श्वेता पुरोहित।
श्लोकेन वा तदर्द्धन तदर्धार्धाक्षरेण वा।
अबन्ध्यं दिवसं कुर्याद् दानाध्ययनकर्मभि ।।
अर्थः “किसी व्यक्ति को एक श्लोक से या उसके आधे भाग से, आधे भाग से नहीं तो उसके एक शब्द से, शब्द से नहीं तो उसके एक अक्षर के अध्ययन से शुरुआत करनी चाहिए, परन्तु अपने दिन को व्यर्थ नहीं जाने देना चाहिए।”
व्याख्याः
इस श्लोक में निरंतरता और आसक्ति का महत्व बताया गया है कि किसी बड़े काम की शुरुआत हमेशा छोटी-छोटी आदतों से शुरू होती है। आचार्य चाणक्य यहाँ यह बता रहे हैं कि जीवन में विचारशीलता और स्थिरता की महत्वपूर्णता है।
उनके अनुसार, एक व्यक्ति को चाहिए कि वह अपने जीवन के हर क्षण को सार्थक बनाए। अच्छे अनुशासन के माध्यम से, हम अपने आपको, अपने आस-पास की दुनिया को और अपनी स्थितियों को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं।
क्योंकि अच्छी आदतें हमें सही दिशा में मार्गदर्शित करती हैं और हमें जीवन की चुनौतियों का सामना करने की क्षमता प्रदान करती हैं। इस प्रकार, आचार्य चाणक्य का संदेश स्पष्ट है:
हमें अपने जीवन के हर क्षण को सार्थक और प्रासंगिक बनाने के लिए स्वाध्याय, मनन, दान और सेवा भाव रखना चाहिये, साथ ही आसक्ति के प्रति प्रतिबद्ध रहना चाहिए। इससे हम अपने जीवन को अधिक समृद्ध और अर्थपूर्ण बना सकते हैं।