अजय शर्मा काशी। सनातन धर्मग्रंथों में वर्णित शिवराघव संवाद के अन्तर्गत प्रसंग में श्रीरामचन्द्रजी ने पुराण तत्त्व के ज्ञाता शम्भुमुनि से सभी धर्मों के रहस्यों को जानने के उपरांत श्रीरामचन्द्रजी शम्भुमुनि से पुराण श्रवण विधि और पुराण वाचनविधि पर चर्चा प्रारंभ करते है-
श्रीरामचंद्र जी शम्भुमुनि संवाद क्रम 1 में श्लोक स. 26 से आगे शम्भुमुनि श्रीरामचंद्र जी से कहते हैं–
पुराण प्रारम्भ करने के दिन जिन-जिन कार्यों को करना हो उसे कहे। पुराण की व्याख्या करने वाले को वस्त्र आदि से पूजा करनी चाहिए और सुन्दर मूल्यवान् तथा नवीन वस्त्रों को प्रदान करके हथ तथा गले के भूषणों तथा पात्र एवं आसन प्रदान करे। उसके बाद पौराणिक को चन्दन तथा अक्षतों से पूजा करके उनको ताम्बूल निवेदित करें तथा श्वेत वस्त्र धारण किए हुए चन्द्रमा के समान आह्लादक वर्ण वाले तथा चार मुजाओं वाले प्रसन्न मुख वाले भगवान् विष्णु का सभी कार्यों तथा अर्थों की सिद्धि के लिए ध्यान करे । उसके पश्चात् सभासदों की तथा गणेशजी की पूजा करें– ॐ नमः इत्यादि मन्त्र से सरस्वतीजी की पूजा करके नमस्कार करें। प्रातःकाल पुराण के उपक्रम को प्रारम्भ करे। हे राम । पुराण प्रारम्भ होने के दिन तीन या पाँच या दश श्लोकों को सुनना शुभ होता है–
व्याख्यातारं पुराणस्य वस्त्राद्यैः परिपूजयेत् ।
शुभानि दत्त्वा वस्त्राणि सूक्ष्माणि च नवानि च ॥२७
करकण्ठविभूषादि पात्रमासनमेव च।
गन्धपुष्पाक्षतैः पूज्य ताम्बूलं विनिवेद्य च॥२८
शुक्लम्बरधरं विष्णुं शशिवर्णं चतुर्भुजम् ।
प्रसन्नवदनं ध्यायेत्सर्वविघ्नोपशान्तये ॥२९
सभासदश्च सम्पूज्य गणेशं प्रार्थयेत्ततः।
ॐ नमेत्यादिमन्त्रेण पूजनं भारतीनुतिः ॥३०
प्रातःकाले पुराणस्य प्रक्रमं प्रारभेदिति ।
उपक्रमदिने राम त्रिपञ्चदशवा शुभाः ॥३१
हे श्रीरामचन्द्रजी । दूसरे दिन उसके गुना श्लोकों की व्याख्या सुनना चाहिए और तीसरे दिन उससे भी अधिक श्लोकों को सुने । पुराण सुनने में दिनों का व्यवच्छेद नहीं होना चाहिए (प्रतिदिन पुराण सुनना चाहिए) जब पुराण की समाप्ति हो जाय तो पौराणिक गुरु को ताम्बूल आदि प्रदान करके उसके दूसरे दिन भी पुराण को सुने, इस तरह से प्रतिदिन पुराण सुनना चाहिए। जो कोई भी मनुष्य व्रत के रूप में पुराण का श्रवण करता है।जब ऐसा होता है तो वह पुराण निश्चित रूप से श्रोता के साथ जाता है। पुराण सुनने की इच्छा वाला व्यक्ति यदि एक श्लोक भी सुन लेता है तो उस दिन उसके द्वारा किये गये सभी पापों का नाश हो जाता है। जो इस तरह से जो पुराण का श्रवण करता है तो उसके द्वारा वह किए गये ब्रह्महत्या आदि पापों के बन्धन से छूट जाता है–
श्लोका द्वितीये दिवसे ततो द्विगुणिताः शुभाः ।
तृतीये दिवसे राम ततश्चाधिकमिष्यते॥३२
दिनानामव्यवच्छेद्वयाख्यानं श्रवणं तथा ।
व्यवस्थितिर्यदा जाता तदा पौराणिकं गुरुम् ॥३३
ताम्बूलादि प्रदायाथ परेद्युः शृणुयादपि ।
पुराणमेवं श्रोतव्यं दैनन्दिनमिति श्रुतिः ॥३४
