वर्ष 1936 में लंदन में कुछ मुट्ठी भर लेफ्ट और इस्लामिस्ट लोगों ने हिन्दी के साहित्य के लिए प्रगतिशील लेखक मंच की स्थापना की और उसके साथ ही भारत के साहित्य के आकाश पर इस्लामी कट्टरता के काले बादल छा गए। और विमर्श की दिशा वही हो गयी, जो कट्टर इस्लाम ने चाही। हिन्दी साहित्य का दिशा-विमर्श पूरी तरह से बदल गया और 1936 से लेकर अभी तक वही है। जिन्होनें भी इससे इतर लिखने का प्रयास किया, उन्हें साम्प्रदायिक ठहरा दिया गया।
आज हम एक महत्वपूर्ण बात पर चर्चा करेंगे कि क्या कविताओं में हिन्दू स्त्रियों को तोड़ने की शक्ति है? और क्या वास्तव में इन दिनों कथित हिन्दू विमर्श के नाम पर हिन्दू विमर्श रचा भी जा रहा है? या फिर मात्र राजनीतिक विरोध ही हिन्दू स्त्री विमर्श रह गया है? यह बात बार बार इसलिए उभर कर आ रही है क्योंकि लेफ्ट अब्राह्मिक रिलीजियस विषयों के आधार पर उपजा हुआ विमर्श ही हिन्दू स्त्रियों की रचनाओं में मिलता है। जो लोग यह कहती हैं कि वह किसी भी वैचारिक खूंटे से बंधी नहीं हैं, उनका लिखा कथित साहित्य तो और भी डरावना है और यही औरतें इन्टरनेट से लेकर कॉलेज में विमर्श तक छाई हैं, फिर ऐसे में हिन्दू लोक की कविताएँ कहाँ हैं?
आज हम एक सबसे महत्वपूर्ण विषय पर बात करेंगे और वह है माहवारी की पीड़ा और प्रसव की पीड़ा पर कविताएँ! जैसे ही माहवारी का प्रसंग आता है तो क्या लेफ्ट और क्या राष्ट्रवादी, सभी के स्वर एक हो जाते हैं, कि भगवान ने यह दंड दिया है, भगवान ने ऐसा किया, वैसा किया! भगवान यदि स्त्री होता तो ऐसा न करता? क्या भगवान स्त्री नहीं हैं? क्या हमारे यहाँ देवी भगवान नहीं हैं? क्या हमारे एक भी ग्रन्थ में इस शारीरिक प्रक्रिया को लेकर रोना धोना है?
यदि नहीं, तो कथित राष्ट्रवादी विमर्श करने वाली स्त्रियों के मन में यह सब कहाँ से आता है? क्यों वह शारीरिक प्रक्रिया को, जो सृजन के लिए आवश्यक है उसे एक ऐसी स्थिति बता देती हैं जो हीन है, जो स्त्रियों के भीतर आत्महीनता भरती है और जब कोई उसका विरोध करता है तो उसे मिˈसॉजिनिस्ट् अर्थात स्त्रियों से घृणा करने वाला घोषित कर दिया जाता है। आखिर ऐसा क्यों है कि कथित रूप से राष्ट्रवादी या हिन्दू होते हुए भी आपका विमर्श वहीं से संचालित हो रहा है, जो 1936 में लेफ्ट अब्राह्मिक कल्ट से पैदा हुआ था?
आइये आज पढ़ते हैं कि कथित लेफ्ट अब्राह्मिक कल्ट वाला लिटरेचर मासिक धर्म के विषय में क्या लिखता है?
