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India Speak Daily > Blog > धर्म > सनातन हिंदू धर्म > महर्षि च्यवन और देवी सुकन्या
सनातन हिंदू धर्म

महर्षि च्यवन और देवी सुकन्या

ISD News Network
Last updated: 2024/03/20 at 2:43 PM
By ISD News Network 44 Views 11 Min Read
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श्वेता पुरोहित। महर्षि भृगु के पुत्र च्यवन मुनि हुए, जो महान् तेजस्वी थे। उन्होंने उस सरोवर के समीप तपस्या आरम्भ की। परम तेजस्वी महात्मा च्यवन वीरासन से बैठकर दूँठे काठ के समान जान पड़ते थे। वे एक ही स्थान पर दीर्घकालतक अविचलभाव से बैठे रहे।

धीरे-धीरे अधिक समय बीतने पर उनका शरीर चींटियों से व्याप्त हो गया। वे महर्षि लताओं से आच्छादित हो गये और बाँबी के समान प्रतीत होने लगे । इस प्रकार लता-वेलों से आच्छादित हो बुद्धिमान् च्यवन मुनि सब ओर से केवल मिट्टी के लोंदे के समान जान पड़ने लगे। दीमकों द्वारा जमा की हुई मिट्टी के ढेर से ढके हुए वे बड़ी भारी तपस्या कर रहे थे।

इस प्रकार दीर्घकाल व्यतीत होने पर राजा शर्याति इस उत्तम एवं रमणीय सरोवर के तटपर विहार के लिये आये। उनके अन्तःपुर में चार हजार स्त्रियाँ थीं, परंतु संतानके नाम पर केवल एक ही सुन्दरी पुत्री थी, जिसका नाम सुकन्या था। वह कन्या दिव्य वस्त्राभूषणों से विभूषित हो सखियों से घिरी हुई वन में इधर-उधर घूमने लगी।

घूमती-घामती वह भृगुनन्दन च्यवन की बाँबी के पास जा पहुँची। वहाँ की भूमि उसे बड़ी मनोहर दिखायी दी। वह सखियों के साथ वृक्षों के फल-फूल तोड़ती हुई चारों ओर घूमने लगी । सुन्दर रूप, नयी अवस्था, कामभावके उदय और यौवनके मदसे प्रेरित हो सुकन्याने उत्तम फूलोंसे भरी हुई वन-वृक्षोंकी बहुत-सी शाखाएँ तोड़ लीं। वह सखियोंका साथ छोड़कर अकेली टहलने लगी। उस समय उसके शरीर पर एक ही वस्त्र था और वह भाँति-भाँति के अलंकारों से अलंकृत थी। बुद्धिमान् च्यवन मुनि ने उसे देखा। वह चमकती हुई विद्युत्के समान चारों ओर विचर रही थी।

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उसे एकान्त में देखकर परम कान्तिमान्, तपोबल- सम्पन्न एवं दुर्बल कण्ठवाले ब्रह्मर्षि च्यवन को बड़ी
प्रसन्नता हुई। उन्होंने उस कल्याणमयी राजकन्या को पुकारा; परंतु वह ब्रह्मर्षि का कण्ठ दुर्बल होने के कारण उनकी आवाज नहीं सुनती थी। उस बाँबी में मुनिवर च्यवन की चमकती हुई आँखों को देखकर उसे बहुत कौतूहल हुआ। उसकी बुद्धि पर मोह छा गया और उसने विवश होकर यह कहती हुई कि ‘देखूँ यह क्या है?’ एक काँटे से उन्हें छेद दिया। उसके द्वारा आँखें बिंध जाने के कारण परम क्रोधी ब्रह्मर्षि च्यवन अत्यन्त कुपित हो उठे। फिर तो उन्होंने शर्याति की सेना के मल-मूत्र बंद कर दिये।

मल-मूत्रका द्वार बंद हो जाने से मलावरोध के कारण सारी सेना को बहुत दुःख होने लगा। सैनिकों की ऐसी अवस्था देखकर राजा ने सबसे पूछा- ‘यहाँ नित्य- निरन्तर तपस्या में संलग्न रहनेवाले वयोवृद्ध महामना च्यवन रहते हैं। वे स्वभावतः बड़े क्रोधी हैं। उनका जानकर या बिना जाने आज किसने अपकार किया है? जिन लोगों ने भी ब्रह्मर्षि का अपराध किया हो, वे तुरंत सब कुछ बता दें, विलम्ब न करें।’

