श्वेता पुरोहित-
राजा शर्याति देवी सुकन्या के पिता थे। जब उन्होंने सुना कि अश्विनीकुमारों की कृपा से महर्षि च्यवन युवावस्था को प्राप्त हो गये; तब उन्हें बड़ी प्रसन्नता हुई। वे सेना के साथ महर्षि च्यवन के आश्रम पर आये। च्यवन और सुकन्या को देवकुमारों के समान सुखी देखकर पत्नी सहित शर्याति को महान् हर्ष हुआ, मानो उन्हें सम्पूर्ण पृथ्वी का राज्य मिल गया हो। च्यवन ऋषि ने रानियों सहित राजा का बड़ा आदर-सत्कार किया और उनके पास बैठकर मन को प्रिय लगने वाली कल्याणमयी कथाएँ सुनायीं ।
तत्पश्चात् भृगुनन्दन च्यवन ने उन्हें सान्त्वना देते हुए कहा- ‘राजन्! मैं आप से यज्ञ कराऊँगा। आप सामग्री जुटाइये ‘। यह सुनकर राजा शर्याति बड़े प्रसन्न हुए और उन्होंने च्यवन मुनि के उस वचन की बड़ी सराहना की। तदनन्तर यज्ञ के लिये उपयोगी शुभ दिन आने पर शर्याति ने एक उत्तम यज्ञ मण्डप तैयार करवाया, जो सम्पूर्ण मनोवाञ्छित समृद्धियों से सम्पन्न था। भृगुपुत्र च्यवन ने उस यज्ञमण्डप में राजा से यज्ञ करवाया। उस यज्ञ में जो अद्भुत बातें हुई थीं।
महातेजस्वी च्यवन मुनि ने अश्विनीकुमारों की कृपा से अनुकूल पत्नी, तरुण अवस्था और मनोवाञ्छित रूप पाकर बड़े हर्ष का अनुभव किया था और दोनों अश्विनीकुमारों से कहा – ‘आप दोनों ने मुझ बूढ़े को रूपवान् और तरुण बना दिया, साथ ही मुझे अपनी यह भार्या भी मिल गयी; इसलिये प्रसन्न होकर आप दोनों को यज्ञ में देवराज इन्द्र के सामने ही सोमपान का अधिकारी बना दूँगा। यह मैं आप लोगों से सत्य कहता हूँ’।
अब यज्ञ में महर्षि च्यवन ने दोनों अश्विनीकुमारों- को देने के लिये सोमरस का भाग हाथ में लिया। उन दोनों के लिये सोम का भाग ग्रहण करते समय इन्द्र ने मुनि को मना किया ।
इन्द्र बोले-मुने ! मेरा यह सिद्धान्त है कि ये दोनों अश्विनीकुमार यज्ञ में सोमपान के अधिकारी नहीं हैं; क्योंकि ये द्युलोक निवासी देवताओं के वैद्य हैं और उस वैद्यवृत्ति के कारण ही इन्हें यज्ञ में सोमपान का अधिकार नहीं रह गया है।
च्यवन ने कहा – मघवन् ! ये दोनों अश्विनीकुमार बड़े उत्साही और महान् बुद्धिमान् हैं। रूप-सम्पत्ति में भी सबसे बढ़-चढ़कर हैं। इन्होंने ही मुझे देवताओं के समान दिव्य रूप से युक्त और अजर बनाया है। देवराज ! फिर तुम्हारे या अन्य देवताओंके सिवा इन्हें यज्ञ में सोमरस का भाग पाने का अधिकार क्यों नहीं है ? पुरंदर ! इन अश्विनीकुमारों को भी देवता ही समझो।
इन्द्र बोले- ये दोनों चिकित्सा-कार्य करते हैं और मनमाना रूप धारण करके मृत्युलोक में भी विचरते रहते हैं, फिर इन्हें इस यज्ञ में सोमपान का अधिकार कैसे प्राप्त हो सकता है ?