व्रतरूपेण यः कश्चित्पुराणं शृणुयान्नरः ।
यदैवं तत्पुराणं तु तत्र याति न संशयः ॥३५
पुराणं श्रोतुकामेन श्लोक श्चैकोऽपि चेच्छुतः।
तद्दिने तु कृतं पापं नाशयेत्तु न संशयः ॥३६
एवं पुराणं शृणुयाच्च यस्तु स ब्रह्मत्याकृतपापबन्धात् ।।
हे श्रीरामचन्द्रजी मदिरा पीने वाला सुवर्ण चुराने वाला तथा गुरुपत्नीगामी, भी पापों से मुक्त हो जाता है तथा मनुष्यों द्वारा किए दूसरे भी पाप जो पहले उन सबों के द्वारा किए गये होते हैं वे सबके सब तथा इस जन्म में भी सैकड़ों वर्षों में किए गये पाप वक्ता और श्रोता दोनों के नष्ट हो जाते हैं और कलियुग में सभी ब्राह्मण सर्वज्ञ नहीं होते हैं, फिर भी गुणहीन भी पुराणों की व्याख्या कर्मों के समान फल देने वाली होती ही है। पुराणों के अभिप्राय को तो महर्षि व्यास ही जानते हैं उसे दूसरा कोई नहीं जान सकता है और मैं भी उसको व्यासजी तथा ब्रह्माजी से भी अधिक रूप में जानता हूँ।कलियुग में जिस तरह पुराण श्रवण का फल होता है उस तरह का फल वेदाध्ययन, तपस्या, मन्त्रजप तथा होम का फल नहीं होता है । जिस तरह से श्रीशैल पर रहने वाले के सभी पाप एक-एक करके विनष्ट हो जाते हैं उसी तरह एक-एक श्लोक के भी सुनने से श्रोता के छोटे-बड़े सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं। एक-एक श्लोक के भी सुनने से श्रोता के छोटे-बड़े सभी पाप विनष्ट हो जाते हैं । अतएव पुराणज्ञ गुरु श्रोता के लिए वंदनीय हैं, क्योंकि वह पापों का विनाश करने वाले हैं, उनसे बड़ा गति प्रदान करने वाला कोई भी दूसरा गुरु नहीं होता है ।मन्त्र प्रदान करने वाले तथा वेद शास्त्रों के जो गुरु हैं, वे सभी प्रकार के ज्ञानों को प्रदान करने में समर्थ नहीं हैं, अतएव वे ज्ञान प्रदान करने वाले नहीं हैं–
सुरापीतिः स्वर्णहरश्च राम ! गुर्वङ्गनागश्च विमुक्तिमेति ॥३७
पपानि चान्यानि कृतानि पुम्भिः सर्वाणि नश्यन्ति पुरा कृतानि ।
इहापि यान्यब्दशतार्जितानि श्रोतुर्विनश्यन्ति तथा च वक्तुः ॥३८
कलौ समस्तविप्राणां सर्वज्ञत्वं न विद्यते ।
विगुणापि ततो व्याख्या फलदा दानकर्मवत् ॥३९
पुराणानामभिप्रायं व्यासो वेद न चापरः ।
अहं वेद्मि विशेषेण व्यासादपि विधेरपि ॥४०
न स्वाध्यायस्तपो वापि न मन्त्रो न जुहोति यः ।
फलन्ति न तथातिष्ये पुराणश्रवणं यथा ॥४१
एकैकश्रवणादेव पातकं महदेव तु ।
नाशमाप्नोत्यसन्देहः श्रीशैले वर्तनादिव ॥४२
अतो गुरुःपुराणज्ञः श्रोतृवन्द्योऽ घनाशनः ।
न तस्मादधिकः कश्चिगुरुरस्ति गतिप्रदः ॥४३
मन्त्रेषु गुरवो ये च वेदशास्त्रेषु ये मताः ।
नेशते सर्वविज्ञानं दातुं तस्मान्न बोधकाः ॥४४
हे रामचन्द्रजी ! प्रायः यह देखा जाता है कि जो पिशाच अथवा ब्रह्मराक्षस होते हैं वे वेद के मन्त्रों को जानते हैं किन्तु उन सबों को पुराणों का ज्ञान नहीं होता हैं । पुराणों से विमुख रहने वाला कोई भी व्यक्ति सब कुछ नहीं जानता है। अतएव पुराणज्ञ पुरुष सबों का हितकारी और पापों का विनाश करने वाला होता है अतएव पुराणज्ञ की पूजा करने से सबों की पूजा हो जाती है और उसको दुःख देने वाले के सबों को दुःख देने का पाप लगता है जिस तरह विद्या का दान सभी प्रकार के दानों से श्रेष्ठ होता है उसी तरह पौराणिक धन्य होता है, उसको दान देने से महान् फल की प्राप्ति होती है–
