श्वेता पुरोहित। भरद्वाज तथा रैभ्य मुनि दोनों एक-दूसरे के सखा थे और निरन्तर एक आश्रम में बड़े प्रेम से रहा करते थे। रैभ्य के दो पुत्र थे- अर्वावसु और परावसु । भरद्वाज के पुत्र का नाम ‘यवक्री’ अथवा ‘यवक्रीत’ था। पुत्रोंसहित रैभ्य बड़े विद्वान् थे, परंतु भरद्वाज केवल तपस्या में संलग्न रहते थे। बाल्यावस्था से ही इन दोनों महात्माओं की अनुपम कीर्ति सब ओर फैल रही थी।
यवक्रीत ने देखा, मेरे तपस्वी पिता का लोग सत्कार नहीं करते हैं; परंतु पुत्रोंसहित रैभ्य का ब्राह्मणों द्वारा बड़ा आदर होता है। यह देख तेजस्वी यवक्रीत को बड़ा संताप हुआ। वे क्रोध से आविष्ट हो वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये घोर तपस्या में लंग गये। उन महातपस्वी ने अत्यन्त प्रज्ज्वलित अग्नि में अपने शरीर को तपाते हुए इन्द्र के मन में संताप उत्पन्न कर दिया।
तब इन्द्र यवक्रीत के पास आकर बोले- ‘तुम किसलिये यह उच्च कोटि की तपस्या कर रहे हो?’
यवक्रीत ने कहा- देववृन्दपूजित महेन्द्र ! मैं यह उच्च कोटि की तपस्या इसलिये करता हूँ कि द्विजातियों को बिना पढ़े ही सब वेदों का ज्ञान हो जाय। मेरा यह आयोजन स्वाध्याय के लिये ही है। मैं तपस्या द्वारा सब बातों का ज्ञान प्राप्त करना चाहता हूँ। गुरु के मुख से दीर्घकाल (लंबे समय) के पश्चात् वेदों का ज्ञान हो सकता है। अतः मेरा यह महान् प्रयत्न शीघ्र ही सम्पूर्ण वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये है।
इन्द्र बोले – विप्रर्षे ! तुम जिस राह से जाना चाहते हो, वह अध्ययन का मार्ग नहीं है। स्वाध्याय के समुचित मार्ग को नष्ट करने से तुम्हें क्या लाभ होगा ? अतः जाओ गुरु के मुख से ही अध्ययन करो।
ऐसा कहकर इन्द्र चले गये; तब अत्यन्त पराक्रमी यवक्रीत ने भी पुनः तपस्या के लिये ही घोर प्रयास आरम्भ कर दिया। उसने घोर तपस्या द्वारा महान् तपका संचय करते हुए देवराज इन्द्र को अत्यन्त संतप्त कर दिया।
महामुनि यवक्रीत को इस प्रकार तपस्या करते देख इन्द्र ने उनके पास जाकर पुनः मना किया और कहा-‘मुने ! तुमने ऐसे कार्य का आरम्भ किया है जिसकी सिद्धि होनी असम्भव है। तुम्हारा यह (द्विजमात्रके लिये बिना पढ़े वेदका ज्ञान होनेका) आयोजन बुद्धि – संगत नहीं है; किंतु केवल तुमको और तुम्हारे पिता को ही वेदों का ज्ञान होगा’।
यवक्रीत ने कहा- देवराज ! यदि इस प्रकार आप मेरे इष्ट मनोरथ की सिद्धि नहीं करते हैं तो मैं और व भी कठोर नियम लेकर अत्यन्त भयंकर तपस्या में लग जाऊँगा। देवराज इन्द्र ! यदि आप यहाँ मेरी सारी मनोवांछित कामना पूरी नहीं करते हैं तो मैं प्रज्वलित अग्नि में अपने नि एक-एक अंग को होम दूँगा।
यवक्रीत के उस निश्चयको जानकर बुद्धिमान् इन्द्र ने उन्हें रोकने के लिये बुद्धिपूर्वक कुछ विचार किया और एक ऐसे तपस्वी ब्राह्मण का रूप धारण कर लिया जिसकी उम्र कई सौ वर्षों की थी, तथा जो यक्ष्मा का रोगी और दुर्बल दिखायी देता था ।
गंगा के जिस तीर्थ में यवक्रीत मुनि स्नान आदि किया करते थे, उसी में वे ब्राह्मण देवता बालूद्वारा पुल बनाने लगे। यवक्रीत ने जब इन्द्र का कहना नहीं माना, तब वे बालू से गंगाजी को भरने लगे।
वे निरन्तर एक-एक मुट्ठी बालू गंगाजी में छोड़ते थे और इस प्रकार उन्होंने यवक्रीत को दिखाकर पुल बाँधने का कार्य आरम्भ कर दिया। मुनिवर यवक्रीत ने देखा, ब्राह्मण देवता पुल बाँधने के लिये बड़े यत्नशील हैं, तब उन्होंने हँसते हुए इस प्रकार कहा – ‘ब्रह्मन् ! यह क्या है ? आप क्या करना चाहते हैं? आप प्रयत्न तो महान् कर रहे हैं, परंतु यह व्यर्थ है’।
