विपुल रेगे। सन 1944 में देविका रानी ने फुटपाथ पर फल बेचने वाले युवा युसूफ को देखा। युसूफ दिखने में किसी हीरो की तरह था। देविका रानी ने उसे फिल्मों में हीरो बनाने का निर्णय लिया। बस एक अड़चन थी। उस समय का भारतीय समाज मुस्लिम नाम वाले नायक को स्वीकार नहीं करता था। युसूफ का फ़िल्मी नाम ‘दिलीप कुमार ‘रखा गया। तबसे लेकर 7 जुलाई की सुबह तक ‘दिलीप’ नाम उनके साथ आजीवन चिपका रहा। संसार ने उन्हें दिलीप कुमार के नाम से ही जाना। दिलीप साहब भारत में रहते हुए भी कभी अपने जन्म स्थान पाकिस्तान को भूल नहीं सके। अंतिम साँस तक पाकिस्तान दिलीप कुमार के भीतर जीवित रहा।
अब जबकि दिलीप कुमार उर्फ़ युसूफ ख़ान संसार छोड़कर जा चुके हैं तो उनकी बीती ज़िंदगी का हिसाब-किताब किया जा सकता है। निश्चय ही अविस्मरणीय अभिनेता थे दिलीप कुमार। उनकी एक्टिंग मेथर्ड की नकल तो अमिताभ बच्चन और शाहरुख़ खान जैसे अभिनेताओं ने की है। दिलीप कुमार एक अच्छे अभिनेता थे किंतु एक मनुष्य और एक भारतीय के रुप में उनकी छवि कैसी रही, इस पर भी चर्चा होनी चाहिए।
भारत में एक परंपरा चलती है कि मृत व्यक्तियों के बीते जीवन के काले पक्ष पर बात नहीं की जाती। उसके मृत होने पर उसे निष्कलंक, निष्पाप मानकर विदाई दी जाती है। निश्चय ही ये भारत देश की महान परंपरा है। आज सुबह से सोशल मीडिया तप रहा है। कुछ लोग दिलीप कुमार को श्रद्धांजलि दे रहे हैं और कुछ लोग श्रद्धांजलि देने वालों का विरोध कर रहे हैं। ये पैटर्न हमने भारत के पूर्व राष्ट्रपति अब्दुल कलाम की मृत्यु पर भी देखा था।
उनके ही धर्म के लोगों ने उन्हें नमन नहीं किया था। तो इस बड़े देश में अब इस बात पर बहस बंद हो जानी चाहिए कि दिलीप कुमार के जीवन के सभी पक्षों पर बात की जाए या नहीं। दिलीप कुमार साहसिक अभिव्यक्ति करते थे। भले ही देश के लोग पाकिस्तान से घृणा करते थे किन्तु अभिनेता ने बड़े गर्व से पाकिस्तान का सबसे बड़ा सम्मान ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ स्वीकार कर लिया था।
और मीडिया भी बता रहा है कि दिलीप साहब के जाने के बाद पाकिस्तानी ग़मगीन हो गए हैं। बहुत से रहस्य दिलीप साहब के साथ ही चले गए। बहुत से प्रश्नों के जवाब दिए बिना वे चले गए। जैसे एन एन बोहरा कमेटी रिपोर्ट में दिलीप कुमार का नाम आया था। मुंबई बम धमाकों के एक अभियुक्त उस्मान घानी ने अभिनेता का नाम भी लिया था। जैसे साठ के दशक में एक पाकिस्तानी जासूस ने गिरफ्तार होने के बाद दिलीप कुमार का नाम लिया था।
जैसे एक बार उनके घर से शक्तिशाली ट्रांसमीटर बरामद होने की ख़बरें ज़ोरो पर थी। उल्लेखनीय है कि कारगिल होने के बाद भी दिलीप कुमार ने ‘निशान-ए-पाकिस्तान’ वापस नहीं किया। इससे पता चला कि भारत और पाकिस्तान को लेकर वे क्या सोचते थे। दिलीप कुमार पर लगाए गए आरोप कभी सिद्ध नहीं हो सके। वास्तव में उन पर लगे आरोपों की विस्तृत जाँच कभी नहीं करवाई गई।
एक अभिनेता के रुप में उन्होंने देश की बहुत सेवा की लेकिन एक भारतीय के रुप में उनकी निष्ठा संदेह के घेरे में ही रही है। पाकिस्तान में दिलीप कुमार की हवेली को सहेजा जा रहा है। उस हवेली की पुरातात्विक कीमत अब और बढ़ जाएगी। दिलीप कुमार उर्फ़ मोहम्मद युसूफ खान के दो घर थे, भारत और पाकिस्तान।
लेकिन भारत में रहते हुए उनके मन में यही ख्याल आता रहा कि ‘अपने ही घर में किसी दूसरे घर के हम हैं।’ सुपुर्दे ख़ाक होने के बाद दिलीप कुमार का नाम कुछ दिन और लिया जाएगा, इसके बाद वे अपनी फिल्मों में कैद होकर रह जाएंगे। वे ऐसे ख्यात व्यक्ति के बारे में जाने जाएंगे, जिसकी देश के प्रति निष्ठा सदा ही संदेह के घेरे में रही।