श्वेता पुरोहित। कुरुकुल के पितामह महाभाग भगवान् व्यास बहुत अच्छे ज्योतिषी हैं। युद्ध आरंभ होने से पहले वे धृतराष्ट्र से बोले :
‘महाराज ! इस युद्धमें महान् नर-संहार होगा; क्योंकि मुझे इस समय ऐसे ही भयदायक अपशकुन दिखायी देते हैं।
या चैषा विश्रुता राजंस्त्रैलोक्ये साधुसम्मता ।
अरुन्धती तयाप्येष वसिष्ठः पृष्ठतः कृतः ॥
‘राजन् ! जो अरुन्धती तीनों लोकोंमें पतिव्रताओंकी मुकुटमणिके रूपमें प्रसिद्ध हैं, उन्होंने वसिष्ठको अपने पीछे कर दिया है । अरुन्धती और वसिष्ठ को हम पृथ्वी से तारों के रूप में देखते हैं। ये हमें आकाश में साथ-साथ दिखते हैं। परंतु उस समय अरुन्धती ने वसिष्ठको अपने पीछे कर दिया था।
रोहिणीं पीडयन्नेष स्थितो राजञ्शनैश्चरः ।
व्यावृत्तं लक्ष्म सोमस्य भविष्यति महद् भयम् ॥
‘महाराज ! यह शनैश्चर नामक ग्रह रोहिणी को पीड़ा
देता हुआ खड़ा है। चन्द्रमाका चिह्न मिट-सा गया है। इससे सूचित होता है कि भविष्यमें महान् भय प्राप्त होगा ।
विष्वग्वाताश्च वान्त्युग्रा रजो नाप्युपशाम्यति ।
अभीक्ष्णं कम्पते भूमिरर्क राहुरुपैति च ॥
चारों ओर भयंकर आँधी चल रही है, उड़ना शान्त नहीं हो रहा है, धरती बारंबार काँप रही है तथा राहु सूर्यके निकट जा रहा है ।
श्वेतो ग्रहस्तथा चित्रां समतिक्रम्य तिष्ठति ।
अभावं हि विशेषेण कुरूणां तत्र पश्यति ॥
केतु चित्रा नक्षत्र का अतिक्रमण करके स्वाती पर स्थित हो रहा है; उसकी विशेषरूप से कुरुवंश के विनाशपर
ही दृष्टि है । राहु और केतु सदा एक-दूसरे से सातवीं राशिपर स्थित होते हैं, किंतु उस समय दोनों एक राशिपर आ गये थे अतः महान् अनिष्टके सूचक थे। सूर्य तुलापर थे, उनके निकट राहुके आनेका वर्णन पहले आ चुका है; फिर केतु के वहाँ पहुँचनेसे महान् दुर्योग बन गया है।
धूमकेतुर्महाघोरः पुष्यं चाक्रम्य तिष्ठति ।
सेनयोरशिवं घोरं करिष्यति महाग्रहः ॥
अत्यन्त भयंकर धूमकेतु पुष्य नक्षत्र पर आक्रमण करके वहीं स्थित हो रहा है। यह महान् उपग्रह दोनों सेनाओं का घोर अमंगल करेगा ।
मघास्वङ्गारको वक्रः श्रवणे च बृहस्पतिः ।
भगं नक्षत्रमाक्रम्य सूर्यपुत्रेण पीड्यते ॥
मंगल वक्र होकर मघा नक्षत्रपर स्थित है, बृहस्पति श्रवण नक्षत्रपर विराजमान है तथा सूर्यपुत्र शनि पूर्वा फाल्गुनी नक्षत्रपर पहुँचकर उसे पीड़ा दे रहा है ॥
शुक्रः प्रोष्ठपदे पूर्व समारुह्य विरोचते ।
उत्तरे तु परिक्रम्य सहितः समुदीक्षते ।।
शुक्र पूर्वा भाद्रपदापर आरूढ़ हो प्रकाशित हो रहा है और सब और घूम-फिरकर परिघ नामक उपग्रहके साथ उत्तरा भाद्रपदा नक्षत्रपर दृष्टि लगाये हुए है ।
प्रवेतो ग्रहः प्रज्वलितः सधूम इव पावकः ।
ऐन्द्रं तेजस्वि नक्षत्रं ज्येष्ठामाक्रम्य तिष्ठति॥
केतु नामक उपग्रह धूमयुक्त अग्निके समान प्रज्वलित हो इन्द्रदेवतासम्बन्धी तेजस्वी ज्येष्ठा नक्षत्रपर जाकर स्थित है ।
ध्रुवं प्रज्वलितो घोरमपसव्यं घोरमपसव्यं प्रवर्तते ।
रोहिणीं पीडयत्येवमुभौ च शशिभास्करौ ।
चित्रास्वात्यन्तरे चैव विष्ठितः परुषग्रहः ॥
चित्रा और स्वाती के बीच में स्थित हुआ क्रूर ग्रह राहु सदा वक्री होकर रोहिणी तथा चन्द्रमा और सूर्यको पीड़ा पहुँचाता है तथा अत्यन्त प्रज्वलित होकर ध्रुवकी बायीं ओर जा रहा है, जो घोर अनिष्टका सूचक है।
वक्रानुवक्रं कृत्वा च श्रवणं पावकप्रभः ।
ब्रह्मराशिं समावृत्य लोहिताङ्गो व्यवस्थितः ॥
