विपुल रेगे। सन 2014 के बाद भारत में एक सैलाब आया, जिसमे बहुत कुछ बह गया। इस सैलाब की चपेट में मीडिया के साथ मनोरंजन उद्योग भी आ गया था। मनोरंजन उद्योग अपनी कुछ कमियों और बुराइयों के कारण हमेशा निशाने पर रहता है। हालाँकि ये सैलाब सब कुछ बदल देने वाला था। एक विराट छवि ने पत्रकारिता को बदलकर रख दिया और बॉलीवुड का स्टार सिस्टम ध्वस्त हो गया।
एक फिल्म समीक्षक होने के नाते फिल्मों की अच्छाई और बुराई सामने लाना मेरा काम है। ये कार्य मैं वर्षों से करता रहा हूँ। इसके साथ ही मैं एक हिंदुत्ववादी विचारधारा का व्यक्ति हूँ लेकिन इस नाते मैंने अपनी समीक्षाओं को कभी प्रभावित नहीं होने दिया। सन 2014 के बाद सरकार बदली तो देश का परिदृश्य तेज़ी से बदलने लगा। सरकार अपना काम कर रही थी और उनके करोड़ों समर्थक सोशल मीडिया पर ताल ठोंके बैठे थे। ये कहने में मुझे ज़रा भी हिचक नहीं है कि मैं भी उन ताल ठोंकने वालों में था। जीवन में पहली बार किसी दल और नेता का खुला समर्थन इसलिए किया कि हमें लगा कि फाइनली हमारा हीरो आ चुका है।
देश के करोड़ों लोग अकस्मात ही एक उन्मादी धुंध में प्रवेश कर गए थे। ये देश में पहली बार हो रहा था कि आपसी रिश्ते राजनीतिक दलों की रोज़ की किचकिच में ख़त्म हो रहे थे। दोस्तियां टूट रही थी। ऐसा उन्माद भारत में पहली बार देखा जा रहा था। जाने-अनजाने मेरे जैसे लेखक भी इस उन्माद में फंस चुके थे। फिल्मों और फ़िल्मी कलाकारों पर प्रहार रोज़ की बात हो चली थी। इन करोड़ों सोशल मीडिया अकाउंट्स में सक्रिय फेक अकाउंट्स के जरिये उन्माद की धुंध लगातार गहरी की जा रही थी। इतनी गहरी कि आप उस पार सत्य का सूर्य देख ही न सके। विगत आठ वर्ष में हिन्दी फिल्म उद्योग पर जबरदस्त प्रहार हुआ है। उनमे से कुछ लोग सच में बहिष्कार के लायक थे लेकिन उन लोगों का क्या, जो इन सबमे दोषी न थे।
युवा कलाकारों के लिए वर्षों की मेहनत से बनाया गया एक मजबूत प्लेटफॉर्म बाज़ारु लोगों के सस्ते कमेंट्स झेलने पर विवश था। ये धुंध इतनी फैली कि सिनेमाघर खाली हो गए। धुंध फैलाने वाले इतने संवेदनशील नहीं थे कि उस उद्योग से जुड़े गरीब और मध्यमवर्गीय लोगों के बारे में सोचते। ऐसा देश में पहली बार हुआ था कि किसी राजनीतिक दल के नेता की प्रभावी छवि के चलते आम जनता राजनीति में दाखिल हो गई। आम जनता से विपक्षी दलों का कत्लेआम करवा दिया गया। जो काम सत्तारुढ़ दल का था, वह जनता ने सोशल मीडिया पर किया। मुफ्त के कार्यकर्ता मिले तो कौन मना करेगा भला। इसका परिणाम भयानक हुआ है।
जो घर पारिवारिक चहचहाट से गुंजित होते थे, वहां राजनीतिक बहसों ने प्रवेश कर लिया। हर घर, हर परिवार एक मिशन पर चल दिया। ये मिशन क्या था, शायद उसे खुद नहीं पता होगा। एक आम आदमी मोबाइल पर अपने कई कीमती वर्ष बर्बाद कर आज कहाँ खड़ा है, ये उसे देख लेना चाहिए। जिन लोगों ने उसे ‘कार्यकर्ता’ बना दिया, वे आज कहाँ पहुंच चुके हैं, लेकिन उसकी ज़िन्दगी महंगाई से बदहाल हो चुकी है। हम भूल चुके हैं कि 2014 से पहले हम लोगों का काम बस भाषण सुनकर वोट डालना होता था। इससे अधिक हमारी ज़िंदगी में ‘राजनीति’ कभी रही ही नहीं। हमारे घर, हमारे परिवार अपना स्वाभाविक आनंद भूल वह काम करने लगे, जो इस पार्टी के कार्यकर्ताओं को करना चाहिए थे।
राजनीति और आम आदमी के एक दूसरे में घुलमिल जाने से एक ‘बैलेंस’ ख़त्म हो गया। इन दोनों में एक ज़रुरी स्वाभाविक दूरी समाप्त हो गई। अब ये लड़ाई मोहल्लों और सोसाइटीज तक जा पहुंची है। यहाँ लोग एक दूसरे को राजनीतिक दलों के समर्थकों के रुप में देखने लगे हैं। भारतीय समाज में ऐसा समय आएगा, कभी कल्पना नहीं की थी हमने। हर घर एक पार्टी कार्यालय बन चुका है। मीडिया अब ज़रुरी सवाल नहीं करता। वह ‘स्तुति’ कर रहा है या भाग चुके अपराधियों का ट्रेक पता करता रहता है। आजकल मीडिया का दिल अतीक नामक अपराधी पर आया हुआ है।
पिछले दिनों शाहरुख़ खान की ‘पठान’ रिलीज हुई और उनके कॅरियर की सबसे बड़ी हिट बन गई। फिल्म ने वर्ल्डवाइड एक हज़ार करोड़ से अधिक का कलेक्शन किया है। बॉलीवुड को इस फिल्म ने भरपूर ऑक्सीजन दी है। जब ये फिल्म रिलीज हुई तो एक उन्माद सा देखा गया। ये उन्माद फिल्म को कैसे भी फ्लॉप घोषित करने का था। आप ‘पठान’ को एक मापक बिंदु समझकर हमारे समाज की स्थिति का आंकलन कर सकते हैं। उस फिल्म की विषयवस्तु पर विवाद था, इससे इंकार नहीं है लेकिन कलेक्शन हुए और जबरदस्त हुए। सोशल मीडिया पर सक्रिय लोग सत्य को मानने को तैयार नहीं दिखते।
जिसे वे पसंद नहीं करते, उसे हिट नहीं होना चाहिए। यदि वह वास्तव में हिट हो गया है तो कैसे भी करके समाचारों, तथ्यों और कलेक्शन को ‘मीडिया बिकाऊ है’ जैसी सस्ती गाली देकर अस्वीकृति जताते हैं। उन्मादी धुंध जब आँखों के जरिये दिमाग पर कब्ज़ा बैठा ले सत्य दिखता नहीं और कोई दिखाए तो देखना नहीं चाहते। मीडिया, मनोरंजन और कला के लिए ये सबसे विकट दौर है। फेक अकाउंट्स की झरती गालियां और उलाहने कहीं एक दिन हमारी इन मूल्यवान विधाओं को जड़ से ही नष्ट न कर डाले। क्योंकि ज़हर तो अब भी डाला ही जा रहा है।