श्वेता पुरोहित।अब वह कथा सुनिए जिसके अनुसार लक्ष्मी रक्त में से राक्षसी के गर्भ में पहुँची। तथा पुनः भूमितल से प्रकट हुई एवं जनक की पुत्री के रूप में प्रसिद्ध हुईं।
दशमुख रावण ने तप करने की इच्छा की। तीनों लोकों में अपना एकछत्र अधिकार जमाने के लिए एवं अजर-अमर होने के लिए उसने अनेक वर्षों तक तप किया तथा वह अग्नि एवं सूर्य के समान प्रज्ज्वलित होने लगा। जब उसके तेज से समस्त ब्रह्माण्ड जलने लगा तो ब्रह्मा ने देवताओं समेत उससे आकर कहा –
“हे पुलस्त्य वंशज मेरे कहने से आप अपने तप को त्याग दो क्योंकि समस्त संसार भस्म हो रहा है।
हे वत्स आप अपना मनचाहा वर मांग लो। मैं तुम्हें वही वर देता हूँ। हे तपस्या करने वाले आप मुझ वर देने वाले से जो वर चाहो मांग लो अपना वांछित वर प्राप्त करो। अब आप अपनी दृष्टि सूर्य से हटा लो।”
तब रावण ने जगत के स्वामी ब्रह्मा से वर मांगा –
“हे प्रभु यदि आप मुझे वरदान देना चाहते हैं तो मुझे अमर कर दीजिए।” यह वचन सुनकर ब्रह्मा ने रावण से कहा –
“तुम्हें अमरत्व नहीं मिल सकता। अतः कोई और वर मांग लो।”
इस पर वह दुष्ट राक्षस बोला –
“समस्त देवता, राक्षस, पिशाच, नाग, विद्याधर, किन्नर एवं अप्सराओं के गण। कोई भी मुझे किसी प्रकार भी मार न सके। यह उत्तम वरदान मुझे दीजिए।
हे ब्रह्मा, पितामह, मैं आपसे एक दूसरा भी वरदान मांगता हूँ वह सुनिए –
मोहवश जब मैं अपनी ही पुत्री की इच्छा करूँ और यदि कन्या की इच्छा न हो तो मेरी मृत्यु हो जाए”।
“तथास्तु” कहकर लोक पितामह ब्रह्मा अपने धाम को चले गए।
विप्र मानव जाति को तृण के समान जानकर रावण ने उनकी कोई परवाह न की। राजा रावण ने ब्रह्मा जी के दिए वर के कारण गर्वित होकर अपने बाहुबल से तीनों लोकों को जीत लिया।
एक बार रावण दण्डक वन में गया तथा वहाँ अमित तेजस्वी ऋषियों को देखकर उसने मन में सोचा कि “इन को जीते बिना मैं त्रिलोक का स्वामी नहीं हो सकता और इन ऋषियों के वध में भी कुछ शुभ नहीं है”। इस प्रकार विचार करके दुष्ट रावण ने तपस्वीजनों से कहा, “मैं समस्त जगत का शासक और सब पर विजय प्राप्त करने वाला हूँ। मुझे आपको जीतने की इच्छा है। अत: हे श्रेष्ठ ब्राह्मणों मुझे विजय दीजिए।” ऐसा कहकर उसने बाण की नोक से रक्त बलपूर्वक निकाल कर एक कलश में रख दिया।
वहाँ पर एक गृत्स्मद नाम का ब्राह्मण था जिसके एक सौ पुत्र थे। उसकी पत्नी ने पुत्री के लिए प्रार्थना की “लक्ष्मी मेरी पुत्री हों”। उसकी इस इच्छा को सामने रख वह ब्राह्मण नित्यप्रति कलश में कुश को अभिमन्त्रित कर डाल देता था। एक दिन वह वन में गया।
दैवयोग से रावण ने उसी दिन उस कलश में ऋषियों का रक्त डाल दिया। तब वह कलश लेकर लंका चला गया।
उसने अपनी पत्नी मन्दोदरी से कहा, “हे सुन्दरी इस कलश की रक्षा करना । इस कलश का रक्त विष से भी अधिक तीव्र है। मुनियों का यह रक्त किसी को देना नहीं तथा इसे खाना भी नहीं”।
