कमलेश कमल। दुःख निरोध की पहली सीढ़ी है- दुःख के यथार्थ कारणों को भलीभाँति देखना। यह देखना अलग हटकर, अविच्छिन्न या असंपृक्त होकर देखना है, विशुद्ध द्रष्टा भाव से देखना है, जिसे बुद्ध ने ‘सम्यक् दृष्टि’ या ‘right vision’ कहा।
जब यह देख लिया कि क्या-क्या है, गुण-दोष क्या हैं, संभावित परिणाम क्या हैं; तब यह पता चल जाता है कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं। क्या करणीय, अनुकरणीय है और क्या अकरणीय या त्याज्य है…किसका अर्थ है और क्या व्यर्थ है। यही दृष्टि जब स्पष्ट हो जाती है तथा मन के वैचारिक धुन्ध छँट जाते हैं, तब मन निर्णय लेने की अवस्था में पहुँच जाता है। यह सम्यक् दृष्टि के ठीक बाद का सोपान है और उचित ही दुःख से मुक्ति का द्वितीय सोपान है।
दृष्टि की स्पष्टता के पश्चात् मन स्वाभाविक रूप से किसी तार्किक निर्णय पर पहुँच जाता है। विवेक का तकाज़ा है कि इसे पहुँचना ही चाहिए। यही संकल्प है। जो निर्णय ले लिया उस पर अडिग रहना, अडोल रहना, निष्कंप रहना ही संकल्प है। यह संकल्प अगर समुचित हो, सर्वदा सही हो, तो सम्यक् संकल्प हो जाता है।सामान्य शब्दों में कहें तो सम्यक् संकल्प है, जो उचित है, उसे करने का संकल्प और जो अनुचित है, उसे न करने का संकल्प।
यह है अतीत के प्रभाव और रुचियों से मुक्त होकर तर्कसम्मत निर्णय पर पहुँचने का संकल्प, बिना किसी वैचारिक-धुंध के सोच सकने का संकल्प। यह है दुराचरण न करने का संकल्प। यह है मिथ्याचरण को समझकर उससे दूर रहने का संकल्प और सदाचरण से सदा चिपक कर रहने का संकल्प। यह है अधर्म के परित्याग का संकल्प और धर्म पथ पर सदा चलते रहने का संकल्प, धार्मिक अनुशीलन, अनुगमन और परिभ्रमण का संकल्प।
संकल्प की शक्ति, निश्चयात्मक मन की शक्ति के लिए एक सूक्ति है – “मन के हारे हार है, मन के जीते जीत”। भले ही यह बहुश्रुत और अभिख्यात है; पर क्या कभी हमने मन की चालाकियों, आश्वासनों और इनसे अभिरक्षित अकर्मण्यता और जडता के बरक्स इसकी उपयोगिता को परखा है? जीवन की अभ्युन्नति हेतु मन की निश्चयात्मिका शक्ति के रूप में या क्रियात्मक अभिप्रेरण के रूप में इस सूक्ति की, इस अभिवचन की सत्यता कितनी अभ्युपगमनीय है, कितनी अभ्यसनीय है? कितना कठिन है इसे साध पाना? क्या हमने इसकी सत्यता पर, इसकी सिद्धि की चुनौतियों पर और इसकी उपादेयता पर विचार भी किया है या सिर्फ़ दुहराते भर रहे हैं?
