सोनाली मिश्रा । क्या पश्चिम में फेमिनिज्म से उकताकर परम्परागत पत्नियों की भूमिका पुन: आरम्भ होने जा रही है? यह प्रश्न इसलिए उभर कर आया है कि पिछले दिनों एक ट्रेंड दिखाई दिया, और जिसका नाम था #tradwives। यह क्या है? और क्यों है? यह समझ नहीं आएगा! दरअसल trad का अर्थ हुआ ट्रेडिशनल अर्थात परम्परागत एवं wives अर्थात पत्नियां!
अर्थात परम्परागत पत्नियां!
अब यह परम्परागत पत्नियां क्या है? क्योंकि पश्चिम का फेंका हुआ फेमिनिज्म तो हमारे यहाँ अचानक से आता ही है। फिर यह tradwives क्या है? इसकी चर्चा क्यों भारत में नहीं हो रही है? जबकि यह आन्दोलन दो वर्ष से चल रहा है। इनके फेसबुक पेज पर दृष्टि डालने से tradwives की परिभाषा पता चलती है। इसके अनुसार tradwife का अर्थ है ऐसी शिक्षित महिलाऐं, जिनमें महिला होने के गुण हैं और पति-पत्नी के सम्बन्धों में सहज समर्पण भाव है। trad+wife दो शब्दों का मिश्रण है अर्थात ट्रेडिशनल एवं वाइफ, जो ऐसी महिलाएं हैं, जो अपने परिवार, अपने बच्चों और अपने पति के लिए जीती हैं।
कुछ वर्ष पूर्व आरम्भ हुआ यह आन्दोलन महिलाओं में फ़ैल रहा है। इन महिलाओं का कहना है कि कस्टमर्स की सेवा करने से बेहतर है पति की देखभाल करना! instagram पर इनकी प्रोफाइल में कई ऐसे पोस्टर्स हैं, जो महिलाओं की परम्परागत भूमिका अर्थात घर के प्रबंधन की बात करते हैं।
वह लोग कहती हैं कि वास्तविक महिलाऐं पितृसत्ता का समर्थन करती हैं, क्योंकि मजबूत पुरुष ही समाज के लिए आवश्यक होते हैं!
यह वह वर्ग है जो वोक (woke) होने को एक भद्दा मजाक मानता है। और स्पष्ट है कि यदि यह यूरोप में हो रहा है तो ईसाई रिलिजन के अनुसार ही हो रहा होगा। परन्तु इसे जब रिलिजन से परे होकर देखते हैं तो क्या हमें ऐसे एक आन्दोलन की आवश्यकता भारत में नहीं अनुभव होती?
भारत की महिलाओं और पश्चिम की महिलाओं की मूल स्थिति में अंतर
आज की तारीख में वोक कल्चर की गिरफ्त में न्यायपालिका तक है। भारत में फेमिनिज्म और वोक कल्चर मिलकर परिवार को उसी प्रकार नष्ट कर रहा है जैसे पश्चिम में नष्ट कर चुका है। दरअसल फेमिनिज्म पश्चिम से इसलिए आया क्योंकि वहां पर महिलाओं के लिए कार्य के घंटों एवं पुरुषों की तुलना में महिलाओं के वेतन आदि में भेदभाव था।
तथापि भारत के साथ ऐसा नहीं था। भारत में महिलाओं की स्थिति कहीं अधिक बेहतर थी। हाँ, ईसाई मिशनरी ने जिस प्रकार लिखा, और जिस प्रकार से हिन्दुओं के पठन पाठन को लेकर संकुचित दृष्टिकोण अपनाया गया, उसके कारण भारत की स्त्रियों की स्थिति बिगड़ी क्योंकि उन्होंने अपने संकुचित चश्मे से हिन्दू स्त्रियों को देखा। नहीं तो भारत में जब 1857 में अंग्रेजों को भगाने के लिए क्रांति हुई थी, उसमें भी महिलाओं ने भाग ही नहीं लिया था बल्कि बलिदान भी दिया था।
रानी लक्ष्मी बाई, झलकारी बाई, अवंतिबाई लोधी आदि नाम तो प्रख्यात हैं, परन्तु न जाने कितनी गुमनाम स्त्रियाँ हैं। साझी शहादत के फूल नामक पुस्तक में ऐसी कई स्त्रियों के नाम और संख्या दी गयी है। इनके अनुसार मात्र मुजफ्फरनगर में 255 महिलाओं को फांसी पर चढ़ाया गया था और कुछ लड़ती-लड़ती मारी गयी थीं और थानाभवन काजी खानदान की श्रीमती असगरी बेगम को पकड़ कर जिंदा जला दिया गया था।
तो बार बार यह कहना कि भारत में स्त्रियों की स्थिति बुरी थी, या उन्हें अस्त्र शस्त्र का ज्ञान नहीं था, और उनकी उद्धारक कोई अंग्रेज या मिशनरी हैं, एक ऐसे झूठ से बढकर कुछ नहीं है जो हिन्दू स्त्रियों को अपमानित करने के लिए जानबूझकर गढ़ा गया था।
एवं यह जो संघर्ष था, वह उन्होंने परिवार के साथ रहते हुए ही किया था। उनका मजबूत व्यक्तित्व कभी भी निर्बल फेमिनिज्म के जैसा नहीं था, जो परिवार को तोड़ दे। पश्चिम में महिलाओं को वर्ष 1909 में 28 फरवरी को अमेरिका में पहला राष्ट्रीय महिला दिवस मनाया गया था, जिसमें अमेरिका की सोशलिस्ट पार्टी ने 1908 में उन कपड़ों के कारखाने में काम करने वाली महिला श्रमिकों की हड़ताल के पक्ष में समर्थन व्यक्त किया था। महिला श्रमिकों ने कठिन कामकाजी स्थितियों के विरोध में आन्दोलन किया था।
