भारत की शिक्षा व्यवस्था गुरुकुल परम्पराओं से निकल कर वातानकूल कक्षाओं तक पहुँच गयी है। शिक्षा ग्रहण कर प्रसारित करने की बजाय केवल जीविकोपार्जन के लिए जीवन के शुरुवाती 20-25 साल खपाने की व्यवस्था बनकर रह गयी है। इस व्यवस्था के तहत भारत के अभिभावक ऊँचे दामों में अपने बच्चों के लिए ऊँची डिग्री खरीदना चाहते हैं ताकि कल उनका बच्चा इंजीनयर या डॉक्टर की डिग्री लेकर देश विदेश में सेट हो जाए। भारत की शिक्षा व्यवस्था पर हम लेखों की एक श्रृंखला शुरू कर रहे हैं प्रस्तुत है छठा आलेख…
मैं शिक्षा व्यवस्था पर खामियों की बात कर रहा था और यही सिद्ध करना चाहता हूँ कि आधुनिक पाठ्यपुस्तकों से हमने अनावश्यक तर्क करने वालों की पूरी जमात खडी कर ली है और रेखांकित कीजिये कि ये आपको वैज्ञानिक सोच देने की क्षमता हर्गिज नहीं रखते (पाठ्यपुस्तकों पर मैं आगामी आलेखों में चर्चा करूंगा)। आपकी बात ठीक है कि जॉन डालटन ने एटम की थ्योरी दी, कैपलर ने ग्रहों की गति के विषय में बताया, लेमार्क ने जीव विज्ञान की आधारशिला रखी, फैराडे ने बिजली खोजी, यूक्लिड गणित के परमपिता थे या कि राईट्स बंधुओं ने पहला हवाई जहाज उडाया। हमारे देश में कणाद से ले कर आर्यभट्ट तक विश्व के पहले-पहले निर्मित गुरुकुलों और विश्वविद्यालयों में लौकी छीलने का प्रशिक्षण ले रहे थे?
भारत में चुटकुले पैदा करने वालों की नयी जमात खड़ी हो गयी है। इन लोगों को कथित प्रगतिशीलता पर गर्व है, उन सभी तर्कों के थोथेचनों को वे जेब में लिये फिरते हैं, जो घना बजते हैं। आप कहेंगे कि हमारे प्राचीन शास्त्र, शोध और पुनर्व्याख्या की आवश्यकता रखते हैं तो वे खीं खीं कहते हुए खडे हो जायेंगे कि आपके प्रधानमंत्री ने गणेश से प्लास्टिक सर्जरी की शुरुआत कही थी या बिप्लव देव को सुना नहीं कि महाभारत के समय इंटरनेट था। इसके बाद आप विचारकों की इस जमात से गाय और गोबर भर भी उनके दृष्टिकोण का व्याख्यान सुन सकते हैं।
पहले अगस्त्य संहिता की बात करते हैं। वही महर्षि अगस्त्य जिनका उल्लेख वाल्मीकि रामायण में है कि उन्होंने राम को दिव्यास्त्र प्रदान किये थे। अब मिथक करार देने से पहले, गणेश और महाभारत करने से पूर्व यह भी जाने कि वही अगस्त्य जिन्हें तमिल भाषा के व्याकरण ग्रंथ अगस्त्यम का रचयिता माना जाता है। इसे भी छोडिये फैराडे की बात करते हैं। मुझे एक विमर्श में जानकारी प्राप्त हुई कि अगस्त्य संहिता में विद्युत उप्तादन का तरीका उल्लेखित है तो भीतर से वैसे ही हँसने की इच्छा हुई जैसे हमारे महान बुद्धीजीवी अट्टाहास करते हैं कि संजय ने धृतराष्ट्र को महाभारत सुनाई थी। मुझे इंजीनियर राव साहब कृष्णाजी वझे से जुडा एक विवरण मिला जिसके अनुसार उन्हें उज्जैन में किन्हीं