जब देवराज इन्द्र बार-बार यही बात दुहराने लगे तब भृगुनन्दन च्यवन ने उनकी अवहेलना करके अश्विनीकुमारों को देनेके लिये सोमरस का भाग ग्रहण किया। उस समय देववैद्यों के लिये उत्तम सोमरस ग्रहण करते देख इन्द्र ने च्यवन मुनि से इस प्रकार कहा – ब्रह्मन् ! यदि तुम इन दोनों के लिये स्वयं सोमरस ग्रहण करोगे तो मैं तुम पर अपना परम उत्तम भयंकर वज्र छोड़ दूँगा ।
उनके ऐसा कहनेपर च्यवन मुनि ने मुसकराते हुए इन्द्र की ओर देखकर अश्विनीकुमारों के लिये विधिपूर्वक उत्तम सोम रस हाथ में लिया । तब शचीपति इन्द्र उनके ऊपर भयंकर वज्र छोड़ने लगे, परंतु वे जैसे ही प्रहार करने लगे, भृगुनन्दन च्यवन ने उनकी भुजा को स्तंभित कर दिया ।
इस प्रकार उनकी भुजा स्तंभित करके महातेजस्वी
च्यवन ऋषिने मन्त्रोच्चारणपूर्वक अग्नि में आहुति दी। वे देवराज इन्द्र को मार डालने के लिये उद्यत होकर कृत्या उत्पन्न करना चाहते थे । च्यवन ऋषि के तपोबल से वहाँ कृत्या प्रकट हो गयी। उस कृत्या के रूप में महापराक्रमी विशालकाय महादैत्य मद का प्रादुर्भाव हुआ। जिसके शरीर का वर्णन देवता तथा असुर भी नहीं कर सकते। उस असुरका विशाल मुख बड़ा भयंकर था। उसके आगे के दाँत बड़े – तीखे दिखायी देते थे। उसका ठोड़ी सहित नीचे का ओष्ठ धरतीपर टिका हुआ था और दूसरा स्वर्गलोक तक पहुँच गया था। उसकी चार दाढ़ें सौ-सौ योजन तक फैली हुई थीं। उस दैत्यके दूसरे दाँत भी दस-दस योजन लम्बे थे। उनकी आकृति महलों के कँगूरों के समान थी। उनका अग्रभाग शूल के समान तीखा दिखलायी देता था। दोनों भुजाएँ दो पर्वतोंके समान प्रतीत होती थीं। दोनोंकी लंबाई एक समान दस-दस हजार योजन की थी। उसके दोनों नेत्र चन्द्रमा और सूर्य के समान प्रज्वलित हो रहे थे। उसका मुख प्रलयकाल की अग्नि के समान ने जाज्वल्यमान जान पड़ता था। उसकी लपलपाती हुई न चञ्चल जीभ विद्युत्के समान चमक रही थी और उसके द्वारा वह अपने जबड़ोंको चाट रहा था। उसका मुख खुला हुआ था और दृष्टि भयंकर थी; ऐसा जान पड़ता था, मानो वह सारे जगत्को बलपूर्वक निगल जायगा। वह दैत्य कुपित हो अपनी अत्यन्त भयंकर गर्जना से सम्पूर्ण जगत्को गुँजाता हुआ इन्द्र को खा जानेके लिये उनकी ओर दौड़ा ।
मुँह बाये हुए यमराज की भाँति भयंकर मुखवाले उस मदासुर को निगलने के लिये आते देख देवराज इन्द्र भय से व्याकुल हो गये। जिनकी भुजाएँ स्तब्ध हो गयी थीं, वे इन्द्र मृत्यु के डरसे घबराकर बार-बार ओष्ठप्रान्त चाटने लगे।
उसी अवस्था में उन्होंने महर्षि च्यवनसे कहा- ‘भृगुनन्दन ! ये दोनों अश्विनीकुमार आज से सोमपान के अधिकारी होंगे। मेरी यह बात सत्य है, अतः आप मुझपर प्रसन्न हों। ‘आपके द्वारा किया हुआ यह यज्ञ का आयोजन मिथ्या न हो। आपने जो कर दिया वही उत्तम विधान हो। ब्रह्मर्षे ! मैं जानता हूँ, आप अपना संकल्प कभी मिथ्या न होने देंगे। आज आपने इन अश्विनीकुमारोंको जैसे सोमपानका अधिकारी बनाया है उसी प्रकार मेरा भी कल्याण कीजिये। भृगुनन्दन ! आपकी अधिक-से-अधिक शक्ति प्रकाश में आवे तथा जगत में सुकन्या और इसके पिता की कीर्ति का विस्तार हो। इस उद्देश्य से मैंने यह आपके बल-वीर्यको प्रकाशित करनेवाला कार्य किया है। अतः आप प्रसन्न होकर मेरे ऊपर कृपा करें। आप जैसा चाहते हैं, वैसा ही होगा’।
इन्द्रके ऐसा कहने पर भृगुनन्दन महामना च्यवनका क्रोध शीघ्र शान्त हो गया और उन्होंने देवेन्द्र को (उसी क्षण) सम्पूर्ण दुःखों से, मुक्त कर दिया।
उन शक्तिशाली ऋषि ने मद को, जिसे पहले उन्होंने ही उत्पन्न किया था, मद्यपान, स्त्री, जूआ और मृगया (शिकार) – इन चार स्थानों में पृथक् पृथक् बाँट दिया। इस प्रकार मद को दूर हटाकर उन्होंने देवराज इन्द्र और अश्विनीकुमारों सहित सम्पूर्ण देवताओं को सोमरस से तृप्त किया तथा राजा शर्याति का यज्ञ पूर्ण कराकर समस्त लोकों में अपनी अद्भुत शक्ति को विख्यात करके वक्ताओं में श्रेष्ठ च्यवन ऋषि अपनी मनोनुकूल पत्नी सुकन्या के साथ वन में विहार करने लगे।
🌿 इस कथा में ज्योतिष की कुछ गूढ़ बातें छिपी हुयी हैं ।
☝️अश्विनी कुमार,अश्विनी नक्षत्र के अधिष्ठाता देव हैं। जिनकी कुंडली में चंद्र या लग्न का नक्षत्र अश्विनी नक्षत्र है, उन्हें च्यवनप्राश का सेवन बहुत लाभदायक होता है।
☝️मद्यपान, स्त्री, जूआ और मृगया (शिकार) ये char स्थान हैं जहाँ मदासुर का निवास होता है। मनुष्यों की अधिकतर परेशानियां इन्हीं में से किसी एक से उपजीती हैं।
☝️इसके साथ ही जो भी व्यक्ति (जिनकी कुंडली में अश्विनी नक्षत्र में कोई ग्रह ना भी हो) को कब्ज (constipation) या मल या मुत्रद्वार अवरोध की परेशानी हो, उन्हें भी च्यवनप्राश के सेवन से लाभ होता है।