
#UPElection2022 स्वतंत्र देव और योगी की जोड़ी नया इतिहास रचने की ओर अग्रसर!
अभी तक के सारे एक्जिट पोल उप्र में भाजपा बंपर जीत ओर जाती दिख रही है। चुनाव मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के काम और प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के ‘डबल इंजन’ मुहावरे पर लड़ा गया, लेकिन संगठन का सारा दांव-पेंच उप्र भाजपा के अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह के नेतृत्व में लड़ा गया।
पिछड़े वर्ग से आने वाले स्वतंत्र देव सिंह की रणनीति के कारण बड़ी संख्या में पिछड़ों का वोट सपा-बसपा-कांग्रेस की जगह भाजपा को मिला, जिस कारण विपक्ष की सारी रणनीति ध्वस्त हो गई।
चुनाव से ठीक पहले भाजपा सरकार और गठबंधन छोड़ कर पिछड़ों के बड़े नेता स्वामी प्रसाद मौर्य, ओमप्रकाश राजभर, दारा सिंह चौहान आदि जब चले गये तो यह माना जा रहा था कि पिछड़ों का वोट इस बार भाजपा से पिसल गया, लेकिन स्वतंत्र देव सिंह की रणनीति ने न केवल भाजपा छोड़ कर निकले नेताओं को अप्रासंगिक बना दिया, बल्कि भाजपा की जीत की पटकथा भी लिख दी।
देश के सबसे बड़े सूबे में सियासी जीत-हार 2024 के लिहाज से खास मानी जा रही है. बेशक इसीलिए देश-दुनिया की निगाह मतदान के आखिरी दिन सर्वे रिपोर्टों पर लगी हुई थी. अधिकतर सर्वे रिपोर्ट एक बार फिर से यूपी में बीजेपी सरकार की मुनादी कर रहे हैं. ऐसे में लग रहा है कि चुनावी बेला में सपा की तरफ गये पिछड़े नेताओं का कोई खास फायदा समाजवादी पार्टी को नहीं मिला है.
स्वतंत्र कार्ड से विरोधी हुए चित्त
भाजपा से जुड़े बड़े नेताओं के दलबदल के लिए चुनावी बेला का इंतजार और भाजपा से जाने वाले नेताओं का पिछड़ों की अनदेखी का पत्र में लिखा एक जैसा मजमून दरअसल अखिलेश की पिछड़ी सियासत की मजबूत व्यूह रचना थी. अखिलेश की चाल भाजपा रणनीतिकार भी अच्छी तरह समझ रहे थे. भाजपा से जुड़े विश्वस्त सूत्र बताते हैं कि दल-बदल एपीसोड के बाद पार्टी के रणनीतिकारों ने यूपी प्रदेश अध्यक्ष और कुर्मी समुदाय के बड़े नेता स्वतंत्र देव सिंह (Swatantra Dev Singh) से दिल्ली में लम्बी बैठक की और नये सिरे से जीत का ब्लू प्रिंट तैयार किया.
नये सिरे से हुई व्यूह-रचना
स्वतंत्र देव सिंह की ही सलाह पर तय किया गया कि पार्टी के नेता जाने वालों पर तीखा हमला नहीं बोलेंगे. यह संदेश देना भी तय हुआ कि पार्टी के मौजूदा विधायकों के अपरिहार्य स्थितियों में ही टिकट काटे जायेंगे, ताकि भगदड़ जैसी स्थिति आगे न बने जैसी अफवाहें हवाओं में तैर रही थीं. साल 2017 में 102 ओबीसी विधायकों के साथ सत्ता तक पहुंची भाजपा ने इस बार भी पिछड़ों को तवज्जो देना तय किया. भाजपा यह मानकर चल रही थी कि पार्टी के साथ अगड़े मौजूदा चुनाव में भी खड़े रहेंगे, फोकस पिछड़ों- खास तौर पर कुर्मियों- और गैर-जाटव दलितों पर करना है. लिहाजा, स्वतंत्र देव सिंह को बाकायदा हेलीकाप्टर देकर पिछड़े इलाकों में सघन रैलियां और रोड शो करने को कहा गया. प्रदेश में तकरीबन साढ़े बारह फीसदी कुर्मी समुदाय के इस मलाल को कि वो प्रतिस्पर्धी यादवों से पीछे होते जा रहे हैं पार्टी ने करीने से भांप लिया और इस बड़े वोट बैंक को अपने पीछे मजबूती से खड़ा कर लिया.
यूपी की सियासत का सही आकलन
दरअसल, यूपी की जातिगत राजनीति में हमेशा से पिछड़े सरकार बनाने-बिगाड़ने की भूमिका में रहते रहे हैं. पिछड़ी जमात में मुखर और सम्पन्न माने जाते रहे यादव-कुर्मी अपने सामाजिक असर और संख्या बल के चलते अन्य पिछड़ों और दलितों पर भी खासा प्रभाव रखते हैं. सपा मुखिया अखिलेश भी जानते थे कि गैर-यादव पिछड़ों- खासकर कुर्मियों- को साथ लाये बिना यूपी के रण में जीत सम्भव नहीं है. लिहाजा, उन्होंने कुर्मियों को संदेश देने के लिए ही सपा प्रदेश अध्यक्ष नरेश उत्तम पटेल को पारिवारिक सदस्यों से ज्यादा तवज्जो दी. गठबंधन सहयोगियों की पहली बैठक में अपना दल- के की कृष्णा पटेल को अध्यक्षता की मुख्य कुर्सी पर बिठाकर और तस्वीर वायरल हो यह तय कर, अखिलेश ने दरअसल कुर्मियों को ही संदेश दिया था.
भाजपा सरीखी अखिलेश की व्यूह रचना
जीत के लिए भाजपा ने सातों चरणों के लिए अलग-अलग रणनीति बनाई. छवि के हिसाब से भी पार्टी नेताओं को रैलियों-रोड शो के लिए लगाया गया. कानून व्यवस्था, वंचित तबकों को मदद, रोजगार, कारोबार, सड़क-पानी-बिजली सरीखे मुद्दों को हर मंच से उठाया गया. मीडिया-सोशल मीडिया को पार्टी संदेशों से पाट कर हर दिमाग में घर बना कर जीत हासिल कर ली गई.
भाजपा रणनीतिकार यह अच्छी तरह से समझ रहे थे कि 2014 के लोकसभा चुनावों में यूपी की 80 लोकसभा सीटों में 73 पर जीत दरअसल पिछड़ा वर्ग के साथ आ जाने से ही मिली थी. 2017 के यूपी विधानसभा चुनाव में 403 सीटों में से 312 पर जीत भी पिछड़े तबके के साथ खड़े रहने से ही मिली थी. 2017 में बीजेपी के साथ रहे अपना दल को भी 9 विधानसभा सीटें और ओमप्रकाश राजभर की पार्टी को 4 सीटों पर जीत हासिल हुई थी. 2019 के लोकसभा चुनाव में बसपा-सपा के गठजोड़ के बावजूद भाजपा की 80 सीटों में 62 पर जीत भी ऐतिहासिक ही मानी गयी. लेकिन इस बार अखिलेश ने भी भाजपा सरीखी व्यूहरचना कर पार्टी की नींद हराम कर दी थी.
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