बहादुर पटेल लिखते हैं:
“वह चौदह बरस की लड़की बहुत सतर्क है
मासिक धर्म के प्रति
वह सिर्फ़ इतना जानती है
कि जब यह प्रक्रिया रुकेगी तो होगी वह गर्भवती
कुँवारेपन में गर्भवती होना
समय का सबसे बड़ा पाप है
इच्छाओं को दबाती वह लड़की
नहीं करती किसी से प्रेम
वह अनभिज्ञ है यौन-शिक्षा, शुक्राणु,
अंडाणु तथा गुप्तांगों की कार्य-प्रणाली से
वह लड़की अंग-भंग चौक चंग पे, लोंग पाट, ठीकरी
गुड्डा-गुड्डी, गिल्ली डंडा, कुलाम डाल, चकरी
खेलते-खेलते फँस गई इस चक्रवात में”
अर्थात यह जो लोग बड़ी बड़ी बातें करते है, हमारी हिन्दू लड़कियों को परिवार के खिलाफ भड़काते हैं, वह चौदह वर्ष की लड़की को प्रेमी के साथ गर्भवती कराना चाहते हैं, परन्तु माँ को दोषी बना दिया है? ऐसी ही एक कविता बहुत क्रांतिकारी दल में लोकप्रिय हुई थी, वह पढ़िए, किसी शुभम श्री की कविता थी जिसमें उन्होंने शिकायत दर्ज की थी कि एक सफाई कर्मचारी ने उनके सैनिटरी पेड को फेंकने से इंकार कर दिया है। क्योंकि शायद वह गन्दा होगा! उसके विषय में क्या लिखा है, पढ़िए:
“मेरे हॉस्टल के सफाई कर्मचारी ने सेनिटरी नैपकिन
फेंकने से कर दिया है इनकार
बौद्धिक बहस चल रही है
कि अखबार में अच्छी तरह लपेटा जाए उन्हें
ढँका जाए ताकि दिखे नहीं जरा भी उनकी सूरत
करीने से डाला जाए कूड़ेदान में
न कि छोड़ दिया जाए
‘जहाँ तहाँ’ अनावृत । । ।
पता नहीं क्यों
मुझे सुनाई नहीं दे रहा
उस सफाई कर्मचारी का इनकार
गूँज रहे हैं कानों में वीर्य की स्तुति में लिखे श्लोक”
दरअसल शुभम श्री को पता ही नहीं होगा कि वीर्य दरअसल होता क्या है और ऋतुचक्र क्या होता है?
ऐसी एक नहीं अनेक कविताएँ हैं। अब शुभम श्री जिस वीर्य की बात करती हैं, क्या उसका सम्बन्ध मात्र यौन सम्बन्धों तक है या फिर कुछ और है? या फिर जो कथित राष्ट्रवादी लेखिकाएं कहती हैं कि यदि मासिक पुरुषों को भी होता तो वह इसका इलाज खोजते? परन्तु उपचार तो व्याधि का होता है, शारीरिक प्रक्रिया, जो प्रतिमाह होगी, जिसमें देह में सृजन के लिए आवश्यक कुछ रासायनिक या कहें हार्मोनल परिवर्तन होंगे, उसमें जो उपाय बताए गए हैं, वह आपको करने नहीं हैं क्योंकि आपको वह छुआछूत लगता है।
हमने अपने घरों में देखा था कि जैसे ही वह चार दिन आरंभ होते थे, महिला को आराम करने दिया जाता था। रसोई में प्रवेश नहीं, पूजाघर में प्रवेश नहीं यहाँ तक कि उन्हें आराम करने के लिए विशेष कमरा ही दे दिया जाता था। या कहें एक कमरा ही मात्र इसी उद्देश्य के लिए होता था कि जब असहज करने वाले परिवर्तन हों तब स्त्री जैसे मन हो वैसे वहां पर रहे।
चूंकि रसोई के कुछ नियम होते हैं, अर्थात अभी भी हम लोग नहाकर ही रसोई में भोजन बनाने के लिए प्रवेश करते हैं, तो पहले संयुक्त परिवार में यह नियम और सख्त होते थे, इसलिए स्त्री का भोजन भी उसी कमरे में पहुँच जाया करता था, और यह कुछ दसेक साल पहले की ही बात है। मगर उसे अन्धविश्वास या छुआछूत से आपने जोड़ दिया। और जब वह लेफ्ट इस्लामिस्ट कल्ट जिसमें औरत हो ही हर पाप का कारण बताया गया है, वहां से उपजा विमर्श आपको यह बताता है कि हिन्दुओं में कितना पिछड़ापन है बताओ औरतों को रसोई में नहीं जाने देते, छि, तो आपको लगता है कि हाँ ऐसा ही होता है!
कुरआन में सुरा अल बकरह में लिखा है “जब वह तुमसे हिज के विषय में पूछते हैं, कह दो कि वह एक गंदगी है। उसमें तुम औरतों से अलग रहो और जब तक वह पवित्र न हो जाए, उनके निकट न जाओ! और फिर जब अच्छी तरह से पवित्र हो जाए तो उस विधि से उनके निकट जाओ जिसका अल्लाह ने तुम्हें आदेश दिया है!” (पवित्र कुरआन अनुवादक मौलाना वहीहुद्दीन खां, Goodword Books, 1, New Delhi-110 013)
और बाइबिल में औरतों और प्रसव के विषय में क्या लिखा है। जब हव्वा ने सांप की बातमानकर फल खा लिया और ज्ञान पैदा हो गया तो प्रभु ने सांप को तो दंड दिया ही, मगर औरत से कहा कि “मैं तुम्हारे दुखों को बढ़ाऊंगा, और तुम्हारी गर्भावस्था में मैं तुम्हें दुखी करूंगा, और जब तू बच्चा पैदा करेगी, तब तुझे बहुत पीड़ा होगी, तेरी चाहता तेरे पति के लिए होगी, और वह तेरा मालिक होगा!”
