श्वेता पुरोहित। महाभारत का युद्ध समाप्त हो चुका था। विजयी धर्मराज सिंहासनासीन हो चुके थे। अश्वत्थामा ने पाण्डवों का वंश ही नष्ट करने के लिये ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया; किंतु जनार्दन ने पाण्डवों की और उत्तरा के गर्भस्थ शिशु की भी उससे रक्षा कर दी। अब वे श्रीकृष्ण द्वारका जाना चाहते थे। इसी समय देवी उनके पास आयीं।
वे प्रार्थना करने लगीं। बड़ी अद्भुत प्रार्थना की उन्होंने। अपनी प्रार्थना में उन्होंने ऐसी चीज माँगी, जो कदाचित् ही कोई माँगने का साहस करे। उन्होंने माँगा- ‘हे जगद्गुरो ! जीवन में बार-बार हमपर विपत्तियाँ ही आती रहें; क्योंकि जिनका दर्शन होने से जीव फिर संसार में नहीं आता, उन आपका दर्शन तो उन (विपत्तियों) में ही होता है।’
यह देवी कुन्ती का अपना अनुभव है। उनका जीवन विपत्तियों में ही बीता और विपत्तियाँ भगवान् का वरदान हैं, उनमें वे मंगलमय निरन्तर चित्तमें निवास करते हैं, यह उन्होंने भली प्रकार अनुभव किया। अब उनके पुत्रों का राज्य निष्कण्टक हो गया। उन्हें लगा कि विपत्तिरूपी निधि अब हाथ से चली गयी। इसीसे श्यामसुन्दर से विपत्तियों का वरदान माँगा उन्होंने।
प्रमादी सुखी जीवन धिक्कार के योग्य है। धन्य है वह विपद्ग्रस्त जीवन का दुःखपूरित क्षण, जिसमें वे अखिलेश्वर स्मरण आते हैं।
श्रीमद्भागवत-महापुराण