और फिर वर्ष 1917 में रूस की महिलाओं ने “ब्रेड एंड पीस अर्थात रोटी और शांति” नारे के अंतर्गत हड़ताल की और प्रदर्शन किया और उन्होंने यह फरवरी के अंतिम रविवार को किया, जो ग्रेगोरियन कैलेण्डर में 8 मार्च को पड़ा था। इसके बाद रूस में महिलाओं के अधिकारों के सम्बन्ध में बातें होनी आरम्भ हुई।
जब यह पश्चिम में हो रहा था, उस समय भारत पर अंग्रेजों का राज था और अंग्रेजों की आर्थिक नीति से पूरा भारत त्राहि माम कर रहा था। बाद में वर्ष 1977 में जनरल असेम्बली ने यह संकल्प पारित किया कि सदस्य राज्यों द्वारा वर्ष में एक दिन महिलाओं के अधिकारों और अंतर्राष्ट्रीय शान्ति के लिए एक दिन समर्पित किया जाएगा तथा तभी 8 मार्च को महिलाओं के अधिकारों एवं विश्व शान्ति के लिए 8 मार्च को औपचारिक रूप से महिला दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया गया।
संयुक्त राष्ट्र के अनुसार
“अंतर्राष्ट्रीय महिला दिवस लैंगिक समानता और महिला सशक्तिकरण प्राप्त करने की दिशा में हुई प्रगति का जश्न मनाने का अवसर है, बल्कि साथ ही यह उन उपलब्धियों पर प्रकाश डालने का अवसर है तथा साथ ही दिन है कि जब दुनिया भर में लैंगिक समानता की दिशा में और अधिक गति लाई जाए।“
जबकि धर्मपाल ने द ब्यूटीफुल ट्री में भी ऐसी महिलाओं का उल्लेख किया है, जो सर्जरी किया करती थीं। और यह बात Dr Buchanan के अनुभव से कही गयी है। उसमें लिखा है कि
“Dr Buchanan heard of about 450 of them, but they seemed to be chiefly confined to the Hindoo divisions of the district, and they are held in very low estimation।There is also a class of persons who profess to treat sores, but they are totally illiterate and destitute of science, nor do they perform any operation।They deal chiefly in oils।The only practitioner in surgery was an old woman, who had become reputed for extracting the stone from the bladder, which she performed after the manner of the ancients”
अर्थात Dr Buchanan ने एक ऐसी बूढ़ी महिला को गॉल ब्लेडर की पथरी की सर्जरी करते हुए देखा जो प्राचीन चिकित्सा से सर्जरी कर रही थी और पथरियों को निकाल रही थीं!
अर्थात इससे समझ में आता है कि भारत में उस फेमिनिज्म की आवश्यकता नहीं थी, फिर भी पश्चिम की नकल के कारण भारत में वह फेमिनिज्म आया जो बन्धनों की जकडन से कथित रूप से उबरने के लिए था और उसने एकदम से ही लड़कियों को वस्तु बनाकर या तो उत्पाद बना दिया या फिर पुरुषों का प्रतिद्वंदी। और पश्चिम का सामाजिक तानाबाना छिन्न भिन्न कर दिया।
इस फेमिनिज्म ने ट्रांस, गे, लेस्बियन जैसी मानसिक विकृतियों को और भी बढ़ाया एवं प्रोत्साहित किया,
इस फेमिनिज्म ने ट्रांस, जिसके विषय में हम कई बार बात कर चुके हैं, अर्थात जिनकी लैंगिक और यौनिक पहचान भिन्न होना, और समलैंगिकों को प्रोत्साहित किया जिसके कारण और विकृतियाँ आईं। अब जब वहां पर अति हो गयी तो वहां पर अभियान आरम्भ हुआ है, और यह किसी पुरुष ने नहीं किया है। यह महिलाओं ने ही किया है। उन्होंने कहा है कि अब वह परम्परागत जीवन की ओर लौटेंगी।
जहाँ पर वह घर में रहकर अपने बच्चों और पति पर ध्यान देंगी और बाहर की दुनिया में काम के लिए कम ही निकलेंगी। ये महिलाएं वोक विरोधी हैं, समलैंगिकता की विरोधी हैं और इस बात का भी विरोध करती हैं कि महज मौज मस्ती के लिए नौकरी नहीं करनी है।
उनके फेसबुक पेज पर पति और पत्नी के प्रति परस्पर निष्ठा की बात है:
फेमिनिस्ट कर रही हैं विरोध
ऐसा नहीं है कि उनके इस कदम का विरोध नहीं हो रहा है। इस समूह को फेमिनिस्ट से बहुत विरोध का सामना करना पड़ रहा है। जैसे भारत में भी हम जैसी महिलाओं को फेमिनिज्म का विरोध करती हैं तो कहा जाता है कि हम फेमिनिज्म या अंग्रेजों के कारण पढ़ लिख पा रहे हैं, तो हंसी आती है क्योंकि भारत के विषय में उनका ज्ञान अल्प है। इन परम्परागत औरतों को भी फेमिनिस्ट यही कहकर चिढ़ा रही हैं कि अगर फेमिनिज्म नहीं होता तो क्या होता?