सबसे पहले तो यह मानना चाहिए कि संकल्प की शक्ति को अगर दु:ख निरोध से जोड़कर मानवता के शलाका पुरुष और बौद्धिकता के वट वृक्ष गौतम बुद्ध ने देखा तथा इसे दु:ख से मुक्ति के द्वितीय सोपान के रूप में प्रतिस्थापित किया, तो निस्संदेह ही इसकी महत्ता अत्यधिक है और कालातीत है।
यूँ तो हम सब जीवन में संकल्प की शक्ति को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में महसूस करते ही हैं। हम देखते हैं कि सफलता के नित अभिनव प्रतिमान स्थापित करने वाले खिलाड़ी, योद्धा, कलाकार या राजनेता बिना किसी अपवाद के संकल्प शक्ति के धनी होते हैं। संकल्प-शक्ति के बल पर ही वे वह कर जाते हैं, जो विकल्पों में उलझे, अनिर्णय के भंवर में फँसे, अनिश्चय के गह्वर में गड़े-ठिठके उनके प्रतिद्वंदी नहीं कर पाते।
लेकिन संकल्प का सम्यक् होना अत्यावश्यक है। कथा है कि महाभारत में जब अर्जुन को पता चलता है कि चक्रव्यूह में उसके पुत्र अभिमन्यु की हत्या का सबसे बड़ा दोषी जयद्रथ है, तो वह प्रण कर लेता है कि अगले दिन सूर्यास्त से पहले तक अगर वह जयद्रथ को नहीं मार सकेगा, तो अपने गांडीव सहित अग्नि-समाधि ले लेगा। दूसरे दिन दुपहर होने को आई है, पर अर्जुन जयद्रथ तक पहुँच ही न सका है। वह रह-रह कर सूर्य को देख रहा है। इस समय श्रीकृष्ण उसे एक अति महत्त्वपूर्ण सूत्र कहते हैं -“तुम भरतवंशियों की यही तो कमी है, पार्थ कि प्रण (संकल्प) लेने के पहले सम्यक् विचार नहीं करते। तुमने क्रोध में प्रण तो ले लिया, पर अब तुम्हारी दृष्टि लक्ष्य से अधिक समय पर है, सूर्य पर है।” यह कथा हमें बताती है कि संकल्प सम्यक् तभी हो सकता है, जब उसके सभी पहलुओं पर विचार हो और उसकी युक्तियुक्तता पर विचार हो।
संकल्प जब सम्यक् हो जाता है, तब उसमें कोई संशय नहीं रहता और कार्य सिद्धि तभी हो सकती है, जब कोई संशय न रहे। ‘संशयात्मा विनश्यति:’ का यही तो निहितार्थ है। उचित ही आश्वस्ति है कि संशय की स्थिति अत्यंत ही दु:खकारक और त्रासदपूर्ण होती है। श्री कृष्ण ने कहा- “असंशयं महाबाहो मनो दुर्निग्रहं चलम्। अभ्यासेन तु कौन्तेय वैराग्येण च गृहयते।।” अर्थात् हे महाबाहो, निस्संदेह मन चंचल और कठिनता से वश में होने वाला है। परंतु, हे कुंती पुत्र अर्जुन! अभ्यास और वैराग्य से यह मन वश में होता है और इसका चाञ्चल्य दोष दूर होता है।
यहाँ वैराग्य का अर्थ है- संपूर्ण विषयों से अपने को मुक्त करना और जो करना है उसके लिए संकल्पित होना तथा अन्य विकल्पों को बंद करना। इसी अर्थ में कहा जाता है- “संकल्प में विकल्प नहीं होता।” दुनिया में व्यवधान की, distraction की, ध्यान भंग करने वाले तत्त्वों की कमी नहीं है और उनमें खो जाना भी कोई बड़ी बात नहीं है। बड़ी बात तो है विवेकपूर्ण होकर मन में आए उन व्यवधानकारी, विघ्नकारी विचारों को झिड़क देना। साधना-पथ के पथिकों ने यह अनुभूत किया है कि जब आप मन के हठ को, इन विघ्नकारी विचारों को भाव नहीं देंगे, तो ये उसी तरह ज़्यादा देर नहीं टिकेंगे जिस प्रकार जिन अतिथियों की आवभगत नहीं होती, वे ज़्यादा नहीं ठहरते।
संकल्प शक्ति है- प्रासंगिक चिंतन और तद्नुरूप कार्य। सम्यक् दृष्टि से व्यक्ति लाभकारी और हानिकारक विचारों को पहचानने में महारथ हासिल कर ही लेता है। यह हम सबका अनुभव है कि सामान्य विवेक से इतना तो पता चल ही जाता है कि क्या ग़लत है और क्या सही, क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं, किस वृत्ति को अपनाना चाहिए और किस वृत्ति का परित्याग होना चाहिए। ऐसे में असली संघर्ष है- यह सब जानते हुए भी एक संकल्प लेना और कार्यरूप देना।
हम जानते हैं कि परिस्थितियों के सदुपयोग से परिवर्तन संभव है, सिर्फ़ चाहने भर से नहीं। एक विद्यार्थी को पता तो है कि उसे क्या-क्या पढ़ना है, किस तरह पढ़ना है, पर सिर्फ़ पढ़ने की प्रबल अभिलाषा रखना क्या पर्याप्त है? नहीं! असफलता की कल्पना से डरना भी सही विकल्प नहीं है। तो, आवश्यकता होती है, संकल्प की, निश्चयात्मिका बुद्धि की, अवबोध की और कार्य संपादन की।
संकल्प किस चीज का हो? पंचक्लेश (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश) की परिसमाप्ति का संकल्प हो। द्वेष न रहे, अहंकार न आ पाए, कटुता न आए, अविद्या का शमन हो- कुछ ऐसा संकल्प हो।
अविद्या क्या है? अशुचि को शुचि, जड को चेतन, नश्वर को अनवश्वर मानना, नित्य को अनित्य और पराए को अपना मानना। अविद्या है बुद्धि पर मन का प्राधान्य। कुछ मनसविदों ने तो यहाँ तक कहा है कि मन के अतिरिक्त अविद्या कुछ नहीं है। अच्छी बात यह है कि इसे दूर किया जा सकता है। विद्या और ज्ञान के विनियोग से इस अविद्या को विनष्ट करने का संकल्प हो, ज्ञान के अवशोषण का संकल्प हो, बेहतर समय प्रबंधन का संकल्प हो, कौशल के परिवर्द्धन का संकल्प हो ।
यहाँ यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि अगर दृष्टि सम्यक् नहीं है, तो संकल्प सम्यक् होना बड़ा मुश्किल है। एक उदाहरण से देखते हैं- एक ठीक-ठाक पढ़ा लिखा व्यक्ति प्रतिदिन अपने कई घण्टे टेलीविजन के सामने बैठकर बर्बाद करता है। वह ऑफिस से घर आता है, थोड़ा सुस्ताने के लिए टेलीविजन खोलकर बैठ जाता है और फ़िर कई घण्टों तक चैनल ही बदलता रहा जाता है। स्वाध्याय या बच्चों को पढ़ाने आदि आवश्यक कार्य भी वह दूसरे दिन के लिए टाल देता है। ऐसा क्यों होता है?