दामोदर त्र्यम्बक जोशी के पास अगस्त्य संहिता के कुछ पृष्ठ प्राप्त हुए थे। श्री वझे जिन्होंने कि पूना से वर्ष 1891 में अपनी इंजीनियरिंग पूरी की थी, उन्हें एक श्लोक को पढ कर लगा, यह बिजली कैसे पैदा की जाती है इस ओर इशारा है? तत्क्षण उन्होंने नागपुर इंजीनियरिंग कॉलेज के प्राध्यापक श्री पी पी होले से संपर्क किया और इस तरह उस अगस्त्य संहिता के उस एक श्लोक पर अनुसंथान प्रारम्भ हुआ जोकि था –
संस्थाप्य मृण्मये पात्रे, ताम्रपत्रं सुसंस्कृतम्।
छादयेच्छिखिग्रीवेन, चार्दाभि: काष्ठापांसुभि:॥
दस्तालोष्टो निधात्वय: पारदाच्छादितस्तत:।
संयोगाज्जायते तेजो मित्रावरुणसंज्ञितम्॥
इसका अर्थ है कि पहले एक मिट्टी का पात्र (मृण्मये पात्रे) ले कर उसमें ताम्बे/ कॉपर की पट्टियाँ (ताम्रपत्रं) तथा शिखिग्रीवा डालें, फिर बीच में गीली काष्ट पांसु (काष्ठापांसुभि:) लगायें, ऊपर पारा/मर्क्यूरी (पारदाच्छादितस्तत:) तथा दस्ट लोष्ट (दस्तालोष्टो) डालें, अब जोडे हुए तारों को मिलाएंगे तो उससे बिजली (मित्रावरुणशक्ति) उत्पन्न होगी। विवरण पढने पर ज्ञात होता है कि श्लोक पर नागपुर में शोध कर रहे प्राध्यापक श्री होले ने सारी तैयारी कर ली लेकिन उन्हें शिखिग्रीवा शब्द का अर्थ समझ नहीं आया। इसका संस्कृत अर्थ है मोर की गर्दन और अगर इसी अर्थ में प्रयोग किया जाये तो क्या परिणाम निकलेंगे सोचा जा सकता है। शोधार्थी मोर की गर्दन प्राप्त करने की जुगाड़ में लगे हुए थे कि एक आयुर्वेद के आचार्य ने उनकी समस्या का समाधान किया और बताया कि शिखिग्रीवा का अर्थ मोर की गरदन नहीं अपितु उसकी गरदन के रंग जैसा पदार्थ अर्थात नीलाथोथा (कॉपरसल्फेट) है। अब इस श्लोक के आधार पर एक सेल बनाया गया। मल्टीमीटर से अनुमापन करने पर पाया गया कि इस सेल से 1.138 वोल्ट तथा 23 mA विद्युत धारा उत्पन्न हुई। आपको यह जान कर आश्चर्य अवश्य होगा कि अगस्त्य संहिता में विद्युत उत्पादन का तरीका ही नहीं, प्रकार व इसके संवर्धन की विधियाँ भी लिखी गयी हैं। यह संहिता कंडक्टर और इंसुलेटर का विभेद भी स्पष्ट करती है।
प्रश्न उठ सकता है कि इस उदाहरण की प्रासंगिकता क्यों है? इसके उत्तर से पहले हमारी सांस्कृतिक गुलामी पर चर्चा आवश्यक है। एक प्रयोग इस तरह कर के देखें और इसके लिये आपको महाभारत युग तक पीछे नहीं बल्कि समय से बहुत आगे चलने के लिये कह रहा हूँ। आधुनिक कविता के सशक्त हस्ताक्षर माने जाने वाले कवि मंगलेश डबराल ने एक कविता भीमसेन जोशी द्वारा गाये राग दुर्गा को सुनने के बाद लिखी थी, इस कविता की आरम्भिक कुछ पंक्तिया देखें –
एक रास्ता उस सभ्यता तक जाता था
जगह-जगह चमकते दिखते थे उसके पत्थर
जंगल में घास काटती स्त्रियों के गीत पानी की तरह
बहकर आ रहे थे