और कुरआन में लिखा गया है कि औरतें तुम्हारी खेतियाँ हैं! और बाइबिल में लिखा गया कि औरत को आदमी की पसली से बनाया गया!
और मनुस्मृति में स्त्री और पुरुष की उत्पत्ति के विषय में क्या लिखा है वह पढ़ें। उसमें लिखा है कि “फिर उस प्रभु ने अपने जगत रूपसी शरीर के दो भाग किये, आधे भाग से स्त्री और आधे भाग से पुरुष हुआ”
हमारे यहाँ महादेव तो अर्धनारीश्वर कहे ही जाते हैं। परन्तु विमर्श अर्धनारीश्वर का नहीं हो पाया क्योंकि मनुस्मृति तो आज तक ऐसी पुस्तक मानी जाती है, जिसपर बात करना गुनाह है। तो विमर्श कहाँ से उपजा, वर्ष 1936 के बाद से?
प्रगतिशील लेखक मंच से, जिसकी स्थापना ही हिन्दी में अभी तक जो लिखा था, उसे त्यागने अर्थात हिन्दू लोक को त्यागने से हुई! तो जब वहां से उपजा हुआ विमर्श ही पूरे हिन्दी साहित्य पर छा गया तो रचनाएं भी उसी के अनुसार ही रची गईं। एक अजीब विमर्श उत्पन्न हो गया। जबकि उसी समय और भी बहुत कुछ लिखा जा रहा था, उसे पिछड़ा कह दिया गया। जो हिन्दू स्त्रियाँ अपने आयुर्वेद के अनुसार और हिन्दू लोकाचार के अनुसार लिख रही थीं, उन्हें पिछड़ा कहकर भुला दिया गया। ऐसी ही एक भुलाई गयी महिला हैं, प्रयागराज की वैद्य यशोदा देवी। वह हिन्दुओं के लोक की बात करती थीं। उन्होंने 1906 के लगभग अपना औषधालय बनाया था, उन्हें आयुर्वेद का ज्ञान उनके पिता ने दिया था।
हालांकि अब उनकी लिखी गयी पुस्तकें बहुत ही कम उपलब्ध हैं, परन्तु उन्होंने आयुर्वेद और लोकाचारों के आधार पर और अपने ऋषियों के ज्ञान के आधार पर ऐसा विमर्श तैयार किया था, जिसे यदि आगे बढ़ाया जाता तो कथित मासिक की पीड़ा की समस्या का विमर्श ही उत्पन्न न होता क्योंकि यशोदा देवी ने अपनी पुस्तक विवाह विज्ञान में यौन संबंधों को भी पूर्वजन्म से जोड़ा है और पूरा का पूरा विमर्श ही आनंद, कर्तव्य के पूरे पैकेज पर रखा है।
उन्होंने अपनी पुस्तक विवाह विज्ञान में स्त्रियों के आर्तव चक्र के विषय में क्या लिखा है वह पढ़ें कि “स्त्री के शरीर में आर्तव का चढ़ाव-उतार इस प्रकार होता है जैसे समुद्र में ज्वार-भाटा का नियम है। जिस प्रकार चंद्रमा की कला से अर्थात घटने बढ़ने से समुद्र का जल घटता –बढ़ता है, उसी प्रकार का स्त्री के आर्तव का सम्बन्ध चंद्रमा से है!”
आर्तव अर्थात; अर्थ : स्त्रियों तथा स्तनपायी मादा जंतुओं की जननेन्द्रिय या योनि से प्रति मास तीन चार दिन तक निकलनेवाला रक्त आदि।
जो प्रकृति है, वह पीड़ा कैसे हो सकती है? मासिक धर्म या माहवारी एक प्रकृति है, और प्रकृति कभी व्याधि नहीं होती कि उसका उपचार हो। हाँ, यशोदा देवी ने यौन सम्बन्धों और आध्यात्मिकता का पूरा पैकेज दिया, जिसे आज की कथित राष्ट्रवादी स्त्रियाँ भी सहज स्वीकार नहीं कर पाएंगी क्योंकि उनके लिए भी अब पति का भोजन पर इन्तजार करना, बच्चों को एवं परिवार के समस्त वरिष्ठ जनों को पहले भोजन कराना एक पिछड़ापन हो गया है। यह उनके लिए औरतों के लिए एक बंधन है!