तब सम्पूर्ण सैनिकों ने उनसे कहा- ‘महाराज ! हम नहीं जानते कि किसके द्वारा उनका अपराध हुआ है ? ‘आप अपनी रुचि के अनुसार सभी उपायों द्वारा इसका पता लगावें।’ तब राजा शर्याति ने साम और उग्र नीति के द्वारा सभी सुहृदों से पूछा; परंतु वे भी इसका पता न लगा सके।

तदनन्तर सुकन्या ने सारी सेना को मलावरोध के कारण दुःख से पीड़ित और पिताको भी चिन्तित देख इस प्रकार कहा- ‘तात ! मैंने इस वन में घूमते समय एक बाँबीके भीतर कोई चमकीली वस्तु देखी, जो जुगनूके समान जान पड़ती थी। उसके निकट जाकर मैंने उसे काँटे से बींध दिया।’ यह सुनकर शर्याति तुरंत ही बाँबी के पास गये। वहाँ उन्होंने तपस्या में बढ़े-चढ़े वयोवृद्ध महात्मा च्यवन को देखा और हाथ जोड़कर अपने सैनिकों का कष्ट निवारण करने के लिये याचना की – ‘भगवन्! मेरी बालिका ने अज्ञानवश जो आपका अपराध किया है, उसे आप कृपापूर्वक क्षमा करें।’

उनके ऐसा कहनेपर भृगुनन्दन च्यवन ने राजा से कहा- ‘राजन् ! तुम्हारी इस पुत्री ने अहंकारवश अपमानपूर्वक मेरी आँखें फोड़ी हैं, अतः रूप और उदारता आदि गुणों से युक्त तथा लोभ और मोह के वशीभूत हुई तुम्हारी इस कन्या को पत्नीरूप में प्राप्त करके ही मैं इसका अपराध क्षमा कर सकता हूँ। भूपाल ! यह मैं तुमसे सच्ची बात कहता हूँ। च्यवन ऋषिका यह वचन सुनकर राजा शर्याति ने बिना कुछ विचार किये ही महात्मा च्यवन को अपनी पुत्री दे दी।

उस राजकन्या को पाकर भगवान् च्यवन मुनि प्रसन्न हो गये। तत्पश्चात् उनका कृपाप्रसाद प्राप्त करके राजा शर्याति सेनासहित सकुशल अपनी राजधानी को लौट आये। सुकन्या भी तपस्वी च्यवन को पतिरूप में पाकर प्रतिदिन प्रेमपूर्वक तप और नियम का पालन करती हुई उनकी परिचर्या करने लगी । सुमुखी सुकन्या किसी के गुणों में दोष नहीं देखती थी। वह त्रिविध अग्नियों और अतिथियों की सेवा में तत्पर हो शीघ्र ही महर्षि च्यवन की आराधना में लग गयी।

अश्विनीकुमारों की कृपा से महर्षि च्यवन को सुन्दर रूप और युवावस्था की प्राप्ति

तदनन्तर कुछ काल के बाद जब एक समय सुकन्या स्नान कर चुकी थी, उस समय उसके सब अंग ढके हुए नहीं थे। इसी अवस्था में दोनों अश्विनीकुमार देवताओं ने उसे देखा। साक्षात् देवराज इन्द्र की पुत्री के समान दर्शनीय अंगोंवाली उस राजकन्या को देखकर नासत्य संज्ञक अश्विनीकुमारों ने उसके पास जा यह बात कही – ‘वामोरु ! तुम किसकी पुत्री और किसकी पत्नी | हो ? इस वन में क्या करती हो ? भद्रे ! हम तुम्हारा परिचय प्राप्त करना चाहते हैं। शोभने ! तुम सब बातें ठीक-ठीक बताओ’।

तब सुकन्या ने लज्जित होकर उन दोनों श्रेष्ठ देवताओं से कहा-‘देवेश्वरो ! आपको विदित होना चाहिये कि मैं राजा शर्याति की पुत्री और महर्षि च्यवन की पत्नी हूँ । ‘मेरा नाम इस जगत्में सुकन्या प्रसिद्ध है। मैं सम्पूर्ण हृदयसे सदा अपने पतिदेव के प्रति निष्ठा रखती हूँ।’

यह सुनकर अश्विनीकुमारों ने पुनः हँसते हुए कहा-‘कल्याणि ! तुम्हारे पिता ने इस अत्यन्त बूढ़े पुरुष के साथ तुम्हारा विवाह कैसे कर दिया ? भीरु ! इस वन में तुम विद्युत्की भाँति प्रकाशित हो रही हो। देवताओं के यहाँ भी तुम-जैसी सुन्दरी को हम नहीं देख पाते हैं । तुम्हारे अंगों पर आभूषण नहीं है। तुम उत्तम वस्त्रों से भी वञ्चित हो और तुमने कोई श्रृंगार भी नहीं धारण किया है तो भी इस वनकी अधिकाधिक शोभा बढ़ा रही हो। ‘निर्दोष अंगोंवाली सुन्दरी ! यदि तुम समस्त भूषणों से भूषित हो जाओ और अच्छे-अच्छे वस्त्र पहन लो तो उस समय तुम्हारी जो शोभा होगी, वैसी इस मल और पंक से युक्त मलिन वेशमें नहीं हो रही है।

‘कल्याणि ! तुम ऐसी अनुपम सुन्दरी होकर कामभोग से शून्य इस जरा-जर्जर बूढ़े पति की उपासना कैसे करती हो ? ‘पवित्र मुसकानवाली देवि ! वह बूढ़ा तो तुम्हारी रक्षा और पालन-पोषण में भी समर्थ नहीं है। अतः तुम च्यवन को छोड़कर हम दोनों में से किसी एक को अपना पति चुन लो।
‘देवकन्या के समान सुन्दरी राजकुमारी ! बूढ़े पति के लिये अपनी इस जवानी को व्यर्थ न गँवाओ।’

उनके ऐसा कहनेपर सुकन्याने उन दोनों देवताओंसे कहा- ‘देवेश्वरो ! मैं अपने पतिदेव च्यवनमुनि में ही पूर्ण अनुराग रखती हूँ, अतः आप मेरे विषय में इस प्रकार की अनुचित आशंका न करें।’ तब उन दोनों ने पुनः सुकन्या से कहा- ‘शुभे ! हम देवताओं के श्रेष्ठ वैद्य हैं। तुम्हारे पति को तरुण और मनोहर रूपसे सम्पन्न बना देंगे। तब तुम हम तीनोंमें से किसी एक को अपना पति बना लेना। इस शर्त के साथ तुम चाहो तो अपने पति को यहाँ बुला लो’।

उन दोनों की यह बात सुनकर सुकन्या च्यवन मुनि के पास गयी और अश्विनीकुमारों ने जो कुछ कहा था, वह सब उन्हें कह सुनाया। यह सुनकर च्यवन ने अपनी पत्नी से कहा- ‘प्रिये! देववैद्यों ने जैसा कहा है, वैसा करो’।

पति की यह आज्ञा पाकर सुकन्या ने अश्विनीकुमारों से कहा- ‘आप मेरे पति को रूप और यौवन से सम्पन्न बना दें।’ उसका यह कथन सुनकर अश्विनीकुमारों ने राजकुमारी सुकन्या से कहा-‘तुम्हारे पतिदेव इस जल में प्रवेश करें।’ तब च्यवन मुनि ने सुन्दर रूपकी अभिलाषा लेकर शीघ्रतापूर्वक उस सरोवर के जल में प्रवेश किया। उनके साथ ही दोनों अश्विनीकुमार भी उस सरोवरमें प्रवेश कर गये।

तदनन्तर दो घड़ी के पश्चात् वे सब-के-सब दिव्य रूप धारण करके सरोवर से बाहर निकले। उन सबकी युवावस्था थी। उन्होंने कानों में चमकी ले कुण्डल धारण कर रखे थे। वेष-भूषा भी उनकी एक-सी ही थी और वे सभी मन की प्रीति बढ़ानेवाले थे। सरोवर से बाहर आकर उन सबने एक साथ कहा- ‘शुभे ! भद्रे ! हम में से किसी एक को जो तुम्हारी रुचि के अनुकूल हो, अपना पति बना लो। ‘अथवा जिसको भी तुम मन से चाहती होओ, उसीको पति बनाओ।’

देवी सुकन्या ने उन सबको एक-जैसा रूप धारण किये खड़े देख मन और बुद्धि से निश्चय करके अपने पति को ही स्वीकार किया। महातेजस्वी च्यवन मुनि ने अनुकूल पत्नी, तरुण अवस्था और मनोवाञ्छित रूप पाकर बड़े हर्ष का अनुभव किया और दोनों अश्विनीकुमारों से कहा – ‘आप दोनों ने मुझ बूढ़े को रूपवान् और तरुण बना दिया, साथ ही मुझे अपनी यह भार्या भी मिल गयी; इसलिये मैं प्रसन्न होकर आप दोनों को यज्ञ में देवराज इन्द्र के सामने ही सोमपान का अधिकारी बना दूँगा। यह मैं आप लोगों से सत्य कहता हूँ’।

इस प्रकार अश्विनी कुमारों ने महर्षि च्यवन का कायाकल्प कीया।

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