रावण त्रिलोक के राज्य के लोभ में सभी को रुलाने वाला है। देव, दानव, यक्ष, तथा गन्धर्वों की कन्याओं को हरण करके मन्दर एवं सह्य पर्वतों पर रमण करने लगा। रावण तब हिमालय, मेरु, विन्ध्याचल तथा रमणीय वन में वह विहार करने लगा।
पति की ऐसी हालत देखकर और पति का प्रेम अपने पर न देख कर बुद्धिमती मन्दोदरी स्वयं को परित्यक्ता समझने लगी। “उन नारियों के यौवन एवं कुल को धिक्कार है जो पति से वंचित होती हैं। अतः मेरे लिए मरना ही अच्छा है। पहले रावण ने कहा था कि रक्त विष से अधिक तीव्र है”।
पति से वंचित होकर मरने की इच्छा से उस सती मन्दोदरी ने उस रक्त को पी लिया। लक्ष्मी की इच्छा से अभिमन्त्रित दूध मिश्रित रक्त से शीघ्र ही रावण की पत्नी के उदर में अग्नि के समान गर्भ रह गया। मन्दोदरी इससे हतप्रभ रह गयी।
मन्दोदरी ने सोचा, “मैंने विष से भी अधिक विषैला विष पी लिया परन्तु मरने के स्थान पर मुझे गर्भ रह गया है। मेरे पति भी इस समय मुझसे दूर हैं।
मेरे पति रावण सुन्दर स्त्रियों के साथ क्रीड़ा कर रहे हैं। एक वर्ष हो गया है। मैं पति के साथ सहवास न कर पाई।
मैं साध्वी स्त्री गर्भवती हो कर क्या कहूँगी।” अत: विदग्ध अंगों वाली वह मन्दोदरी विमान द्वारा कुरुक्षेत्र गई। वहाँ गर्भपात करके उस भ्रूण को उसने पृथ्वी में गाड़ दिया।
सरस्वती के जल में स्नान कर के वह पुनः घर लौट आई। यह रहस्य उसने किसी को नहीं कहा।
हे ब्रह्म, कुछ समय पश्चात् राजा जनक ने कुरुक्षेत्र जाकर कुरु जंगल में यज्ञ किया। उन्होंने सोने के बने हल से भूमि को जोता। स्वर्ण के हल से खोदने पर भूमि से एक कन्या प्रकट हुई।
उस कन्या के ऊपर फूलों की बड़ी भारी वर्षा हुई। उस महान आश्चर्य को देख कर राजा स्तब्ध रह गया। वह हतप्रभ हो गए। तब आकाश वाणी हुई,
“हे राजन् ! इस प्रभावशालिनी कन्या को अपनाओ और इसका पालन करो। यह कन्या जो अग्नि एवं सूर्य के समान है आप के घर में महान कार्य करेगी। यह महा भाग्यवती होगी तथा इससे जगत का कल्याण होगा। हे राजन! यज्ञ पूर्ण करो। हे राजन यह कन्या आपके लिए विघ्न नहीं है। यह हल की नोक से जन्मी है अतः इसका नाम सीता होगा। इसे अपनी कन्या मानो”। इतना कहकर आकाश वाणी अन्तर्धान हो गई। यह सुनकर तथा प्रसन्न होकर राजा ने अधिक धन देकर यज्ञ सम्पूर्ण किया। वे सीता को ले गए तथा उन्होंने उसे रानियों को दिया।
आगे चल कर जब रावण ने सीता जी का हरण किया तब वह अपने ही मांगे हुए दूसरे वरदान के कारण मृत्यु को प्राप्त हुआ। वह ये नहीं जानता था कि सीता जी उसकी ही पुत्री हुयीं क्योंकी उन्होंने मंदोदरी के गर्भ से जन्म लिया था।
आज भी श्रीलंका में बसे हुए हिंदू ये मानते हैं की सीता जी रावण की पुत्री हैं और उन्हें पुत्री रूप में ही पूजते हैं।
इस कथा को सुनने से मानव सभी पापों से मुक्त हो जाता है।
जानकी के जन्म की कथा को कहने वाला तथा सुनने वाला पुण्यात्मा होकर पुनः पृथ्वी पर जन्म नहीं लेता। दशरथ के पुत्र की पत्नी उसके घर का कभी भी त्याग नहीं करती और वह पापों से मुक्त हो जाता है।
जानकी मैया की जय 🙏🚩
सियावर रामचंद्र की जय 🙏🚩