प. राजकुमार मिश्रा। आज गृहस्थ एक बंधन हो चुकी है जबकी गृहस्थ तो मोक्ष का मार्ग है जहां स्त्री-पुरुष एक दूसरे की भावनाओं का सम्मान करते हुऐ मुक्ति की ओर बढ़े चलते हैं किंतु इसमें ये आवश्यक नहीं की दोनों पति-पत्नी एक साथ ही मुक्त हों!
मुक्ति तो स्त्री तत्व और पुरुष तत्व के महामिलन से ही सम्भव है और वोही महामिलन है शिव-शक्ति का मिलन किंतु ये आवश्यक नहीं की इस जन्म में जो स्त्री आपकी पत्नी बन आपके साथ है वोही आपकी शक्ति हो या जो पुरुष आपके पति रुप में हो वोही आपके शिव हों क्योंकि हम सभी अनंत जन्मों से अनेकों शुभ और अशुभ कर्मो को करते आऐ हैं और उन्हीं शुभ-अशुभ कर्मों के फलस्वरुप हमें इस जन्म ये समस्त भौतिक रिस्ते उपहार स्वरुप ईश्वर नें प्रदान किये हैं अत: वो उपहार हमें पसंद है या नापसंद इससे कोई अंतर नी पड़ता क्योंकी प्रत्येक मानव कर्म करने में स्वतंत्र है किंतु कर्मफल भोगने हेतु बाध्य है!
अत: किसी की भी गृहस्थ में किसी भी तरह की अनवन है वो अनवन विचारों की हो सकती है, भावों की हो सकती है या कुछ ओर भी हो सकती है उस अनवन को समाप्त करने का एक ही उपाय है जो भी दोनों में अधिक विवेकवान और चेतन्य है वो अपने विवेक और चेतना के स्तर अनुरुप ही कार्य करे और मंदबुद्धि को जिससे संतुष्टि मिले उसी अनुरुप कार्य करें क्योंकी किसी के भी हृदय को ठेस पहुंचाकर हम उन्नति नहीं कर सकते ना ही कर्म बंधनों से मुक्त हो सकते हैं!
कर्मबंधनों से मुक्ति तभी सम्भव है जब हम साक्षी भाव से सब देखते रहें हो क्या रहा है!
कभी भी किसी के दु:ख, दर्द का कारण कोई दूसरा नहीं हो सकता, हम आज जो भी कष्ट भोग रहे हैं वो सब हमारे पूर्व के कर्मों के ही परिणाम हैं इसलिऐ उन्हें आनंदित भाव से भोगें और प्रभु का भजन करते रहें, समस्त जिवात्माऐं उन्हीं परमपिता शिव की ओर अग्रसर हैं कोई आज मिल जाऐगा उनमें कोई कल इसलिऐ किसी को भी तुच्छ ना समझें और हमेशा देने का भाव रखें क्योंकी जितना देते जाओगे उतना ही पाते जाओगे!
यदी आपके आसपास के लोग आपके भावों को नही समझते और साथ ही आपका फोन चलाना उन्हें अच्छा भी नहीं लगता तो शालिनता से उनसे बात करें और अनुमती लेकर इस मंच पर आऐं और अपने समस्त भावों को व्यक्त कर दें जो भी समझने बाला होगा वो आपके मनोभावों को पकड़ेगा भी और समझेगा भी,,, ऐसा करने से आप भी प्रसन्न, जो आसपास के लोग हैं वो भी प्रसन्न और जो आपको पढ़ेंगे वो भी प्रसन्न!
सब प्रसन्न तो ईश्वर प्रसन्न!
जितना लिखा गया समझदार के लिऐ इतना पर्याप्त है और जो ना समझें उसके लिऐ समस्त वेद-पुराण, उपनिषदों का ज्ञान भी व्यर्थ!
शिव सदेव तुम्हारे हैं प्रिये और तुम्हारे ही रहेंगे!
घोर घोर अघोरेभ्यो नम: