अजय शर्मा, काशी। पुराण मे जो अष्टमूर्तियाँ महादेव की वर्णित हैं, उन्ही की जलमयी मूर्ति ज्ञान देने वाली ज्ञानवापी है। इस मृत्युलोक में जिस मनुष्य ने इसे नहीं देखा, उसका जन्म निष्फल है।
ईशानकोण के दिग्पाल ईशान जो कि शिव जी का ही अंश थे वह बहुत समय पहले (सतयुग) काशी में पहुचे, जब पूरे विश्व मे कुछ भी व्यवस्थित नही था हर चीज की कमी थी उसी समय काशी विश्वनाथ ज्योतिर्लिंग को जल से स्नान कराने के लिए (अपने त्रिशूल से) बहुत विशाल वापी खोद दिया और उसी के जल से हजारों छेद वाले कलश से हजारों बार ज्योतिर्लिंग को स्नान कराया ।
सत्ययुग में जब काशी में गंगा नही थी तब ऋषि तप से प्रसन्न हो कर शिव जी प्रकट हो, ऋषि कामना हेतु सुंदर वापी खोदने पर अपने ही रूप ईशान को अनेको वरदान दिए जिसमे कहा कि,
त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवः स्वः स्थितान्यापि ।
तेभ्योः खिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिव तिर्थमिदं परम् ।।
काशीखण्ड)
अर्थात त्रिभुवन में जितने भी तीर्थ है उन समस्त तीर्थों में यह शिव तीर्थ श्रेष्ठ हो।
योऽष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते ।
तस्यैवाम्बुमयीमूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका ।। (स्कं० पु० पृ० १६३)
अर्थात पुराण में जो अष्टमूर्तियाँ महादेव की वर्णित हैं, उन्ही की जलमयी मूर्ति ज्ञान देने वाली ज्ञानवापी है।
शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः ।
तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात् ॥ ३२ ॥ स्कं.पु.
अर्थात शिव शब्द के अर्थचिन्तक लोग शिव का अर्थ “ज्ञान” ही कहते हैं। इस वोर्थ में वही ज्ञान मेरी महिमा के बल से द्रवरूप हो गया है।
देवस्य दक्षिणे भागे वापी तिष्ठति शोभना ।
तस्यास्तथोदकं पीत्वा पुनर्जन्म न विद्यते । लिगंपुराण पृष्ठ १०६
अर्थात अविमुक्तेश्वर की दक्षिण दिशा में एक सुन्दरवापी (कूप) है, जिसका जल पीने से मनुष्य का पुनर्जन्म नही होता अर्थात वह मुक्त हो जाता है।
यैस्तु तत्र जलं पीतं कृतार्थास्ते हि मानवाः ।
तेषां तु तारकं ज्ञानमुत्पत्स्यति न संशयः ।। (तीर्थचिन्तामणि पृ० ३५६
अर्थात जो मनुष्य उस वापी का जल पीते है, उनके सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं। उन मनुष्यों को तारक अर्थात मुक्तिप्रद ज्ञान अवश्य उत्पन्न होगा, इस विषय में लेशमात्र भी संशय नहीं है।
उपास्य सन्ध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काललोपजम् ।
क्षणेन तदपाकृत्य ज्ञानवान् जायते नरः ।। (स्कन्दपुराण पृ० १६२
अर्थात कर्म करने के लिये विहित काल के लोप होने के कारण उत्पन्न पाप ज्ञानवापी में सन्ध्या करने से एक क्षण में ही दूर हो जाते हैं, और और मनुष्य ज्ञानवान् हो जाता हैं।
वापीजलं तु तत्रस्थं देवदेवस्य सन्निधौ ।
दर्शनात् स्पर्शनात् स्नानात् कृतार्थो मानवो भुवि ।।
अर्थात देवदेव के समीप स्थित वापी (कूप) के जल के दर्शन, स्पर्श और स्नान से मनुष्य के सभी मनोरथ सिद्ध हो जाते हैं।
दुर्लभं तु कलौ देवैस्तज्जलं ह्यमृतोपमम् ।
तारणं सर्वजन्तूनां पानात्पापस्य नाशनम् ।। शि० पु० पृ० १६३)
अर्थात सभी प्राणियों को मुक्ति देने वाला तथा अमृत के सदृश उस वापी का जल कलियुग में देवताओं को दुर्लभ है। उसके पीने से मनुष्य के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं।
ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत् ।
स्पर्शनाचमनाभ्यां च राजसूयाश्वमेधयोः ।। (पद्मपुराणे)
अर्थात ज्ञानवापी तीर्थ से अश्वमेध यज्ञजन्य फल की प्राप्ति होती है, और उसके स्पर्श और आचमन से राजसूय तथा अश्वमेध यज्ञजन्य फल प्राप्त होता है।
पीतमात्रेण तैनेव उदकेन यशस्विनि ।
त्रीणि लिङ्गानि वर्धन्ते हृदये पुरुषस्य तु ।।
अर्थात हे पार्वती, ज्ञानवापी का जल पीने मात्र से मनुष्य के हृदयस्थित ३ लिंगो की वृद्धि होती है।
दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा ।
पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य शासनात् ।।
अर्थात देव देव की आज्ञा से दण्डपाणिभैरव हमेशा पश्चिम तीरपर स्थित होकर ज्ञानवापी के जल की रक्षा करते हैं।
पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा ।
नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे ।।
रक्षते तज्जलं नित्यं मद्भक्तानां तु मोहनम् । (लिंगपुराण पृ० १०६-११०)
अर्थात पूर्व तीर पर तारकेश्वर, उत्तर में नन्दीश्वर तथा दक्षिण में महाकालेश्वर हमारे भक्तों को मोहित करने वाले ज्ञानवापी के जल की सर्वदा रक्षा करते हैं।
देवस्य दक्षिणे भागे तत्र वापी शुभोदका ।
तदम्बुप्राशनं न्हणामपुनर्भवहेतवे ।।
अर्थात काशी में अविमुक्तेश्वर के दशिण भाग में अच्छे जलवाली ज्ञानवापी है, जिसका जल मनुष्य के मुख में स्पर्शमात्र से पुनर्जन्म नहीं होता अर्थात मोक्ष हो जाता है।
तज्जलात्पश्चिमे भागे दण्डपाणिः सदाऽवति ।
तत्प्राच्यवाच्युत्तरस्यां तारकाख्या शिला मता ।।
अर्थात… ज्ञानवापी के पश्चिम भाग में सदा रहते हुए दण्डपाणि रक्षा करते हैं। उसके पूरब पश्चिम-उत्तर भाग में तारक नाम की शिला है।
प्रभु समरथ सर्बग्य सिव सकल कला गुन धाम।
जोग ग्यान बैराग्य निधि प्रनत कलपतरु नाम ॥
अर्थात हे प्रभो! आप समर्थ, सर्वज्ञ और कल्याणस्वरूप हैं। सब कलाओं और गुणों के निधान हैं और योग, ज्ञान तथा वैराग्य के भंडार हैं। आपका नाम शरणागतों के लिए कल्पवृक्ष है।
मुस्लिम भाई के ग्रंथ.. कुरआन सूराह 112 आयत 1-4 कहता अल्लाह एक और अनुपम, सनातन सदा से सदा तक जीने वाला है, न उसे किसी ने जना और न ही वो किसी का जनक है एवं उस जैसा कोई और नहीं है।। यह क्या है
स्मरण_रहे जो पुरुष स्वयं को शरीर, प्राण, इन्द्रिय और मन नहीं मानकर साक्षी स्वरूप में स्थित एकमात्र शिव रूप परमात्मा ही समझते हैं, उनकी ऐसी निश्चयात्मक बुद्धि ही समाधि कहलाती है।
यदि ईश्वर है तो हमें उसे देखना चाहिए, यदि आत्मा है तो हमें उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कर लेनी चाहिए अन्यथा उन पर विश्वास न करना ही अच्छा है। ढोंगी बनने की अपेक्षा स्पष्ट रूप से नास्तिक बनना अच्छा है।