श्वेता पुरोहित। प्राचीन काल में लोग स्वाध्याय को व्रत मानते थे । वे संकल्प लेते थे कि प्रतिदिन वेदादि उत्तम शास्त्रों का स्वाध्याय करेंगे और विश्व को आर्य (संस्कारित) संस्कृति से अलंकृत करेंगे ( कृण्वन्तो विश्वमार्यम्, ऋग्वेद ९.६३.५)।
गृहस्थाश्रम में प्रवेश के समय प्रत्येक स्नातक को भी उपदेश दिया जाता था, ‘स्वाध्यायान्मा प्रमद, अर्थात्, प्रिय स्नातक, स्वाध्याय में कभी प्रमाद नहीं करना ।’ स्वाध्याय विकास की सीढ़ी होती है हैं. मनु तुम कहते
यथा-यथा हि पुरुष: शास्त्रं समधिगच्छति।
तथा तथा विजानाति, विज्ञानं चास्य रोचते ।
(मनुस्मृति ४.२० ) अर्थात्, ‘जैसे-जैसे पुरुष अपने शास्त्र – अध्ययन को बढ़ाता जाता है, वैसे-वैसे उसका ज्ञान बढ़ता जाता है, और उसमें क्रमश: रुचियां पैदा होती जाती हैं।’ ध्यान रखें, रुचि और उपलब्धियां तत्काल प्राप्त नहीं होती हैं; निरंतर स्वाध्याय के कारण बाद में फलीभूत होती हैं
शतपथ ब्राह्मण (११.५.१.४) का कथन है कि आप हीरे, जवाहरात, आदि से अलंकृत हो कर और सुखदायक पलंग पर लेटकर भी अगर स्वाध्याय करते हैं तो आप विलास – व्यसनी नहीं माने जाएंगे उस समय तो आप चोटी से एड़ी तक तपस्या करने वाले महा तपस्वी माने जाएंगे
यदि ह वाभ्यङ्क्तोऽलंकृत: सुखे शयने शयानः स्वाध्यायमधीते, आ हैव नखाग्रेभ्यस्तपस्तप्यते, य एव विद्वान् स्वाध्यायमधीते ।
तात्पर्य यह है कि जैसी भी स्थिति हो आप स्वाध्याय करते रहें, सत् शास्त्रों का अध्ययन चालू रखें। आपके व्यक्तित्व में व्यापक बदलाव आए, आप सत्य को, धर्म को, दर्शन को करीब से जानें और आपमें छिपे मौलिक मानवीय गुणों को आप उभार पाएं, यही स्वाध्याय का उद्देश्य रहा है।
स्वाध्याय ‘जरामर्य सत्र’ अग्निहोत्र से बढ़ कर है। बुढ़ापे में, असमर्थता की स्थिति में और भयंकर रोग की अवस्था में अग्निहोत्र का त्याग करना शास्त्र संमत है, परंतु स्वाध्याय मृत्यु तक चलते रहने वाली क्रिया है। जिसके जीवन में स्वाध्याय नहीं रहा वह ‘मुर्दा मानव’ है, ऐसा मनु का कहना है (मनुस्मृति ५.४ ) ।