वे महाराज रैवतक थे, जिन्होंने सबसे पहले समुद्र से भूमि छीनकर ‘कुशस्थली’ का निर्माण किया। यहाँ समुद्र छीनने से अभिप्राय है कि उन्होंने वैज्ञानिक प्रक्रिया से भूमि अधिग्रहण किया। विष्णु पुराण और हरिवंशपुराण से पता चलता है कि इसी कुशस्थली पर कृष्ण ने विश्व की सबसे स्वर्णिम नगरी द्वारिका बसाई थी। ये देवकी लीला ही थी कि द्वापर से कलयुग में पृथ्वी ने प्रवेश किया ही था कि उसी क्षण कृष्ण ने अपने वैकुण्ठ जाने की लीला रच डाली। और ठीक उसी क्षण अरब सागर की आक्रामक लहरें द्वारिका की सुदृढ़ दीवारों से आकर टकराने लगी थी। अर्जुन वे आखिरी व्यक्ति थे, जिन्होंने कुबेर निर्मित द्वारिका को समुद्र में समाते देखा था। द्वारिका के निवासी अपना सामान लेकर वहां से निकल रहे थे और रत्नों की इस अद्भुत नगरी को पीछे समुद्र डुबाता जा रहा था। कलयुग के इस नवीन कालखंड में अर्जुन अपनी धनुर्धर विद्या भी भूल चुका था।
कृष्ण ने अपने चचेरे भ्राता उद्धव से द्वारिका बसाने को लेकर चर्चा की थी। वे ऐसी नगरी चाहते थे, जो जरासंध के आक्रमणों से सुरक्षित रहे। उद्धव ने उन्हें सुझाव दिया था कि कुशस्थली के पश्चिम की ओर बारह योजन लंबा और आठ योजन चौड़ा एक भूखंड है। यदि हम इसे अपनी राजधानी बनाए तो किसी प्रकार की सुरक्षा की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।

जब कृष्ण ने पूछा कि निर्माण का कांटेक्ट किसे दिया जाएगा तो उद्धव ने यम सभ्यता का नाम लिया था। उद्धव के अनुसार यम राक्षस अवश्य हैं लेकिन उनकी निर्माण कला अद्भुत है। कृष्ण सहमत नहीं थे। उन्होंने कहा ‘द्वारिका समुद्र में खुलने वाला आर्यावर्त का द्वार होगी।’ इसलिए यम सभ्यता से इसका निर्माण करवाना संकट को बुलावा दे सकता है। अंततः यम सभ्यता के कुबेर को ही द्वारिका के निर्माण के लिए बुलाया गया था और उन्होंने कृष्ण को निराश नहीं किया।
द्वारिका का समुद्र में समाना एक प्राकृतिक घटना थी। कृष्ण जानते थे कि ऐसा कब होने वाला है इसलिए अपने नागरिकों को लाने के लिए उन्होंने अर्जुन को ज़िम्मेदारी दी थी। जिस समय द्वारिका समुद्र में डूबी, विश्व के कई भागों में ऐसी ही घटनाएं हुई। नगर के नगर समुद्र में समा गए। समुद्र ने अपना विस्तार बढ़ाया था।
आज भी इन नगरों के अवशेष समुद्र में मिलते हैं। इन अवशेषों की कार्बन डेटिंग वही समय दिखाती है, जो द्वारिका से प्राप्त अवशेषों की कार्बन डेटिंग दिखाती है। पुरातत्व के संदर्भ में ये कहावत प्रसिद्ध है कि ‘बड़ी-बड़ी खोजे अनायास ही हो जाया करती है।’
सन 1930 से ही समुद्र कृष्ण जी की वास्तविकता के प्रमाण अवशेषों के रूप में उगलने लगा था। शायद उसकी मंशा थी कि पश्चिम के नॉन बिलीवर्स और भारत के वाम दल इस सत्य को जाने कि कृष्ण जैसा असाधारण अवतारी पुरुष पृथ्वी की गोद में खेला था।
मुझे आश्चर्य है कि भारत के महान अवतार की बसाई नगरी के अवशेष तीस के दशक से मिलने शुरू हुए लेकिन इसको सहेजने के लिए न ठोस राजनीतिक इच्छा शक्ति दिखी और न भारत के विराट जनसमूह की ओर से इस ओर कोई दबाव आया।
यूरोप में यदि ईसा मसीह से जुड़े कोई अवशेष इस तरह मिल जाते तो अब तक उन्होंने अंडरवॉटर म्यूजियम बना डाला होता। पैसों की कोई परवाह नहीं की होती। कृष्ण की वास्तविकता के प्रमाण अरब सागर के नमक द्वारा तेज़ी से खाए जा रहे हैं। अब तक गोताखोर समुद्र से कुल संपदा का तीस प्रतिशत हिस्सा ही बाहर ला सके हैं।
ये अवश्य हुआ है कि अब आप अरब सागर में जाकर स्कूबा डाइविंग का प्रशिक्षण लेकर कृष्ण की नगरी के वैभव को निहार सकते हैं। अनुभव कर सकते हैं। नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ ओशिनोग्राफी गोवा से द्वारका प्राचीन मंदिर के सामने की लोकेशन की स्वीकृति देने की सुविधा जल्द ही दी जाने वाली है।
भारत का जनमानस विचित्र है। वह रामसेतु को बिसरा देता है। फिर नासा उसे ‘एडम्स ब्रिज’ बताकर प्रचारित करता है तो हमें सुध आती है। जब एक निकम्मी सरकार उसे तोड़ने का निर्णय लेती है, तब हम जागकर न्यायालय की ओर दौड़ते हैं। अभी हम निश्चिन्त हैं कि द्वारिका के अवशेष हमारे अधिकार क्षेत्र में है लेकिन हम उसे प्रचारित नहीं करते।
भविष्य में ऐसी स्थिति बनने ही जा रही है जब राम की तरह कृष्ण की वास्तविकता के प्रमाण मांगे जाने लगेंगे। संभव है राम की तरह कृष्ण को भी न्यायालय में श्री पारशरण को अपना वकील नियुक्त करना पड़े। अब तक तो द्वारिका को हमें विश्वभर में ‘The lost city of krishna‘ का प्रचार कर उन्हें बता देना था कि देखो हम सबसे प्राचीन संस्कृति है, लेकिन हमने समय पर नहीं किया।
पिछले वर्ष एक प्रसिद्ध खोजी ‘जोश गेट्स’ भारत आए थे। उन्होंने द्वारिका के बारे में बहुत कहानियां सुनी थी। उन्होंने यहाँ एक अंडरवॉटर मिशन किया और बेट द्वारिका में भी खोज की। यहाँ आने से पूर्व वे सोचते थे कि कृष्ण एक काल्पनिक चरित्र है लेकिन भारत के अनुभव ने उनकी राय को बदलकर रख दिया।

