मनीष ठाकुर । टीवी पर प्रधानमंत्री के लालकिले की प्रचीर से भाषण सुनने की आदत सन 1987 से है। शायद ही ऐसा कोई अवसर इन सालों में होगा जो मैने यह पल गवांया होगा। याद आता है साढे सात बजे लालकिला पर झंडातोलन होता था और प्रधानमंत्री का पूरा भाषण सुनने के बाद जो लगभग आठ बजे तक खत्म हो जाता था फिर पूरे उत्साह के साथ कॉलोनी के मुख्य मैदान की ओर भागता था जहां सभी स्कूल के लड़के लड़कियों के साथ बिहार पुलिस (BMP) के जवान की परेड होती थी । ठीक दस बजे मुख्य अभियंता, झंडातोलन के बाद परेड की सलामी लेते थे।
मुख्य अभियंता के भाषण मे वो मजा नहीं आता था जो जोश लालकिले से पाकिस्तान को गरियाने और धमकियाने के राजीव गांधी से लेकर बाद के प्रधानमंत्रियों को सुनने में आता था, क्योंकि वो सिर्फ बिजली के उत्पादन और प्रबंधन की बात करते थे जिससे उनका वास्ता होता था। हम बच्चों का उससे क्या मतलब ? हमें तो बस परेड के बाद मिलने वाली मिठाई के पैकेट का इंतजार होता था। सोचता हूं यदि उस समय मोदी देश के प्रधानमंत्री होते तो डेढ घंटे का उनका भाषण सुनने के चक्कर में या तो परेड की मिठाई से बंचित होता या प्रधानमंत्री के भाषण से। आज डेढ घंटे से ज्यादा समय तक बिना सरकारी पेपर पढे, बुलेट प्रूफ शीशे की परंपरा से बाहर आकर लालकिले की प्राचीर से देश को संबोधित करने के उनके अंदाज को झेलने वालों के लिए भी वही दुबिधा है। लेकिन सच कहूं तो लगभग इन तीन दशकों में जितने भी प्रधानमंत्रियों को लाल किले की प्रचीर पर चढते देखा मोदी इकलौते हैं जिन्हें देख कर बारमबार लगता है कि क्या सचमुच वे भारत के प्रधानमंत्री बन गए हैं?
यह सवाल बार बार मन में इसलिए उठता है क्योंकि गुजरात के मुख्यमंत्री के रुप में देश की मीडिया ने जितना नफरत उनसे किया आज तक किसी से नहीं। लगभग डेढ दशक में मोदी मीडिया के एक तरफा विरोध के बाद भी, जब वे गुजरात के मुख्यमंत्री बनते रहे तो मीडिया के एक बड़े वर्ग ने गुजरात में लोकतंत्र का सम्मान करने बदले गुजरात के बहुमत के खिलाफ माहोल बनाया कि गुजरात का चरित्र ऐसा है कि वहां मोदी मान्य हैं। उनने माहौल बनाया कि भारत का प्रधानमंत्री कोई भी हो सकता है मोदी जैसे लोग कतई नहीं। लेकिन नफरत के गर्भ से पैदा हुआ ,एक नेता वह कर गया जो भारत के इतिहास में कभी नहीं हुआ। इस सच को स्वीकार करना चाहिए कि मोदी के अलावा आज तक इतनी बड़ी बहुमत से बहुमान्य प्रधानमंत्री, कोई नहीं हुआ। तर्क यह दिया जा सकता है कि राजीव गांधी इससे बड़े बहुमत से जीते थे लेकिन सच स्वीकारना होगा की वो वोट राजीव को नहीं इंदिरा की शहादत को मिला था।
हिंदी पट्टी से अलग हटकर गुजरात के किसी मोदी का दुनिया के सबसे बडे लोकतंत्र का ऐसा जननेता बन जाना सचमुच अजुबा लगता है। तो क्या सचमुच वे एजेंडाधारी वामपंथियों और मदारियों द्वारा मान्य बनाए गए है? आज जब उन्होने लालकिले से कहा कि समस्याओं से टकराने में उन्हें मजा आता है तो लगता है कि वो खुशकिस्मत थे कि एजेंडाधारी कुतर्की मवाली लगातार अपने धंधे में लिप्त रहे। कश्मीर के आतंकवादियों से हमदर्दी रखने वाले मवालियों की गैंग ने देश के लिए अपना आज कुर्बान करने वाली सेना या अपने जड़ से उजड़े बदनसीब कश्मीरी पंडितों के लिए कभी सहानभूति नहीं रखी। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी से नफरत के कारण सेना का मनोबल कमजोर करने की साजिश में लिप्त हो गए। यहां तक कि सेना द्वारा बुरहान की हत्या के बाद कश्मीर में स्वायतता की बात करने लगे। लेकिन हद देखिए, जब देश के प्रधानमंत्री ने पहली बार पाकिस्तान के कश्मीर पर अपनाए रुख के जवाब में गुलाम कश्मीर और बलूचिस्तान की बात की तो मवाली गैंग पाकिस्तान की भाषा बोलने लगे।
ऐ एजेंडाधारी मवालियों का बेपर्द हो जाना है जिनने पत्रकारिता में उच्च मुकाम पाने के लिए विदेशी फंड का सहारा लिया। इनकी करतूतों से अब तो यह साफ होता है। राजदीप जैसे मवाली जब टीवी पर बोलते हैं तो उनकी नीयत साफ दिखती है। अक्सर, उनका रवैया पढे लिखे लोगों से अलग मवालियों सा होता है। अब वक्त सोशल मीडिया का है। पहले ये सब मवाली अपने एजेंडा के तहत कुछ भी बांच कर चले जाते थे कोई इन्हें कुछ बोलने वाला नहीं, सवाल पूछने वाला नहीं , लेकिन अब सोशल मीडिया ने इन्हे बहुरुपिया बना दिया है। गिरने दो इन्हें, ये भय और उतावनापन इसलिए कि अतित के करतूतों से कहीं पर्दा न हट जाए। लगे रहो मवालियों…