अग्नि के समान कान्तिमान् मंगल ग्रह (जिसकी स्थिति मघा नक्षत्रमें बतायी गयी है) बारंबार वक्र होकर ब्रह्मराशि (बृहस्पतिसे युक्त नक्षत्र) श्रवणको पूर्णरूपसे आवृत करके स्थित है ।
एकपक्षाक्षिचरणः शकुनिः खचरो निशि ।
रौद्रं वदति संरब्धः शोणितं छर्दयन्निव ॥
रात में एक आँख, एक पाँख और एक पैरका पक्षी आकाशमें विचरता है और कुपित होकर भयंकर बोली बोलता है। उसकी बोली ऐसी जान पड़ती है, मानो कोई रक्त वमन कर रहा हो ।
शस्त्राणि चैव राजेन्द्र प्रज्वलन्तीव सम्प्रति ।
सप्तर्षीणामुदाराणां समवच्छाद्यते प्रभा ।।
राजेन्द्र! सभी शस्त्र इस समय जलते-से प्रतीत होते हैं। उदार सप्तर्षियोंकी प्रभा फीकी पड़ती जाती है ॥
संवत्सरस्थायिनौ च ग्रहौ प्रज्वलितावुभौ ।
विशाखायाः समीपस्थौ बृहस्पतिशनैश्चरौ ॥
वर्षपर्यन्त एक राशिपर रहनेवाले दो प्रकाशमान ग्रह बृहस्पति और शनैश्चर तिर्यग्वेधके द्वारा विशाखा नक्षत्र के समीप आ गये हैं ।
चन्द्रादित्यावुभौ ग्रस्तावेकाना हि त्रयोदशीम् ।
अपर्वणि ग्रहं यातौ प्रजासंक्षयमिच्छतः ॥
(इस पक्षमें तो तिथियों का क्षय होनेके कारण) एक ही दिन त्रयोदशी तिथिको बिना पर्वके ही राहुने चन्द्रमा और सूर्य दोनोंको ग्रस लिया है। अतः ग्रहणावस्थाको प्राप्त हुए वे दोनों ग्रह प्रजाका संहार चाहते हैं ।
कृत्तिकां पीडयंस्तीक्ष्णैर्नक्षत्रं पृथिवीपते ।
अभीक्ष्णवाता वायन्ते धूमकेतुमवस्थिताः ॥
राजन्! अपने तीक्ष्ण (क्रूरतापूर्ण) कर्मों के द्वारा उपलक्षित होनेवाला राहु (चित्रा और स्वातीके बीच में रहकर सर्वतोभद्रचक्रगतवेधके अनुसार) कृत्तिका नक्षत्रको पीड़ा दे रहा है। बारंबार धूमकेतुका आश्रय लेकर प्रचण्ड आँधी उठती रहती है ।
विषमं जनयन्त्येत आक्रन्दजननं महत्।
त्रिषु सर्वेषु नक्षत्रनक्षत्रेषु विशाम्पते ।
गृध्रः सम्पतते शीर्षं जनयन् भयमुत्तमम्॥
वह महान् युद्ध एवं विषम परिस्थिति पैदा करनेवाली है। राजन्! (अश्विनी आदि नक्षत्रोंको तीन भागोंमें बाँटनेपर जो नौ-नौ नक्षत्रोंके तीन समुदाय होते हैं, वे क्रमशः अश्वपति, गजपति तथा नरपतिके छत्र कहलाते हैं; ये ही पापग्रहसे आक्रान्त होनेपर क्षत्रियोंका विनाश सूचित करनेके कारण‘नक्षत्र-नक्षत्र’ कहे गये हैं) इन तीनों अथवा सम्पूर्ण नक्षत्र नक्षत्रोंमें शीर्षस्थानपर यदि पापग्रहसे वेध हो तो वह ग्रह महान् भय उत्पन्न करनेवाला होता है; इस समय ऐसा ही कुयोग आया है ।
चतुर्दशीं पञ्चदशीं भूतपूर्वं च षोडशीम् ।
इमां तु नाभिजानेऽहममावास्यां त्रयोदशीम् ।
चन्द्रसूर्यावुभौ ग्रस्तावेकमासीं त्रयोदशीम् ॥
एक तिथि का क्षय होने पर चौदहवें दिन, तिथिक्षय न होनेपर पंद्रहवें दिन और एक तिथिकी वृद्धि होनेपर सोलहवें दिन अमावास्याका होना तो पहले देखा गया है; परंतु इस पक्षमें जो तेरहवें दिन यह अमावास्या आ गयी है, ऐसा पहले भी कभी हुआ है, इसका स्मरण मुझे नहीं है। इस एक ही महीनेमें तेरह दिनोंके भीतर चन्द्रग्रहण और सूर्यग्रहण दोनों लग गये ।
अपर्वणि ग्रहेणैतौ प्रजाः संक्षपयिष्यतः ।
मांसवर्षं पुनस्तीव्रमासीत् कृष्णचतुर्दशीम् ।
शोणितैर्वक्त्रसम्पूर्णा अतृप्तास्तत्र राक्षसाः ॥
इस प्रकार अप्रसिद्ध पर्वमें ग्रहण लगनेके कारण ये सूर्य और चन्द्रमा प्रजाका विनाश करनेवाले होंगे। कृष्णपक्षकी चतुर्दशीको बड़े जोरसे मांसकी वर्षा हुई थी। उस समय राक्षसोंका मुँह रक्तसे भरा हुआ था। वे खून पीते अघाते नहीं थे।
महर्षि वेदव्यास जी की जय