गत वर्ष एक वामपंथी साहित्यकार ने एक पत्रिका के विमोचन के अवसर साहित्यअमृत पत्रिका पर अत्यंत ही उपहासजनक टिप्पणी की थी कि पत्रिका का स्तर बनाए रखना, नहीं तो छप तो साहित्य अमृत भी रही है! मैं कई दिनों तक इस टिप्पणी के मूल में जाकर सोचती रही थी। साहित्य दर्पण भी छप ही रही है अर्थात? यह बीज वाक्य किस ओर संकेत कर रहा था? क्या वह उनकी छद्म बौद्धिकता की ओर इंगित कर रहा था?
या साहित्य अमृत के प्रति उनका कोई दुराग्रह था क्योंकि कहा जाता है कि जब साहित्य अमृत पत्रिका का प्रवेशांक आया था तो भी एक बड़े वामपंथी लेखक ने तंज कसते हुए कहा था कि देखते हैं कि यह पत्रिका कब तक निकलती है?
एक वामपंथी के तंज से लेकर दूसरे वामपंथी लेखक के उपहास पूर्ण दंभ तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। पाठकों की एक पीढ़ी बदल चुकी है। क्योंकि साहित्य अमृत पत्रिका का इस वर्ष रजत जयंती अंक पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत हुआ है।
साहित्य का अर्थ दरअसल लाल रंग के कुछ लोगों ने अपनीही विचारधारा से ले लिया था। जो भी उनकी विचारधारा का नहीं था वह लेखक तो क्या पाठक भी नहीं था। एक वर्ग ऐसा था जिसने पाठको पर भी अपनी विचारधारा थोपनी चाही और अपने क्षेत्र में लोकतंत्र का गला पूरी रह से घोंटा। साहित्य का अर्थ मात्र संस्कृति से दूर प्रगतिशील साहित्य माना गया, जिसमें संस्कृत का नाम लेना पाप था और राम को अपशब्द कहना सबसे बड़ी प्रगतिशीलता थी। जबकि वर्ष 1995 के अगस्त माह से साहित्य जगत में प्रवेश करने वाली साहित्य अमृत का मूल वक्तव्य ही साहित्य एवं संस्कृति का संवाहक था।
यह जो तंज और उपहास था वह संस्कृति से दूर और संस्कृति को समाए हुए साहित्य के मध्य संघर्ष का आरम्भ था। जो जनवादी मूल्य और प्रगतिशील मूल्य थे, उनके लिए साहित्य का अर्थ प्रगतिशील लेखन के साथ आरम्भ हुआ साहित्य था, जो वर्ष 1935 में अखिल भारतीय प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना के साथ आरम्भ हुआ था। उससे पूर्व का लेखन उनके लिए बेकार था। यह संघर्ष था जनवादी राष्ट्रीयता और हिन्दू पुनुरुत्थान राष्ट्रीयता के बीच। चूंकि जनवादी राष्ट्रीयता का पक्ष भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ही ले चुके थे और हिंदी साहित्य को एक तरह से कूप मंडूक साहित्य ठहरा चुके थे। चूंकि वह मेरी कहानी में बार बार स्वयं को समाजवादी कहते हैं और हिंदी भाषा के संस्कृत शब्दों की आलोचना करते हैं।
यह एक सुन्दर भारत माता की अवधारणा तथा जनवादी मूल्यों के अनुसार बदसूरत भारत के मध्य संघर्ष था। जनवादियों का मानना है कि हिंदुस्तान तो मुख्यतः उन किसानों और मजदूरों का देश है, जिनका चेहरा खूबसूरत नहीं, क्यूंकि गरीबी खूबसूरत नहीं होती। परन्तु वह यह नहीं जानना चाहते कि आखिर हमारे देश में जिसकी अर्थव्यवस्था ऐसी थी जिसके आकर्षण के कारण मुग़ल और बाद में अंग्रेज आए, उस देश के संपन्न कुटीर कहाँ चले गए और भारत माता को मलिन किया। यह कुरूप चेहरा भारत का कभी नहीं था जो कथित प्रगतिशील और जनवादी साहित्य में दिखाया गया।
साहित्य अमृत उस माँ के मूल्यों पर आधारित साहित्य को लेकर आगे बढ़ी जिससे वह समाज में सकारात्मक एवं सुन्दर चेतना का विस्तार कर सके। साहित्य अमृत में मात्र भारत की विपन्नता को लेकर रुदन वाली रचनाएं न होकर सृजन की रचनाएं थीं। इसका उद्देश्य चेतना का हर संभव विकास करना था ताकि भारत में रहने वाला हर नागरिक स्वयं को सशक्त तथा माँ का लाल अनुभव कर सके, बजाय सदा प्रश्न उठाने वाली पत्रिकाओं के, जो एक अजीब प्रकार की वितृष्णा समाज में उत्पन्न कर रही थीं।
तो जब वामपंथी लेखक ने साहित्य अमृत को लेकर तंज कसा था कि छप तो साहित्य अमृत भी रही है, तो इनका अभिप्राय यह था कि जिस भाषा और संस्कृति को भारत के प्रथम प्रधानमंत्री ने ही जैसे इनके विकृत हाथों के हवाले कर दिया था, उस भाषा और संस्कृति को कौन पढ़ेगा? कौन आत्मसात करेगा? परन्तु साहित्य अमृत की भाषा, मूल्य एवं संस्कृति को भारत की सुसंस्कृत चेतना ने स्वीकारा एवं न केवल स्वीकारा अपितु आत्मसात भी किया। तथा एक और बात साहित्य अमृत ही रही कि उसने अच्छे विचारों और रचनाओं का सदा स्वागत किया, तभी तब से लेकर अब तक वह कई विशेषांक पाठकों के सम्मुख प्रस्तुत कर चुकी है।
इस वर्ष जब यह पत्रिका अपने रजत जयन्ती वर्ष में एक पूर्ण यौवना की भांति इठला रही है तो एक दृष्टि डालते हैं कि अंतत: इस अंक में क्या विशेष है?