किसी चट्टान के नीचे बैठी चिड़िया
अचानक अपनी आवाज़ से चौंका जाती थी
दूर कोई लड़का बांसुरी पर बजाता था वैसे ही स्वर
एक पेड़ कोने में सिहरता खड़ा था
कमरे में थे मेरे पिता
अपनी युवावस्था में गाते सखि मोरी रूम-झूम
कहते इसे गाने से जल्दी बढ़ती है घास
अब इस कविता का विश्लेषण करने के लिये वर्ष 2050 के किसी दिन में चलते हैं। समाज बडी तरक्की कर गया है और यथार्थवादी है। वह इस कविता के बिम्बों, कल्पनाओं और निहितार्थों से इत्तेफाक नहीं रखता। वह कविता का अपने समय के अनुसार पुनर्पाठ करता है और अपने ही अर्थ गढता है। एक शोधार्थी तो रास्ता तक ढूंढ निकालता है जो जवाहरलाल विश्वविद्यालय, नयी दिल्ली के बगल से निकलता था और उसे कोने में मुगल काल के कुछ पत्थर भी मिल गये थे। तराशे गये पत्थरों की पॉलिश नहीं निकली थी इसलिये वे चमकते थे। छात्र समझ नहीं पा रहा है कि नदी के किनारे किस तरह का म्यूजिक सिस्टम लगाया गया था जिससे कि किसी किनारे में घास काटने वाली औरते जब गाती थीं तो उनकी आवाज एम्प्लिफाई हो जाती थी और अभी यह सिद्ध किया जाना है कि आवाज पानी में बह कर किस तरह आ सकते हैं। साउंड पानी में ट्रेवेल करते हुए किस तरह विजिबल हुआ होगा इस टेक्लॉलोजी का पता अभी वैज्ञानिक नहीं लगा पाये हैं। यह सब कुछ एक साजिश का हिस्सा है क्योंकि गाने जब बह कर आते थे तो उसे सुन कर चिडिया डर जाती थी वह जिस तरह चिल्लाती थी उसे सुन कर एक लड़का वैसी ही आवाज बांसुरी में निकालता था। यह पक्षियों पर अत्याचार करने जैसा है और उस समय घांस काटने वाले, बांसुरी बजाने वाले लोगों ने मिल कर बायोडाईवर्सिटी का सत्यानाश कर दिया है। कविता में स्वर का सिहरना और गाने से घाँस का बढना जैसी नॉनसाईंटिफिक बाते लिखी गयी हैं जो बताती हैं कि उस युग में लोग पिछडी सोच वाले, दकियानूस और गये गुजरे थे।
2050 का यह सम्भावित विश्लेषण कोई काल्पनिकता मान कर हँस कर मत टाल दीजियेगा क्योंकि हमने यही किया है अपनी सदियों पुरानी कविताओं के साथ। यह हमारी कमी है कि हम निहितार्थों का सही विश्लेषण नहीं कर पाते तो अकड़ कर शब्दार्थों के साथ खड़े हो जाते हैं। हम बिम्बों की विवेचना नहीं करते बल्कि स्वर का सिहरना और गाने से घास का बढना अमान्य करार दे कर अपनी बुद्द्धिजीविता का ढिंढोरा पीटने में लग जाते हैं।… क्रमशः
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साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से
साभार: राजीव रंजन प्रसाद के फेसबुक वाल से
URL: Indian Education System and the Ghost of Lord Macaulay-5
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जाहिल आदमी। कभी अगस्त्य संहिता खोल के देख तो लेते। उसमें कहीं नहीं ये सब नौटंकी।