अरब सागर की गहराई में जब उन्होंने जलमग्न द्वारिका देखी तो उनके मुंह से निकला ‘देट इज इन्क्रेडिबल’। बेट द्वारिका पर उन्होंने अपने साथ लाए आधुनिक उपकरणों से खोज की। यहाँ भी उन्हें कुछ अवशेष प्राप्त हुए लेकिन वे तो यहाँ एक ‘विशेष मुद्रा’ के लिए आए थे, जो उन्हें नहीं मिल सकी। हालांकि वे भारत के अनोखे आध्यात्म से परिचित हुए, यहाँ के त्योहारों से यहाँ की संस्कृति को जाना। जब वे यहाँ से गए तो उनके मन में ये विश्वास था कि वसुंधरा पर कृष्ण नामक मनोहारी व्यक्तित्व ने मानव रूप में जन्म लिया था।
जिस मुद्रा या सील की खोज में जोश यहाँ आए थे, उसका उल्लेख हरिवंशपुराण में किया गया है। ये विशेष सील भारतीय पुराविदों को मिल चुकी है। जोश के लाख निवेदन पर भी ये सील उन्हें नहीं दिखाई गई, यानि वह सील भारत के लिए अत्यंत महवत्पूर्ण है। ये मुद्रा द्वारिका के हर नागरिक के पास होना अनिवार्य थी।
एक तरह से ये उस समय की आईडी थी, जो ये पहचान करवाती थी कि अमुक व्यक्ति द्वारिका का ही निवासी है। शंख के आवरण से बनी इस मुद्रा पर तीन मुखी जानवर के चिन्ह पाए गए हैं। 18×20 mm आकार की इस मुद्रा पर अंकित किये गए प्राणी के तीन मुख बैल, बकरी और एक प्राचीन प्राणी ‘एकसिंघा’ के हैं। इसे धारण करना द्वारिका के नागरिक के लिए आवश्यक था। दुर्भाग्य ये है कि ऐसी एक ही मुद्रा अब तक प्राप्त हुई है।

द्वापर में ही कलयुग के संकेत प्रकट होने लगे थे। कृष्ण के पुत्र साम्ब का पथभ्रष्ट हो जाना, साधु का उसे श्राप देना, सुदर्शन चक्र का लोप हो जाना ये सभी संकेत थे कि समय तेज़ी से परिवर्तित हो रहा है। वह तीर जो ज़ीरू नामक शिकारी ने चलाया था, उसका लोहा उसे एक मछली के पेट से मिला था।
उसी लोहे के तीर से कृष्ण वैकुंठ सिधार गए थे। कृष्ण के जाते ही उनकी वह स्वर्ण नगरी समुद्र में समा गई। द्वारिका कृष्ण की असीमित ऊर्जा का ही विस्तार थी। कृष्ण का लोप हुआ तो द्वारिका के रहने का कोई मार्ग नहीं था। भारत का वास्तविक ‘गेटवे ऑफ़ इंडिया’ तो समुद्र में डूबा पड़ा है। द्वारिका समुद्र में खुलने वाला आर्यावर्त का वास्तविक द्वार है
बहुत सुन्दर
जितेंद्र जी बहुत आभार
शानदार लेख, शानदार शोध के साथ।
जय जय
संदीप जी अति उत्तम जानकारी डी है आपने धन्यवाद जी
Adhbut