर्वक उन्हें भोजन के लिये दे दिया।
अतिथि ने वह सत्तू खा लिया, किंतु उससे वे तृप्त नहीं हुए। ब्राह्मण चिन्ता में पड़ा कि अब अतिथि को क्या दिया जाय। उस समय पतिव्रता ब्राह्मणी ने अपने भागका सत्तू अतिथि को देनेके लिये अपने पतिको दे दिया। ब्राह्मण को पत्नी का भाग लेना ठीक नहीं लग रहा था और उन्होंने उसे रोका भी; किंतु ब्राह्मणी ने पति के आतिथ्य धर्म की रक्षा को अपने प्राणों से अधिक आदरणीय माना। उसके आग्रह के कारण उसके भाग का सत्तू भी ब्राह्मण ने अतिथि को दे दिया। लेकिन उस सत्तू को खाकर भी अतिथि का पेट भरा नहीं। क्रमपूर्वक ब्राह्मण के पुत्र और उनकी पुत्रवधू ने भी अपने भाग का सत्तू आग्रह करके अतिथि को देने के लिये ब्राह्मण को दे दिया। ब्राह्मण ने उन दोनों के भाग भी अतिथि को अर्पित कर दिये।
उन धर्मात्मा ब्राह्मण का यह त्याग देखकर अतिथि बहुत प्रसन्न हुए। वे ब्राह्मणकी उदारता, दानशीलता तथा आतिथ्य की प्रशंसा करते हुए बोले- ‘ब्रह्मन् ! आप धन्य हैं। मैं धर्म हूँ, आपकी परीक्षा लेने आया था। आपकी दानशीलता से मैं और सभी देवता आपपर प्रसन्न हैं। आप अपने परिवार के साथ स्वर्ग को शोभित करें।”
नेवले ने कहा – ‘धर्म के इस प्रकार कहनेपर स्वर्ग से आये विमानपर बैठकर ब्राह्मण अपनी पत्नी, पुत्र और पुत्रवधूके साथ स्वर्ग पधारे। उनके स्वर्ग चले जानेपर मैं बिलसे निकलकर जहाँ ब्राह्मणने सत्तू खाकर हाथ धोये थे, उस कीचड़में लोटने लगा । अतिथि को ब्राह्मणने जो सत्तू दिया था, उसके दो-चार कण अतिथि के भोजन करते समय वायु से उड़कर वहाँ पड़े थे। उनके शरीरमें लगने से मेरा आधा शरीर सोनेका हो गया। उसी समय से शेष आधा शरीर भी सोनेका बनानेके लिये मैं तपोवनों और यज्ञस्थलोंमें घूमा करता हूँ, किंतु कहीं भी मेरा अभीष्ट पूरा नहीं हुआ। आपके यहाँ यज्ञभूमिमें भी मैं आया, किंतु कोई परिणाम नहीं हुआ।’
‘युधिष्ठिर के यज्ञ में असंख्य ब्राह्मणों ने भोजन किया और वनस्थ उस ब्राह्मण ने केवल एक ही ब्राह्मण को तृप्त किया। पर उसमें त्याग था। चारोंने भूखे पेट रहकर उसे भोजन दिया था। दान की महत्ता त्याग में है, न कि संख्यामें।’ वह नेवला इतना कहकर वहाँ से चला गया।
महाभारत – अश्वमेध० ९०