रामेश्वर मिश्र पंकज। 9 वीं शताब्दी ईस्वी से यूरोप में ईसाइयत क्रमशः फैली।धीरे धीरे। फैलाने वाले मनोरोगी और दुष्ट थे। जीसस कभी हुए या नहीं यह विवाद की बात है परंतु जिन लोगों ने चर्च को फैलाया उनमें से किसी ने जीसस को कभी भी देखा नहीं था, सुना नहीं था । अपने मन से सब गढ़ा। समाज पर अर्थात अपने इलाके के संपूर्ण लोगों पर भयंकर कठोर नियंत्रण के लिए उन्होंने थियोलॉजी का जाल रचा। Theology का अर्थ होता है पन्थ मीमांसा।
यह बहुत भयंकर चीज है और दूसरों को अपने जैसा मनुष्य नहीं मानकर उन्हें अपने नियंत्रण में रखने योग्य दास या पशु सा मान कर theology रची जाती है। Theology के नाम पर इतने भयंकर अत्याचार हुए, ऐसी पैशाचिक यंत्रणा लोगों को दी गई कि दुनिया से परिचय आने के बाद यूरोप के प्रबुद्ध लोग थियोलॉजी और चर्च से घृणा करने लगे । इनमें जो सबसे तेज तर्रार थेऔऱसत्ता लोभी थे उन्होंने Communism और सोशलिस्म की बात की। परंतु समाज पर नियंत्रण उनका भी लक्ष्य था । समाज का नियंत्रण यानी अपने गिरोह का समाज पर नियंत्रण चाहते थे। इसीलिए उन्होंने Theology की जगह आइडियोलॉजी की बात की।
नेहरू कम्युनिस्ट थे तो उन्होंने भी आईडियोलॉजी में ही श्रद्धा रख काम किया। नेहरू के चाटुकार लोग हिंदी में और भारतीय भाषाओं में उसे विचारधारा कहने लगे और आईडियोलॉजी भी कहते रहे। दोनों का उद्देश्य था कि अन्य लोग उन्हीं बातों पर दिमाग खपाते रहें और बहस करते रहें तथा दल या पार्टी के मूल कामों की मीमांसा नहीं करें ।। भारत में कम्युनिस्ट तर्ज पर पार्टियों का गठन हुआ जो समाज के रूपांतरण के लिए संकल्पित हैं ।
इसके पीछे 19वीं शताब्दी के विज्ञान की मान्यताएं हैं जिन पर मैं पहले कई पोस्ट में प्रकाश डाल चुका हूं और जो अब विज्ञान में असत्य और अवास्तविक घोषित कर दी गई है तथा ठुकरा दी गई हैं। यूरोप में पार्टियों ने आईडियोलॉजी की बात छोड़ दी है। परंतु भारत तथा अन्य communism से जुड़े देशों में आईडियोलॉजी की बात चल रही है। जनसंघ और भाजपा में संस्कारी हिंदू शामिल हुए जिन्हें यूरोप के वैचारिक जगत का कुछ भी पता नहीं था तो कुछ समय बाद फैशन में उन्होंने भी विचारधारा की बात शुरू कर दी।
इसमें फायदा यह है की कार्यकर्ता विचारधाराओं पर चिंतन मनन करते रहें और दिमाग खपाते रहे । जो शिखर पर है , वे राजनीति को राजनीति के तरीके से करते रहे और उसकी व्याख्या विचारधारा के ढांचे में होती रहे जो कार्यकर्ताओं की बड़ी संख्या तथा उनसे जुड़े नागरिकों की बड़ी संख्या को बहलाए रखने की चीज है। राजनीति सदा राजनीतिक ढंग से होती है। उसमें विचारधारा का आधार नहीं होता ।उसमें राजनीतिक प्रयोजन का आधार होता है।
जो लोग विचारधारा के आधार पर राजनीति की चर्चा करते हैं, बहस करते हैं, उसी में समय लगाते हैं ,वे कभी वास्तविक राजनीति के कर्ता धरता नहीं होते।वे किसी दल विशेष के सेवक या दास होते हैं ।वे दल के लिए बहुत उपयोगी होते हैं परंतु समाज के लिए वे किसी काम के नहीं होते। राजनीति का विश्लेषण सदा राजनीतिक गुणों, कार्यों और गतिविधियों के आधार पर किया जाना चाहिए और किया जाता रहा है । तभी राजनीति का सही विश्लेषण होता है ।विचारधारा के आधार पर राजनीति को कभी समझा नहीं जा सकता।
कम्युनिस्टों की किसी भी गतिविधि का गरीबी से क्या रिश्ता है सिवाय गरीबों के बरगलाने बहलाने फुसलाने और उनको अपनी सेवा में नियोजित रखने के?
सत्ता पर कब्जा ही कम्युनिस्ट पार्टी का प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को ,उसके भद्देपन को ढकने के लिए, उसकी पशुवत छीना झपटी को ढकने के लिए विचारधारा की बात की जाती है ।गरीबों की बात की जाती है ।प्रतिस्पर्धी को गालियां दी जाती है । स्पष्ट बात है।
लेकिन विचारधारा में लिप्त हुए लोग ऐसे नहीं देख पाते हैं । यह लोग किसी भी राजनीतिक दल का सत्य नहीं देख पाते क्योंकि राजनीतिक दल का लक्ष्य सत्ता पर नियंत्रण प्राप्त करना होता है । सत्ता की संरचना राजनीति शास्त्र के द्वारा समझी जा सकती है ।राजनीतिक बहसों के द्वारा नहीं। राजनीतिक बहसों में लगे हुए लोग सत्ता की संरचना का विश्लेषण करते कभी नहीं देखे जाते। वे अपने दल की प्रशंसा और विरोधी दल की निन्दा में ही जन्म गंवाते हैं ।
अतः वास्तविक राजनीति को समझने में रुचि रखने वालों को कभी भी विचारधारा कीबकवास की ओर एक पल भी नहीं देखना चाहिए और राजनीति के सर्वविदित आधारों पर राजनीति का विश्लेषण करना सीखना चाहिए या फिर सहज बुद्धि से लोग जिस प्रकार राजनीति को समझते हैं, उस प्रकार को समझने की विनम्रता होनी चाहिए।