यह वर्ष वैसे तो कई चीज़ों के लिए जाना जाएगा, मगर फिर भी एक और चीज़ के लिए यह जाना जाएगा, वह है साहित्य का दोगले रूप का और निखर कर सामने आना। इन दिनों लाइव की बहुत धूम है, हर मंच लाइव करवा रहा है। ऐसे ही पिछले दिनों हिंदी कविता लाइव की वेबसाईट पर साहित्य की राजनीति और कविता का वर्तमान” विषय पर ऑनलाइन श्रृंखला का आरम्भ हुआ। इसी श्रृखंला में वरिष्ट कवि संजय चतुर्वेदी ने हिंदी कविता की राजनीति पर जमकर प्रहार किए और इस बात पर भी हैरानी जताई कि कैसे साहित्य को हिन्दू अस्मिता से दूर करने का षड्यंत्र आरम्भ हुआ। उन्होंने स्पष्ट पूछा कि हिन्दू अस्मिता को अलग करने वालों को खुसरो का चरित्र क्यों नहीं दिखाई देता? क्यों इकबाल की नज्मों में छिपा कट्टरपंथी मुस्लिम रूप दिखाई नहीं देता। यद्यपि उन्होंने यह भी कहा कि इन कमियों के कारण भी उनके साहित्यिक योगदान को खारिज नहीं किया जा सकता है।
संजय चतुर्वेदी की इतनी खरी खरी से हिंदी साहित्य में हंगामा मच गया और दिल्ली दरबार उनके खिलाफ खड़ा हो गया। दिल्ली दरबार ही क्यों पूरा कथित लिबरल कवि जगत हडबडा गया। दूरदर्शन में कार्य कर चुके कवि कृष्ण कल्पित ने संजय चतुर्वेदी के खिलाफ मोर्चा खोला। परन्तु समय अब कृष्ण कल्पित जैसों के हाथों से निकल चुका है। खेमेबाजी अब लग रहा है जैसे अपने अंत की तरफ पहुँच रही है।
जैसे जैसे आम जनता इन खेमे के ठेके साहित्यकारों को समझती जा रही है, इनकी कुंठा और भी बढ़ती जा रही है। यह कुंठा कहाँ जाकर रुकती है वह तो समय बताएगा मगर एक नई बात उभर कर आई कि अब यह लोग उन लोगों को जो इनकी औसत रचनाओं को श्रेष्ठ मानने के लिए तैयार नहीं हैं, या उनके लेबल की परवाह नहीं करते हैं उन्हें हिन्दू फासीवादी की संज्ञा देते हैं। एक बड़े अख़बार में कार्य कर रहे रामजन्म पाठक ने फेसबुक पर एक जगह लिखा कि आज खतरा हिन्दू फासीवाद से है। “हिन्दू फासीवाद?” यह शब्द ही स्वयं में भ्रामक है और एक निहायत ही घटिया शब्द है। फासीवाद नहीं सहेंगे, दरअसल एक नारा हुआ करता रहा होगा, जिसे लगाकर ऐसे लोग अख़बारों के विभिन्न पदों पर कब्जा कर लिए होंगे। फासीवाद आखिर क्या है? और हिंदी साहित्य कब फासीवाद से मुक्त रहा है। बस फर्क इतना है कि जो आज हिन्दू फासीवाद जैसे शब्द गढ़ रहे हैं। असली और नकली वाम की दुहाई दे रहे हैं।
संजय चतुर्वेदी ने जिस तरफ इशारा किया कि साहित्य से हिन्दू अस्मिता को अलग करने की कवायद आरम्भ हुई। क्या यह फासीवाद नहीं है?
मंगलेश डबराल जैसे बड़े कवि जिनकी कविता में कूट कूट कर हिन्दू विरोध भरा है, क्या वह फासीवाद नहीं है? एक वर्ग ऐसा है जिसकी धर्मनिरपेक्षता का आरम्भ वर्ष 2002 के बाद से हुआ है। उन्होंने गोधरा को बिलकुल भुला दिया है, और उसके बाद हुए दंगों को अपनी कल्पना से रंगा है। इनमें वह मंगलेश डबराल भी हैं जो निरपेक्ष होने का दावा करते हैं और गुजरात के मृतक का बयान नामक कविता में वह जमकर हिन्दुओं के खिलाफ भडास निकालते हैं। यह लोग झूठ का ऐसा शब्दजाल बनाते हैं कि सत्य दब जाता है, यह फासीवाद है!