पिशाचाः प्रायशो राम ! ब्रह्मराक्षसनामकाः ।
वेदमन्त्रस्य वेत्तारो दृश्यन्ते न पुराणवित् ॥४५
पुराणविमुखो नैव सर्वः सर्वं हि पश्यति ।
पुराणज्ञो हितस्तस्मात्पापनाशकरः प्रभुः ॥४६
तत्पूजा सर्वपूजास्यात्सर्वद्रोहोऽस्य पीडनम् ।
यथा समस्तदानानां विद्यादानं प्रशस्यते ॥४७
पौराणिकस्तथा धन्यस्तत्र दानं महत्फलम्।।४८
श्रीराचमन्द्रजी ने कहा- पौराणिक को किस वस्तु का किस मात्रा में दान देना चाहिए ? उस वस्तु को कैसी होनी चाहिए ? किस तरह के पुराण को नहीं सुनना चाहिए तथा किसी प्रकार के पुराणश से पुराण नहीं सुनना चाहिए ?–
किं वा पौराणिके देयं कियत्कीदृशमेव च।
पुराणं कीदृशं वर्ज्य वर्ज्यः कीदृक्पुराणवित् ॥४९
शम्भु मुनि ने कहा- हे श्रीरामचन्द्रजी । पुराणज्ञ को षड्स अन्न तथा पेय पदार्थों को देना चाहिए तथा स्नेह द्रव्य (तेल घी) भी उसको देना चाहिए। सभी सामग्रियों से परिपूर्ण गृह का दान पुराणज्ञ पुरुष को देना चाहिए। इन सभी वस्तुओं को पर्याप्त मात्रा में देना चाहिए और उससे भी अधिक दान देने पर अधिक फल की प्राप्ति होती है। अताव वस्त्रों के साथ प्रभूत मात्रा में द्रव्यों को देना चाहिए । उन सबों को सुन्दर और कोमल होना चाहिए और अपनी शक्ति के अनुसार यथायोग्य भूषण भी पौराणिक को देना चाहिए। प्रतिदिन उनको चन्दन, पुष्प प्रदान करना चाहिए अथवा केवल उनको चन्दन ही लगाना चाहिए। अथवा केवल फूल ही प्रदान करे। यदि फल का समय हो तो फल भी प्रदान करे। पौराणिक को ताम्बूल प्रदान करके उनको भक्ति पूर्वक नमस्कार करना चाहिए। जब पुराण की समाप्ति हो जाय तो पौराणिक को दान इत्यादि देना चाहिए। हे राजन् ! पौराणिक को पृथिवी तथा सुवर्ण आदि अधिक देना चाहिए। किसी को चुपचाप प्रारम्भ करके पुराण को नहीं सुनना चाहिए और सभी सभासदों के द्वारा पूजा किया जाना चाहिए अथवा एक भी सभासद पूजा कर सकते हैं। देवताओं के स्थान में की जाने वाली पूजा सबों को करनी चाहिए–
षड्सान्नपानानि स्नेहद्रव्याणि यानि च।
गृहं सोपस्करं राम पुराणज्ञाय दापयेत् ॥५०
पर्याप्तान्येव सर्वाणि अधिकानि फलाधिकात् ।
दद्याद् द्रव्यमतो भूयः सचैलं शोभितं मृदु ॥५१
भूषणानि यथार्हाणि स्वशक्त्या प्रतिपादयेत् ।
गन्धपुष्पं प्रतिदिनं केवलं गन्धमेव च ॥५२
केवलं च तथापुष्पं फलकाले फलान्यपि ।
ताम्बूलं च तथा दद्यान्नमस्कुर्याच्च भक्तितः ॥५३
पुराणस्य समाप्तौ तु दद्याद्दानादिकं तथा।
अधिकं तु तथादेयं भूहिरण्यादिकं नृप ।॥५४
न च तूष्णीमुपक्रम्य श्रोतुमर्हति कश्चन ।
सभासद्धिः कृता चैव या पूजैकेन वा कृता ॥५५
देवस्थाने यथाशक्ति सर्वैः पूजनमिष्यते ।।
कृपया जाये नही आगे-शम्भूमुनि श्रीरामचन्द्रजी से कहते है श्लोक स. 56 से जल्द।
जय जय सीताराम,हर हर महादेव