टेलीविजन देखते समय व्यक्ति के ब्रेन का स्कैन किया गया और यह पाया गया कि व्यक्ति का मस्तिष्क तेज़ी से सम्मोहन जैसी अवस्था में पहुँच जाता है। इसका अर्थ यह है कि टेलीविजन अनजाने ही आपके अवचेतन को प्रोग्राम करने लगता है, नियंत्रित करने लगता है। ऐसे में अगर एक पढ़ा लिखा व्यक्ति इसे नियंत्रित नहीं कर पाता है तो गाँव की सीधी-साधी औरत इसके कितने प्रभाव में होगी, कितना अनुसरण करेगी…इसकी कल्पना करें।
यहाँ दो बातें हैं- यह जानना कि टेलीविजन इस तरह हमारे अवचेतन को नियंत्रित करता है, सम्यक् दृष्टि है। यह देख पाने के बाद दूसरी सीढ़ी है- संकल्प की शक्ति, निश्चय की शक्ति। अगर संकल्प की शक्तिमत्ता प्रबल है, तो संयमित रूप से थोड़ी देर देखकर बंद किया जा सकता है। पर, अगर इसका अभाव है तो व्यक्ति लगातार टेलीविजन ही देखता रह सकता है, तास ही खेलता रह सकता है या फ़िर ऑनलाइन चैट ही करता रह सकता है।
ईर्ष्या की आसुरीवृत्ति, मोह की असारवृत्ति और क्रोध की अनिष्टकारिणी वृत्ति की क्षीणता का संकल्प हो, कामवृत्ति के संयमन का संकल्प हो और लोभ के बहुविस्तीर्ण तरु के मूलोच्छेदन का संकल्प हो ।
जब ये संकल्प संसिद्ध हो जाते हैं, तब चित्तवृत्तियों का स्वतः ही निरोध हो जाता है, क्षोभकारिणी मनोदशा की परिसमाप्ति हो जाती है, क्षेमकारिणी मनोदशा की उत्पत्ति हो जाती है और हम समद्रष्टा, निरहंकार हो जाते हैं- “निर्ममो निरहंकार: अद्वेष्टा सर्वभूतानां”।
संकल्प की शक्ति भविष्य की अनिश्च्यात्मिकता भर को विनष्ट नहीं करती, वरन् यह व्यक्ति को कर्मयोग के विशाल राजपथ पर चलायमान रखती है और अन्ततोगत्वा सफलता के सिंहासन पर आरूढ करवाती है। यह कोई अत्युक्ति नहीं कि संकल्प की प्रयत्नोत्पादिनी शक्ति अपरिमित होती है। कार्य के निष्पादन हेतु प्रयत्न इसी संकल्प से उद्भिद होता है। और यदि संकल्प शक्ति न हो तो? तब तो हम देखते हैं कि नए साल के लिए लिया गया प्रण (new year resolution) पूरा एक सप्ताह भी नहीं टिकता।
बात थोड़ी कड़वी लग सकती है पर यह सत्य है कि वजन घटाने, चाय कम करने जैसे अपेक्षाकृत आसान संकल्प भी जब व्यक्ति के पूरे न हो सकें, तो समझना चाहिए कि चित्त में चाञ्चल्य दोष है या आत्मिक बल ही क्षीण, क्षरित और स्खलित है। साधना ही इसके निवारण का एकमात्र उपाय है। सामान्य जीवन में हम देखते हैं कि यह संकल्प शक्ति की कमी ही होती है कि व्यक्ति शराब आदि दुर्व्यसनों का शिकार हो जाता है या PUB G जैसे कुखेल में बुरी तरह उलझा रहता है।
बुद्ध ने कहा है कि जब घर के द्वार पर पहरेदार न हों, चोर घुस जाते हैं और जिस आत्मा के साथ ध्यान न हो, वृत्तियाँ घुस जाती हैं। सम्यक्-संकल्प इन वृत्तियों को घुसने नहीं देती। मोटे तौर पर वृत्तियों दो तरह की अवस्था से गुज़रती हैं- ऐच्छिक अवस्था और अनैच्छिक अवस्था। आरम्भ में सम्यक्-दृष्टि से संपन्न होकर हम देख सकते हैं कि यह अभी हमारे अंदर प्रवेश कर रही है, तब संकल्प शक्ति से हम इसे रोक सकते हैं।
