प्रख्यात इतिहासकार श्री पुरुषोत्तम नागेश ओक (1917-2007) ने अपनी पुस्तक ‘वैदिक विश्व राष्ट्र का इतिहास’ के खण्ड 2, पृ. 466-467 पर इस्लाम-पूर्व अरब के एक शिलालेख का ज़िक्र किया है, जिसे उन्होंने ब्रिटिश म्यूजियम, लन्दन में रखा बताया है। ब्रिटिश म्यूज़ियम की वेबसाइट पर बहुत ढूँढ़ने पर उस शिलालेख का विस्तृत विवरण मिल गया।
यह चूना-पत्थर से यमन (दक्षिणी अरब) में निर्मित इस्लाम-पूर्व की एक धूपदानी है, जो ब्रिटिश म्यूजियम के म्यूजियम नं. 125340 में रखी है। ब्रिटिश म्यूज़ियम में इसे 1935 में अदन से लाया गया था। मेजर जेम्स रॉबर्ट कॉलक्यूहॉन क्रूसल ने इसे ब्रिटिश म्यूजियम को भेंट किया। क्रूसल ने इस धूपदानी के साथ इस्लाम-पूर्व के कुछ और भी पुरावशेषों को ब्रिटिश म्यूजियम को भेंट किया था।
इस धूपदानी का कटोरा घनाकार है। इस कटोरे में अर्धचन्द्र और सूर्य की आकृति उत्कीर्ण है। आधार भाग में तीन पंक्तियों में कताबानी भाषा में दक्षिणी अरबी अभिलेख उत्कीर्ण है, जिसका अभिप्राय है कि ‘हानुम बैरन ने इस (धूपदानी) को धात साहरन को समर्पित किया है।’ धात साहरन एक स्थानीय अरबी देवता थे।
इस धूपदानी की कुल ऊँचाई 17.5 सेमी, कटोरे की ऊँचाई 8 सेमी, कटोरे की दीवारों की ऊँचाई 1.4 सेमी, कटोरे की आंतरिक भाग की चौड़ाई 7.3 सेमी, कटोरे के बाहरी भाग की चौड़ाई 10.5 सेमी, आधार की चौड़ाई 10.5 सेमी, मोटाई 11 सेमी और वॉल्यूम 120 मिली है।
इस धूपदानी की विशेषता यह है कि इसके ऊपरी भाग में गोल सूर्य और अर्द्धचन्द्र उत्कीर्ण है। इस प्रकार अभिलेखों में सूर्य और चन्द्रमा की आकृति उत्कीर्ण करना वैदिक प्रथा है, जिससे यह भाव प्रकट किया जाता है कि अभिलेख उत्कीर्ण करवानेवाले की कीर्ति ‘यावच्चन्द्रदिवाकरौ’ (अर्थात्, जबतक सूर्य और चन्द्र अस्तित्व में रहेंगे तबतक) अमर रहेगी। उल्लेखनीय है कि ठीक ऐसा ही चिह्न पुरी के जगन्नाथ-मन्दिर के शिखर पर फहराती हुई ध्वजा पर भी अंकित है। अतः यह चिह्न अर्वस्थान में पाया जाना यह सिद्ध करता है कि प्रागैस्लामी अर्वस्थान में वैदिक-संस्कृति थी। इस्लामी-ध्वजों पर लगाया जानेवाला अर्द्धचन्द्र और तारे का चिह्न उपर्युक्त प्राचीन वैदिक-चिह्न का ही थोड़ा बदला हुआ रूप है।
ब्रिटिश म्यूजियम में भी ऐसी ही कुछ और भी धूपदानियाँ रखी हैं, जिनपर सूर्य और चन्द्र का चित्र उत्कीर्ण है।
साभार: गुंजन अग्रवाल के फेसबुक वाल से|