खैर, यह तो रहा यशोदा देवी का किस्सा! आइये हम कुछ ऐसी कविताओं पर दृष्टि डालते हैं, जो आपके दिल को छु जाएँगी, परन्तु उन पर चर्चा इसलिए नहीं होती है और कथित राष्ट्रवादी औरतें भी नहीं करती हैं क्योंकि वह दरअसल वामपंथियों के संकेत पर ही चलती हैं।
सुभद्रा कुमारी चौहान – वीरों का कैसा हो वसंत?
हल्दीघाटी के शिला खण्ड
ऐ दुर्ग सिंहगढ़ के प्रचंड
राणा ताना का कर घमंड;
दो जगा आज स्मृतियां ज्वलंत
वीरों का कैसा हो वसंत
भूषण अथवा कवि चंद नहीं
बिजली भर दे वह छन्द नहीं
है कलम बंधी स्वच्छंद नहीं;
फिर हमें बताए कौन हन्त
वीरों का कैसा हो वसंत
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सहजो बाई:
ऐसे फाग खेले राम राय,
सूरत सुहागण सम्मुख आय,
पंचतंत्र को बन्यो है बाग़,
जामें सामंत सहेली रमत फाग”
इसी प्रकार सहजो बाई की रचनाएँ भी सहज ब्रह्म के विषय में है। गुरु को उन्होंने सबसे बढ़कर माना है। गुरु के विषय में वह लिखती हैं
सहजो कारज जगत के, गुरु बिन पूरे नाहिं,
हरि तो गुरु बिन क्यों मिलें, समझ देख मन माहिं!
प्रेम के विषय में सहजो कितनी सुन्दर बात लिखती हैं
“प्रेम दिवाने जो भये पलटि गयो सब रूप।
‘सहजो’ दृष्टि न आवई, कहा रंक कहा भूप॥
प्रेम दिवाने जो भये, नेम धरम गयो खोय।
‘सहजो’ नर नारी हंसैं, वा मन आनँद होय॥
प्रेम दिवाने जो भये, ‘सहजो’ डिगमिग देह।
पाँव पड़ै कितकै किती, हरि संभाल जब लेह॥
प्रेम लटक दुर्लभ महा, पावै गुरु के ध्यान।
अजपा सुमिरन करत हूँ, उपजै केवल ज्ञान॥“
प्रवीण राय:
कूर कुक्कुर कोटि कोठरी किवारी राखों,
चुनि वै चिरेयन को मूँदी राखौ जलियौ,
सारंग में सारंग सुनाई के प्रवीण बीना,
सारंग के सारंग की जीति करौ थलियौ
बैठी पर्यक पे निसंक हये के अंक भरो,
करौंगी अधर पान मैन मत्त मिलियो,
मोहिं मिले इन्द्रजीत धीरज नरिंदरराय,
एहों चंद आज नेकु मंद गति चलियौ!
अर्थात वह स्पष्ट कह रही है कि आज मिलन की रात कहीं बीत न जाए और रात लम्बी हो, और पिया से मिलन में व्यवधान न आए उसके लिए वह हर कदम उठाएगी, वह कुत्ते को कोठरी में बंद करेगी, वह चिड़ियों को जाली में बंद करके उनका कलरव बंद करेगी, वह वीणा से चन्द्रमा को प्रभावित करेगी और कहेगी कि आज की रात को और बढ़ा दे!
यह प्रेम की उन्मुक्तता है! यह देह की बात है, यह देह की पुकार है, वह चाहती है कि अपने प्रियतम की देह का सुख वह पूरी रात ले, और इसमें उसे कोई व्यवधान नहीं चाहिए! यह हिन्दू लोक की आवाज हैं, यह हिन्दू लोक का स्वर हैं, जिनपर कथित राष्ट्रवादी स्त्रियों का भी विमर्श नहीं पहुँचता है।
प्रश्न यही है कि क्या साहित्य में राष्ट्रवादी विमर्श के नाम पर वही मासिक, प्रसव, ब्रा-पैंटी आदि का ही विमर्श आएगा या फिर हिन्दू लोक, आयुर्वेद, आदि भी आएगा?