हिन्दू फासीवाद कैसे शब्द गढ़ा गया, यह तो शोध का विषय है मगर सोशल मीडिया के आने से पहले जो यह लोग चाहते थे, वह करते थे। जिसे सम्मान देना चाहते थे देते थे, जिसे नीचे गिराना चाहते थे गिराते थे। सोशल मीडिया ने उनके इस लेखक निर्माता होने के सपने को तोडा है। अब वह जिसे सम्मान देते हैं, उसकी खबर और कविता इन्टरनेट पर आती है, और जैसे ही वह सबके लिए उपलब्ध होती है, वैसे ही अब लोग प्रश्न करते हैं कि कविता में ख़ास क्या है? और यही प्रश्न उन्हें फासीवाद की आहट लगते हैं? युवाओं को एक सम्मान दिया जाता है, भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार! यह 35 वर्ष से कम की आयु वाले युवाओं को दिया जाता है। वैसे तो यह विवादों में रहने वाला है ही, मगर तीन चार साल से यह और भी विवादों में घिर गया है। दो तीन वर्ष पहले यह कवियत्री शुभम श्री को दिया गया, कविता पोएट्री मैनेजमेंट के लिए। पोएट्री मैनेजमेंट लिखने वाली शुभमश्री को यह मैनेजमेंट आता है कि किस तरह से वामपंथी निर्णायकों को मैनेज करना है, और उन्होंने विद्या के देवी सरस्वती माँ पर एक अपमानजनक कविता लिखी थी। जिसमें माँ सरस्वती के लिए:
सुन्दर रोमावलियुक्त योनि वाली
या श्यामवर्ण योनि वाली
कदलीस्तम्भ के समान जंघाओं वाली
या मेद क्षीण होने की रेखाओं भरी जंघा
वाली
धनुष के समान पिण्डली वाली
या बबूल की छाल जैसी पिण्डली वाली
तुम्हारे लालिमायुक्त चरणों की जय हो
तुम्हारे रजकणधूसरित बिवाई फटे पैरों की
जय हो जैसे शब्दों का प्रयोग किया गया था।
आम लोग इन जैसों को न ही सुनना पसंद करते हैं और न ही पढ़ना, इसलिए फासीवाद की आहट इन्हें आई हुई लगती है। विदेशी बिम्ब के आधार पर और पूर्ण बहुमत के साथ चुनकर आई सरकार को गाली देने वाले विहाग वैभव को इस वर्ष का यह सम्मान मिला है। इन सभी के फेसबुक लिंकों पर हिन्दू अस्मिता के प्रति घृणा टपकती रहती है। जब आम पाठक इन्हें कुछ समझाता है और कहता है तो इन्हें लगता है कि फासीवाद आ गया है। हिन्दू फासीवाद आ गया है। हिन्दू फासीवाद गढ़ने वाले पत्रकार कैसे काम करते होंगे यह सहज समझा जा सकता है। यह फर्जीवाड़ा करने वाले लोग अपने विचार के अलावा कुछ और सुनना पसंद नहीं करते हैं। फर्जीवाड़ा करके लेखक बनाने वाले लोगों के जाल में न फंसकर लोग अब प्रश्न करते हैं कि आप पालघर में संतों पर हुए हमलों पर क्यों नहीं बोलते हैं? तो यह कहते हैं कि हिन्दू फासीवाद आ रहा है। जब लोग यह पूछते हैं कि आपके द्वारा दिया गया सम्मान आखिर किन मापदंडों पर दिया गया है तो इन्हें लगता है कि हिन्दू फासीवाद आ रहा है
जो लोग हिन्दू फासीवाद का रोना रो रहे हैं, उनकी कविता और कहानियों ने कितना जहर अब तक समाज में घोल दिया होगा, यह भी एक प्रश्न है, अब लोग इस जहर को पीने के लिए तैयार नहीं हैं, इसलिए फासीवाद आ रहा है!
दरअसल अब इनकी असलियत सामने आ रही है, शब्दों के पीछे घुसा हुआ इनका घिनौना चेहरा सामने आ रहा है, इसीलिए यह फासीवाद का रोना रो रहे हैं। फासीवाद देखना है तो पिछले तीन चार दशक की सरकार द्वारा मिली गयी फेलोशिप, साहित्य में सम्मान आदि के सूची देखिये, फिर समझ में आएगा कि फासीवाद क्या है।
जिसे आप हिन्दू फासीवाद कहते हैं वह हकीकत में आपके फासीवाद का अंत है, पाठकों की जागृति है!