अब आमिर खान को लेकर ‘ओशो’ पर बायोपिक बनाने की घोषणा हुई है। आमिर एक बड़े अभिनेता हैं और थोड़ी मेहनत इस किरदार के लिए कर लेंगे तो अपने नाम पर फिल्म हिट करवा लेंगे। सोचने वाली बात है कि 400 करोड़ के मेगा बजट में आमिर और करण जौहर फिल्म को विश्व स्तरीय बना पाएंगे या नहीं।
दुनिया के श्रेष्ठ फिल्मकारों ने कई बेहतरीन बायोग्राफिकल फ़िल्में बनाई हैं। इनमें कुछ फ़िल्में इतनी त्वरा से बनाई गई कि वे विश्व सिनेमा की धरोहर बन गई। रिचर्ड एटनबरो की कालजयी फिल्म ‘गाँधी’ उन अनुपम फिल्मों में एक मानी जाती है। गाँधी की केंद्रीय भूमिका निभाने वाले अभिनेता बेन किंग्सले ने शूटिंग से पहले मांसाहार और शराब छोड़ दी थी। अपने गोरे रंग को सांवला बनाने के लिए उन्होंने तीखी धूप का सेवन किया और इसके बाद ही शूट पर आए। एक विश्व स्तरीय बायोपिक निर्देशक और कलाकारों से उच्च स्तर का समर्पण मांगता है। एक प्रभावी बायोपिक बनाने के लिए कई वर्ष तैयारी करनी पड़ती है। विश्व की श्रेष्ठ पचास बायोपिक में एक भी भारतीय फिल्म शामिल नहीं है।
दूसरे महायुद्ध के दौरान जर्मन उद्योगपति ऑस्कर शिंडलर ने 1200 यहूदियों को यातना शिविरों में मरने से बचाया था। ऑस्कर पर निर्देशक स्टीवन स्टीवन स्पीलबर्ग ने ‘द शिंडलर्स लिस्ट’ बनाई थी। ये फिल्म सर्वकालिक महान बायोपिक मानी जाती है। रिचर्ड एट्टनबोरो की ‘गाँधी’ को इस सूची में पन्द्रहवां स्थान मिला है। सूची में द पियानिस्ट, लिंकन, अ ब्यूटीफुल माइंड और चैपलिन भी शामिल है। प्रश्न ये है कि किसी भारतीय निर्देशक की बनाई कोई भी बायोपिक इस सूची में शामिल क्यों नहीं है।
भारत में महिला डकैत फूलनदेवी पर बनी ‘बेंडिट क्वीन’ अब तक की सबसे बेहतरीन बायोपिक मानी जाती है। शेखर कपूर निर्देशित ये फिल्म फूलनदेवी के जीवन के भयानक संस्मरणों को जस का तस सामने रखती है। फिल्म के दृश्य इतने सजीव हैं जैसे फूलन का जीवन हमारी आँखों के सामने घटित हो रहा हो। फूलन के सामूहिक बलात्कार वाले दृश्य को शेखर कपूर ने ऐसे फिल्माया कि दर्शक को बलात्कार से घृणा हो जाए। इसी क्रम में ‘बोस-द फॉरगेटन हीरो’ को रखा जा सकता है। श्याम बेनेगल की इस फिल्म में सचिन खेडेकर ने नेताजी को खुद में रूपांतरित कर लिया था। एमएस धोनी भी एक बेहतरीन बायोपिक मानी जाती है। गत शुक्रवार प्रदर्शित सूरमा भी एक स्तरीय बायोपिक है और दर्शक इसे खासा पसंद कर रहे हैं।
भारतीय इतिहास में इतने नायक भरे पड़े हैं कि इन पर हज़ारों बायोपिक बनाए जा सकते हैं और बन भी रहे हैं। हालाँकि ये बायोपिक बहुत उथलेपन के साथ बनाए जा रहे हैं। एक जीते जागते इंसान की ज़िंदगी पर फिल्म बनाना और उसमे संगीत, नाच डालने से बायोपिक प्रभावी नहीं रह जाता। इसके अलावा बायोपिक के केंद्रीय पात्र अपनी भूमिका में ढलने के लिए वैसा प्रयास नहीं करते जैसा बेन किंग्सले या बलराज साहनी किया करते थे। बॉलीवुड में बायोपिक पर मेहनत करने का रिवाज नहीं है। फिल्म की घोषणा होने के साथ ही शूटिंग शुरू हो जाती है। स्क्रीनप्ले पर ठीक से काम नहीं होता। बेवजह गीत डालने से निर्देशक का बिछाया भ्रमजाल भंग हो जाता है।
सन 2009 में निर्देशक परेश मोकाशी की बनाई बायोपिक ‘हरिश्चंद्राची फैक्टरी’ मराठी फिल्मों में सबसे उम्दा मानी जाती है। दादा साहेब फाल्के के जीवन पर आधारित ये फिल्म ऑस्कर तक पहुंची थी लेकिन अवार्ड न जीत सकी। परेश मोकाशी हमें ये दिखाने में कामयाब रहे कि भारत की पहली फिल्म बनाने के लिए फाल्के को कितनी अग्नि परीक्षाओं से गुज़रना पड़ा। बॉलीवुड में बायोपिक का बाजार गर्म है लेकिन कोई भी शेखर कपूर और परेश मोकाशी के स्तर तक नहीं पहुँच पा रहा, फिर विश्व सिनेमा की बात ही जाने दीजिये।
गाँधी फिल्म पर अस्सी के दशक में 22 मिलियन यानि लगभग छह करोड़ का खर्च आया था। फिल्म का काम पूरा होते-होते निर्देशक एट्टनबोरो कंगाल हो चुके थे। उनको फिल्म के प्रदर्शन के लिए पत्नी के गहने बेचने पड़े थे। क्या ऐसा समर्पण आमिर खान ‘ओशो’ के लिए दिखा सकेंगे या ध्यान 400 करोड़ वसूलने पर ही टिका रहेगा। ओशो जैसे महासंत की भूमिका के लिए आमिर को कई वर्षों की तैयारी चाहिए होगी। क्या निर्माता करण जौहर इतना सब्र रख सकते हैं।
URL: Aamir Khan starrer biopic on ‘Osho’ start soon by karan johar
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