विपुल रेगे। फिल्म निर्देशक करण जोहर का ‘सिनेमाई विकास’ परवान चढ़ता जा रहा है। उनकी नई फिल्म ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ देखने के बाद मन इस बात पर मुतमइन है कि करण की निर्देशकीय इंटेलिजेंस ‘छपरीगिरी’ के वायरस से संक्रमित हो चुकी है। यश चोपड़ा के ‘शिफॉन सिनेमा’ से प्रेरणा लेकर फिल्म निर्देशन में उतरे करण की ये दुर्गति देख दर्शक अचम्भित हैं। रणवीर सिंह और आलिया भट्ट अभिनीत ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ ने शुक्रवार को औसत ओपनिंग ली है।
करण जोहर की फिल्मों का एक विशेष दर्शक वर्ग है, जो उनकी अच्छी-बुरी फिल्मों का कायल है। यही दर्शक वर्ग रिलीज के पहले दिन पब्लिक रिव्यूज में अपनी प्रतिक्रियाएं देता है। रिलीज के पहले दिन कभी ईमानदार पब्लिक रिव्यूज नहीं मिलते क्योंकि पहले दिन का अधिकांश फुटफॉल प्रशंसकों का होता है, जो कभी फिल्म की बुराई नहीं करते। ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ एक औसत प्रेम कहानी है। इस तरह की कहानियां नब्बे के दशक में बनाई जाती थी।
ऐसी कहानियां आज भी मन को भा सकती है, क्योकि परिवार नामक ईकाई आज भी सांसें ले रही हैं। लेकिन टिपिकल ‘जोहर ट्रीटमेंट’ चीजों को सुधारने के बजाय बिगाड़ने लगा है। 1998 में एक पारिवारिक जॉनर की फिल्म ‘कुछ-कुछ होता है’ बनाने के बाद दर्शकों ने करण को यश चोपड़ा का सिनेमाई वारिस समझ लिया था लेकिन सन 2006 में उन्होंने अपनी लाइन बदलनी शुरु कर दी। ‘रॉकी और रानी’ ऐसे युवा प्रेमी हैं, जो विपरीत पृष्ठभूमि से आते हैं। उनके बीच आकर्षण बढ़ता है और बात विवाह तक आती है। रॉकी का रुढ़िवादी परिवार इस विवाह में अड़चन है। अड़चन दूर करने के लिए रॉकी और रानी तीन माह के लिए एक दूसरे के घर में रहने का निर्णय लेते हैं।
ये एक अच्छी कहानी थी और बहुत ही सुंदर ढंग से पेश की जा सकती थी लेकिन जोहर का क्या किया जाए, जो ‘छपरीगिरी’ के वायरस से बुरी तरह संक्रमित हो चुके हैं। फेमिनिज़्म जोहर का विशेष अस्त्र है और वे लगभग हर फिल्म में इसका भरपूर इस्तेमाल करते हैं। इस बार भी नारीवाद भरपूर ढंग से डाला गया है। कहानी के सब-प्लाट में एक और प्रेम कहानी चल रही है। ये कहानी रणवीर के दादा कंवल और रानी की दादी जामिनी चटर्जी की है। इस कथा के नायक धर्मेंद्र और शबाना आज़मी हैं। सामाजिक मापदंडों से टकराते प्रेमियों की कहानियां पहले भी पेश होती रही लेकिन इतनी सतही ढंग से नहीं। संवाद भी घोर नारीवादी हैं। एक संवाद है ‘मुझे उस घर की औरतों के सिर पर चुन्नी देखकर घुटन होने लगी।’ पारवारिक फिल्म का डायलॉग है ये।
फिल्म का पहला भाग कुछ हद तक मनोरंजक है। दूसरे भाग में फिल्म धीमी और बोरिंग होती जाती है। ये इस हद तक बोरिंग हो जाती है कि दर्शक उठकर चल देता है या मोबाइल देखने लगता है। पहला शो देखकर निकले युवा दर्शकों ने इसे ‘माइंड ब्लोइंग’ बताया है। कुछ बुजुर्ग दर्शकों ने इसे पारिवारिक बताया है। जानकारी देना आवश्यक होगा कि फिल्म में आलिया और रणवीर के पांच स्मूच दृश्य है। इन चुंबनों को ‘पारिवारिक’ किस एंगल से कहा जा रहा है, पता नहीं। संगीत भी धर्मा प्रोडक्शन की साख के मुताबिक़ नहीं है। अधिकांश तो पुराने गीतों का ही सहारा लिया गया है।
ऐसा नहीं है कि छपरिगिरी को दर्शक नहीं मिलते, बिलकुल मिलते हैं। आजकल इसी का ज़माना है। 160 करोड़ की लागत से बनी ये फिल्म अपनी लागत वसूल कर लाभ कमा ले तो कोई आश्चर्य की बात नहीं होगी। और कुछ नहीं तो ‘पांच चुंबन दृश्य’ ही लागत वसूल करा लेंगे। करण जोहर की फिल्म परिवार के साथ न देखें, छोटे बच्चों के साथ तो कतई न देखें। ‘जोहर सिनेमा’ वैसे भी बच्चों के लिए वायरस के समान होता है। देखना ही है तो टीवी पर देखे और ये जानने के लिए देखें कि ‘कुछ-कुछ होता है’ की ऊंचाई से ‘रॉकी और रानी की प्रेम कहानी’ तक की ‘गिरावट’ कैसी होती है। अंग्रेज़ी लवर करण जोहर की ये फिल्म ‘worst’ यानि निकृष्टतम है। यही इस फिल्म की एक शब्दीय समीक्षा है।