इस अंक में काफी कुछ विशेष है, जो आपको अचरज में डालेगा कि क्या इतना सकारात्मक विशेष हो सकता है। पृष्ठ 11 पर प्रवेशांक का सम्पादकीय है जिसे विद्यानिवास मिश्र जी ने लिखा था तथा साहित्य अमृत क्यों आवश्यक है, यह बताया गया है। वह लिखते हैं कि “आज ऐसी पत्रिका की जबरदस्त मांग है जी हृदयग्राही साहित्य का क्षितिज खोल सके रचनाकार को आतंक से मुक्त कर सकें, साथ ही पाठक और रचनाकार के बीच ऐसा पुल बने जो धार को छूता हुआ हो”
अर्थात वह भी यही कह रहे हैं कि जो साहित्य उस समय जनता के सामने प्रस्तुत किया जा रहा था वह ऐसा नहीं था जो भीतर तक शीतलता दे दे। वह छद्म समीक्षा सा बनकर रह गया था। वह आगे इस बात पर प्रकाश डालते हैं कि साहित्य अमृत क्या करेगी। “साहित्य अमृत में रचनात्मक पक्ष पर ही ध्यान होगा, हर विधा की रचना होगी तथा भाषा विन्यास पर भी ध्यान दिया जाएगा”
लगभग 300 पन्नों के इस विशेषांक में श्री लाल शुक्ल, मृदुला सिन्हा, उषाकिरण खान, नासिरा शर्मा की कहानियाँ हैं तो संस्कृति पर विद्या निवास मिश्र, भारतीय लोक कलाओं पर मालिनी अवस्थी का लेख है। यतीन्द्र मिश्र भी साहित्य, संगीत और कलाओं का आत्मसंवाद कराते हुए लिख रहे हैं कि साहित्य को आरम्भ से ही एक आदर्श विधा के रूप में स्वीकार किया गया जबकि सिनेमा क्रांतिकारी है। रेणु की प्रतिस्मृति है। कविताओं में रमेश पोखरियाल निशंक, मृदुला सिन्हा, गंगा प्रसाद विमल, सुनीता जैन, बालस्वरूप राही, अशोक चक्रधर आदि की कविताएँ हैं।
उपन्यास अंश हैं जिनमें हरीश नवल के गोवा गमन तथा भारतीय संस्कृति के लिए पूर्णतया समर्पित मनोज सिंह के उपन्यास मैं आर्यपुत्र हूँ के अंश सम्मिलित हैं।
हिंदी साहित्य का कोई विशेषांक हो और निर्मल वर्मा न हों यह नहीं हो सकता। उनका यात्रा वृत्तान्त है हूरों, हवाओं का नगर!आलोक पुराणिक, सुभाष चंदर के व्यंग्य सहित स्तरीय व्यंग्य है।
कुलमिलाकर यह कहा जा सकता है कि जिस समय हिंदी जगत की वह पत्रिकाएँ जिन्हें जनवादी बुलबुले पर बनाया गया था तथा सरकारी विज्ञापनों एवं एक खास विचारधारा ही जिनका आधार थीं, वह धीरे धीरे दरक रही हैं, क्योंकि उन्होंने जनवाद तो किया, परन्तु जनता के निकट नहीं गईं, उन्होंने लोक की बातें की परन्तु लोक को तोड़ने की बात की। और जिस पत्रिका ने भारत माँ की चेतना को साहित्य के माध्यम से आम जन मानस तक ले जाने का संकल्प लिया वह इस चुनौतीपूर्ण समय में राज्य जयन्ती विशेषांक निकाल रही हैं।