…भाग तीन
स्वतंत्रता से पहले फिल्म निर्माण का ढांचा कुछ अलग किस्म का हुआ करता था। पचास-साठ के दशक में स्टूडियो द्वारा फिल्म निर्माण किया जाता था। इसमें बाहरी निवेशक नाममात्र के हुआ करते थे। मुंबई टॉकिज और प्रभात टॉकीज इसका उदाहरण है। बाद के वर्षों में जब फिल्म निर्माता स्वतंत्र फ़िल्में बनाने लगे और इसके लिए ब्याज पर पैसा उठाने लगे तो अपराध जगत को इस पेशे में अपना काला धन खपाने का बेहतरीन आयडिया आया। यूँ समझ लीजिये कि मुंबई में अंडरवर्ल्ड और फिल्मों में काला धन की बढ़ोतरी लगभग एक साथ ही हुई है।
ब्याज पर पैसा उठाना अधिकांश फिल्म निर्माताओं के लिए बर्बादी का सबब बनता चला गया। इस बाजार में पैसा उठाते ही ब्याज का मीटर चलना शुरू हो जाता है। फिल्म समय पर पूरी न हो तो ब्याज बढ़ता है और आगे जाकर फ्लॉप हो जाए तो निर्माता हमेशा के लिए बर्बाद हो जाता है। सत्तर से नब्बे का दशक अंडरवर्ल्ड के लिए एक सुनहरा समय रहा। इस दौर में फिल्म उद्योग असंगठित था। ऐसे में अपराध का पैसा फिल्मों में लगाना आसान और फायदे का सौदा था। हाजी मस्तान के बाद दाऊद ने एक तरह से फिल्म उद्योग पर अधिपत्य ज़माना शुरू कर दिया। कुछ बड़े फ़िल्मी घरानों को छोड़ दिया जाए तो काफी हद तक फिल्म उद्योग में उसकी घुसपैठ हो चुकी थी। करीम लाला का लगाया पौधा अब वृक्ष का रूप लेने लगा था।
वे बीते बीस साल अपराध की गलियों को स्टूडियो की लाइम लाइट तक खींच लाए थे। पांच फ़ीट चार इंच लंबे दाऊद का कद अब डोंगरी से निकलकर पूरी मुंबई पर छा गया था। उस दौर में शायद ही ऐसी कोई मशहूर हस्ती रही होगी जिसने ताल्लुक इस डोंगरी के छोरे से नहीं रहा हो। उसने कितनी फिल्मों में लगाया, इसकी पूरी जानकारी नहीं है लेकिन कुछ फ़िल्में ऐसी रही, जिनमे अंडरवर्ल्ड कनेक्शन खुलकर सामने आया। नब्बे के दशक में लगभग बीस फिल्मे ऐसी रही, जिनमे अपराध जगत का पैसा लगाने के सबूत पाए गए थे और जो पकड़े नहीं गए, उनकी तो गिनती ही नहीं है। जब दाऊद मुंबई बम धमाकों के बाद भारत से भाग गया तब उसके गुर्गे कारोबार सँभालने लगे। अवैध वसूली से लेकर फिल्म फाइनेंस भी निर्बाध हो रहा था। दुबई से अपना कारोबार संचालित करने में दाऊद इब्राहिम को कोई दिक्क्त पेश नहीं आ रही थी।
1997 में गुलशन कुमार की निर्मम हत्या ने फिल्म उद्योग को हिलाकर रख दिया था। सन्देश साफ़ था कि हमारे आगे नहीं झुकोगे तो मार दिए जाओगे। नाज़िम रिजवी दाऊद के सहयोगी छोटा शकील के संपर्क में आने से पहले क्लैप बॉय के रूप में काम करता था। उसकी महीने की आमदनी हज़ार रूपये थी। छोटा शकील से हाथ मिलाने के बाद रिजवी फिल्म निर्माता बन बैठा। बी और सी ग्रेड की फिल्मे बनाने के बाद उसने सलमान खान और प्रीटी जिंटा को लेकर एक फिल्म बनाई। फिल्म का नाम था चोरी-चोरी चुपके-चुपके। फिल्म का बजट 12 करोड़ था और जाँच में पता चला कि ये पैसा छोटा शकील के मार्फत आया है। इस खुलासे ने सरकार और देश की जनता के होश उड़ा दिए। देश की जनता ये जानकर हैरान थी कि भारत का सबसे बड़ा अपराधी देश के बाहर से अपना कारोबार संचालित कर रहा है।
मरते फिल्म उद्योग की बीमारी पकड़ में आ गई थी। एक बार फिल्म निर्देशक महेश भट्ट ने सार्वजानिक रूप से कहा था कि फिल्म इंडस्ट्री में ऐसा कोई नहीं है जिसका प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से अपराध जगत से संबंध न हो। हालांकि इस कारोबार की जड़े इतनी गहरी थी कि मुंबई से शुरू होकर दुबई होते हुई पाकिस्तान से जुड़ रही थी। क्रिकेट पर सट्टा, हफ्ता वसूली और फिल्म निर्माण में एक गहरा गठजोड़ बन गया था जिसका जनक दाऊद इब्राहिम था। जारी रहेगा…
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2- बॉलीवुड और अंडरवर्ल्ड नेक्सस: प्रेमिका के लिए फिल्मों में पैसा लगाया और बन बैठा फिल्म फाइनेंसर!
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