ध्यान कया है? ध्यान अपने मन के प्रति जागरूक होने की साधारण सी प्रक्रिया है। मन के साथ लड़ना नहीं, न ही इसे वश में करने का प्रयास। बस वहां होना, चुनाव रहित साक्षी। जो भी हो रहा है,उसे देखो, उसके पक्ष या विपक्ष में बिना किसी पूर्वाग्रह के। इसे कोई नाम न दो। कि यह मेरे मन में नहीं उठना चाहिये। कि यह एक घिनौना विचार है और यह बहुत सुंदर और पवित्र विचार है। तुम्हें कोई निर्णय नहीं लेना चाहिये। तुम्हें निर्णय-रहित होना चाहिये। क्योंकि जैसे ही तुम निर्णय लेते हो, ध्यान खो जाता है। तुम्हारा तादात्मय हो जाता है। या तो तुम मित्र बन जाते हो या शत्रु। तुम संबंध स्थापित कर लेते हो। ध्यान का अर्थ है अपनी विचार प्रक्रिया के साथ तादात्मय तोड़ना, पूर्णतया संबंध तोड़ना, शांत रहना, स्थिर रहना।
जो भी हो रहा है उसके प्रति साक्षी भाव रखना। और तब एक चमत्कार घटता है। धीरे-धीरे व्यक्ति बोधपूर्ण होता है कि विचार कम होते जा रहे हैं। यह ऐसा ही है मानो ट्रैफिक तुम्हारे बोध पर निर्भर करता है। जब तुम पूर्णतया बोधपूर्ण होते हो, चाहे एक मिनट के लिये ही क्यों न हो, सब विचार समाप्त हो जाते हैं। तत्क्षण अचानक सब कुछ रुक जाता है। और सड़क खाली हो जाती है। उस क्षण को ध्यान कहते हैं। धीरे- धीरे यह क्षण बार बार आने लगते हैं। वो खाली अंतराल बार- बार आने लगते हैं और लम्बे समय के लिये रहते हैं। और तुम उन खाली अंतरालों में आसानी से विचारने के योग्य हो जाते हो, बिना किसी प्रयास के। तो जब भी तुम चाहते हो तुम उन अंतरालों में प्रवेश कर सकते हो बिना किसी प्रयास के।
वे तुम्हें ताजा करते हैं , नया करते हैं और वे तुममें बोध जगाते हैं कि तुम कौन हो। मन से मुक्त होकर तुम उन सब विचारों से भी मुक्त हो जाते हो जो तुम्हारे अपने बारे में हैं। अब तुम बिना किसी पूर्वाग्रह के देख पाते हो कि तुम कौन हो? स्वयं को जानना वह सब जानना है जो जानने योग्य है। और स्वयं के बारे में न जानना कुछ भी नहीं जानना। व्यक्ति संसार के बारे में सब जान सकता है, लेकिन यदि वह स्वयं को नहीं जानता तो वह पूर्णतया अज्ञानी है। वह केवल एक चलता फिरता एन्साइक्लोपीडिया ब्रिटैनिका है। रूढ़िवादी, परम्परागत, दक़ियानूसी? वे भीड़ का अनुसरण करते हैं। वे स्वतंत्र नहीं हैं। और फिर कुछ विद्रोही लोग हैं। रूढ़िमुक्त, निरंकुश लोग कलाकार, चित्रकार, संगीतकार, कवि। उनहें लगता है कि वे स्वतंत्रता में जी रहे हैं। लेकिन यह केवल उनकी धारणा है। परंपरा के खिलाफ विद्रोह करने से ही तुम स्वतंत्र नहीं हो जाते। तुम अभी भी अपनी मूल प्रवृत्तियों के गुलाम हो।
बोध के बिना स्वतंत्रता मात्र एक खोखला विचार है। इसमें कुछ भी नहीं है। बिना बोधपूर्ण हुए तुम सचमुच स्वतंत्र हो ही नहीं सकते। क्योंकि तुम्हारा अवचेतन तुम पर हावी रहता है। तुम्हारा अवचेतन तुम्हें चलाता है। तुम सोच सकते हो, तुम यह विश्वास कर सकते हो कि तुम स्वतंत्र हो लेकिन तुम स्वतंत्र हो नहीं। तुम बस मूल प्रवृतियों, अंधी प्रवृतियों के शिकार हो। तो दो प्रकार के लोग होते हैं। अधिक लोग परंपरा, समाज, शासन का अनुसरण करते हैं। तुम काम, वासना, और महत्वाकांक्षा से ग्रस्त हो। और तुम इनके मालिक नहीं हो, तुम गुलाम हो।
इसलिये मैं कहता हूं कि स्वतंत्रता केवल बोध से आती है। जब तक व्यक्ति मूर्च्छा को जागरूकता में रूपांतरित नहीं करता, कोई स्वतंत्रता नहीं है। और इसमें बहुत कम लोग सफल हुए हैं। कोई जीसस, कोई लाओत्सु, कोई ज़राथुस्त्रा, कोई बुद्ध। बस कुछ थोड़े से लोग जिन्हें उंगलियों पर गिना जा सकता है। वे सचमुच स्वतंत्रता से जी सके क्योंकि वे बोधपूर्ण जिए। हरेक साधक का यही कार्य होना चाहिये। अधिक से अधिक बोध जगाना। तब स्वतंत्रता स्वयं ही आ जाती है। स्वतंत्रता जागरूकता के फूल की सुवास है।
‘Meditation’ is a simple process of being mindful of your mind- Osho
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