दरअसल इन्हें यह नहीं पता है कि फेमिनिज्म स्वयं ही कैंसर के समान है जो समाज की सकारात्मक शक्तियों को नष्ट करता है। लड़कियों को क्या पढ़ाना चाहिए, इस विषय में भारतीय वैद्य यशोदा देवी ने अपनी पुस्तक गृहिणी कर्तव्यशास्त्र अर्थात पाकशास्त्र में लिखा है कि यह विषय कन्याओं को आरम्भ से ही सिखाया जाना चाहिए कि किस ऋतु में कौन से खाद्य पदार्थ खाने चाहिए, और किस खाद्य पदार्थ की प्रवृत्ति क्या होती है?
जब से रसोई और घर के कामों को गुलामी मान लिया गया, तभी से मात्र स्वास्थ्य का सर्वनाश नहीं हुआ है, बल्कि भयंकर दुष्परिणाम हुए हैं। स्त्रियों को, और मुझे भी सहज यह ज्ञान नहीं है कि कौन सी खाद्य सामग्री की क्या प्रवृत्ति है और किसके साथ खाने से क्या लाभ देगा और क्या नुकसान करेगा?
क्योंकि फेमिनिज्म ने हमें रसोई और घर के उन साधारण कार्यों से दूर कर दिया, जो सहज प्रकृति थी स्त्री की, और ऐसे विमर्श के जाल में फेंक दिया जिसमें हमारे भाई, पिता और बेटे ही हमारे शत्रु हैं और बाहर देह की स्वतंत्रता की बात करने वाले, स्त्रियों को मात्र वस्तु समझने वाले लोग हमारे हितैषी हैं। ऐसे में जब तक लड़की को होश आता है तब तक या तो वह लव जिहाद का शिकार हो जाती है या फिर वामपंथ का!
इसलिए आवश्यक है कि हम इस बात को समझें कि समाज के लिए मजबूत पुरुष आवश्यक हैं, ऐसे पुरुष जो अपनी महिलाओं के लिए कोमल हों और जिनके पास मूल्य हों। परन्तु मूल्य कौन देगा? स्पष्ट है दिन भर ऑफिस भागने वाली स्त्रियाँ तो नहीं न? फिर कौन?
उन्हें मूल्य देंगी जीजाबाई जैसी माताएं, जो आज के फेमिनिज्म के खांचे में फिट नहीं बैठती हैं, परन्तु वही स्त्री शक्ति उदाहरण हैं।
पश्चिम में चल रहे tradwives को लोग कैथोलिक ईसाइयों का आन्दोलन कह रहे हैं, परन्तु इससे कोई फर्क नहीं पड़ना चाहिए क्योंकि वह अपने समाज के अनुसार जड़ों की ओर लौटने का आन्दोलन चला रही हैं, तो वहीं जब हम बात करेंगे तो हमारे पास तो माताओं और विदुषियों की एक लम्बी श्रृंखला है, क्यों नहीं हम भी कहते कि “चलिए, परम्परागत स्त्रियाँ बनें!” प्रयास करें, कठिन कुछ नहीं है!
जब वह लोग यह सगर्व कह सकते हैं कि दादी या नानी बनना उनके लिए गौरव की बात है, तो हम क्यों यहाँ इतनी दूर आयातित निजता की चादर में अपनी ही संतानों को दूर कर रहे हैं:
हालांकि इस आन्दोलन को व्हाईट सुप्रीमेसी भी कहा जा रहा है अर्थात श्वेत महिलाएं अन्य महिलाओं के साथ कार्य नहीं करना चाहती हैं. देखते हैं आगे इसमें क्या होता है?