इन्द्र बोले-तात ! मैं गंगाजी पर पुल बाँधूंगा। इससे पार जाने के लिये सुखद मार्ग बन जायगा; क्योंकि पुल के न होनेसे इधर आने-जानेवाले लोगों को बार-बार तैरने का कष्ट उठाना पड़ता है। यवक्रीत ने कहा – तपोधन ! यहाँ अगाध जलराशि भरी है; अतः तुम पुल बाँधने में सफल नहीं हो सकोगे । इसलिये इस असम्भव कार्य से मुँह मोड़ लो और ऐसे कार्य में हाथ डालो जो तुमसे हो सके ।
इन्द्र बोले – मुने ! जैसे आपने बिना पढ़े वेदों का ज्ञान प्राप्त करने के लिये यह तपस्या प्रारम्भ की है जिसकी सफलता असम्भव है, उसी प्रकार मैंने भी यह पुल बाँधने का भार उठाया है।
यवक्रीत ने कहा- देवेश्वर पाकशासन ! जैसे आपका यह पुल बाँधने का आयोजन व्यर्थ है, उसी प्रकार यदि मेरी इस तपस्याको भी आप निरर्थक मानते हैं तो वही कार्य कीजिये जो सम्भव हो, मुझे ऐसे उत्तम वर प्रदान कीजिये, जिनके द्वारा मैं दूसरों से बढ़-चढ़कर प्रतिष्ठा प्राप्त कर सकूँ।
तब इन्द्र ने महातपस्वी यवक्रीत के कथनानुसार उन्हें वर देते हुए कहा- ‘यवक्रीत ! तुम्हारे पितासहित तुम्हें वेदों का यथेष्ट ज्ञान प्राप्त हो जायगा। साथ ही और भी जो तुम्हारी कामना हो, वह पूर्ण हो जायगी। अब तुम तपस्या छोड़कर अपने आश्रम को लौट जाओ।’ इस प्रकार पूर्णकाम होकर, यवक्रीत अपने पिता के पास गये और इस प्रकार बोले –
पिताजी ! आपको और मुझे दोनोंको ही सम्पूर्ण वेदोंका ज्ञान हो जायगा। साथ ही हम दोनों दूसरों से ऊँची स्थिति में हो जायँगे-ऐसा वर मैंने प्राप्त किया है।
भरद्वाज बोले – तात ! इस तरह मनोवाञ्छित वर प्राप्त करनेके कारण तुम्हारे मनमें अहंकार उत्पन्न हो जायगा और अहंकारसे युक्त होनेपर तुम कृपण होकर शीघ्र ही नष्ट हो जाओगे।
इस विषय में विज्ञजन देवताओं की कही हुई यह गाथा सुनाया करते हैं – प्राचीनकाल में बालधि नाम से प्रसिद्ध एक शक्तिशाली मुनि थे। उन्होंने पुत्रशोक से संतप्त होकर अत्यन्त कठोर तपस्या की। तपस्याका उद्देश्य यह था कि मुझे देवोपम पुत्र प्राप्त हो। अपनी उस अभिलाषा के अनुसार बालधि को एक पुत्र प्राप्त हुआ।
देवताओं ने उनपर कृपा अवश्य की, परंतु उनके पुत्रको देवतुल्य नहीं बनाया और वरदान देते हुए यह कहा ‘कि मरणधर्मा मनुष्य कभी देवता के समान अमर नहीं हो सकता। अतः उसकी आयु निमित्त (कारण) – के अधीन होगी’।
बालधि बोले- देववरो ! जैसे ये पर्वत सदा अक्षयभावसे खड़े रहते हैं, वैसे ही मेरा पुत्र भी सदा अक्षय बना रहे। ये पर्वत ही उसकी आयु के निमित्त होंगे अर्थात् जबतक ये पर्वत यहाँ बने रहें तबतक मेरा पुत्र भी जीवित रहे।
भरद्वाज कहते हैं – यवक्रीत ! तदनन्तर बालधि के पुत्रका जन्म हुआ, जो मेधायुक्त होने के कारण मेधावी नाम से विख्यात था। वह स्वभाव का बड़ा क्रोधी था। अपनी आयु के विषय में देवताओं के वरदान की बात सुनकर मेधावी घमण्ड में भर गया और ऋषियों का अपमान करने लगा। इतना ही नहीं, वह ऋषि-मुनियों को सताने के उद्देश्य से ही इस पृथ्वी पर सब ओर विचरा करता था।
एक दिन मेधावी महान् शक्तिशाली एवं मनीषी धनुषाक्ष के पास जा पहुँचा। और उनका तिरस्कार करने लगा। तब तपोबल- सम्पन्न ऋषि धनुषाक्ष ने उसे शाप देते हुए कहा-‘अरे, तू जलकर भस्म हो जा।’ परंतु उनके कहनेपर भी वह भस्म नहीं हुआ।
शक्तिशाली धनुषाक्ष ने ध्यान में देखा कि मेधावी रोग एवं मृत्यु से रहित है। तब उसकी आयु के निमित्तभूत पर्वतों को उन्होंने भैंसों द्वारा विदीर्ण करा दिया। निमित्त का नाश होते ही उस मृत्यु हो गयी। तदनन्तर पिता उस मरे हुए पुत्र को लेकर अत्यन्त विलाप करने लगे।
अधिक पीड़ित मनुष्यों की भाँति उन्हें विलाप करते देख वहाँके समस्त वेदवेत्ता मुनिगण एकत्र हो इस गाथा को गाने लगे –
‘मरणधर्मा मनुष्य किसी तरह दैव के विधान का उल्लंघन नहीं कर सकता, तभी तो धनुषाक्ष ने उस बालक की आयु के निमित्तभूत पर्वतों का भैंसों द्वारा भेदन करा दिया’।
इस प्रकार बालक तपस्वी वर पाकर घमण्ड में भर जाते हैं और (अपने दुर्व्यवहारों के कारण) शीघ्र ही नष्ट हो जाते हैं।