क्रोध का स्फुरण हुआ और सम्यक् दृष्टि से हमने इसे देख भी लिया। अभी इसने हमें गिरफ़्त में लिया नहीं है और हम इसे रोक सकते हैं। यह ऐच्छिक अवस्था है। लेकिन अगर हम इसे सम्यक् दृष्टि से नहीं देख सके और संकल्प शक्ति से नहीं नियंत्रित कर सके, तो यह अनैच्छिक अवस्था में पहुँच जाता है और फ़िर हम असहाय होकर इसके ग़ुलाम हो जाते हैं। यही स्थिति वासना, ईर्ष्या आदि की भी है। तो, हमें चाहिए कि दुःख को जन्म देनेवाली वृत्तियों के प्रति सजग और संकल्पवान् बने रहें।
सम्यक् दृष्टि हमें दिखती है कि जब हमारी अपेक्षाएँ, हमारे सपने, हमारी सुकोमल कल्पनाएँ यथार्थ रूप नहीं लेतीं या इससे भिन्न होती हैं, तो दुःख की भावदशा का जन्म होता है। सम्यक् संकल्प से हम उस दुःख की भावदशा को पोषण देना बंद कर देते हैं। इसी तरह यह समझने की बात है कि आस के टूटने पर, किसी के प्रतिकूल आचरण पर झुंझलाहट के भाव का जन्म ले लेना स्वाभाविक ही है, पर संकल्प की वृत्ति या संकल्प की साधना से इस भाव को दुत्कार या लताड़ देना है, इसे पुचकारना, दुलारना या पोषण देना नहीं है।
सुंदर, सुचारु, रंगीन और सुखद स्वप्न के टूटने पर अच्छा नहीं लगना कोई बुरी बात नहीं, पर ज़ल्द होश में न आना, या स्वप्न क्यों टूट गया इसका शोक करना मूर्खता है, अविद्या है। आत्मवंचना भी मूर्खता है, अविद्या है। जहाँ तक मूर्खता का प्रश्न है, तो यह मन का तत्त्व है, जबकि बोध आत्मा का तत्त्व है।
कोई जुड़ा है तो छूटेगा भी; क्योंकि वियोग संयोग का विपरीत छोर है। इन सभी स्थितियों, भावों की सीमा है, ये सब ससीम हैं। विवेकवान् पुरुष इनमें नहीं रमने का संकल्प लेते हैं।
समाज में सद् और असद् वृत्तियाँ दोनों विद्यमान् रहती हैं और मानव मन को आकृष्ट करती हैं। ऐसा नहीं है कि बुराई आकृष्ट करती है और अच्छाई नहीं करती। अगर ऐसा होता तो सत्संग में इतनी भीड़ नहीं होती। लेकिन दिक़्क़त यह है कि मन टिकता नहीं है, संकल्पवान् नहीं होता। ज़ल्द ही यह विपरीत भावों, नकारात्मक भावों के प्रभाव में आ जाता है, चाञ्चल्यदोष और कार्पण्यदोष से युक्त हो जाता है। यह ऐसी ज़िद नहीं करता कि अपने मन में जन्मे हीनता के, तुच्छता के विचारों से नफ़रत करना है और उसे दूर भगाना है।
कुल मिलाकर देखें, तो सम्यक् दृष्टि देखती है परिवर्तन तो होना ही है, यही विधान है। इस चिरन्तन परिवर्तन को स्वीकार कर लेना ही प्रासादिक चिंतन है और इसे व्यवहार में लाना ही सम्यक्-संकल्प है।
{नोट : अगर इस आलेख को आप पूरा पढ़ सके हैं, तो मेरा अभिमत है कि आप परिवर्तन हेतु तैयार हैं। आपको आगे बढ़ने हेतु प्रयास करना चाहिए। यह आलेख सोशल मीडिया हेतु नहीं बल्कि गम्भीर अध्येताओं हेतु है।}