
कर्म कभी पीछा नहीं छोड़ता, मुगलों के कुकर्म का फल उनकी पीढियां आज भोग रही हैं!
वैसे तो भगवान कृष्ण ने गीता में अर्जुन से कहा था कि कर्म कभी किसी का पीछा नहीं छोड़ता, कर्म के अनुरूप फल भुगतना पड़ता है। वहीं एक कहावत है कि भगवान की लाठी में आवाज नहीं होती, इसलिए पड़ने पर चोट सुनाई नहीं देती। भारत पर आक्रमण करने के बाद यहां के हिंदुओं पर तीन सौ सालों तक राज करने वाले मुगल शासकों की बहू को आज यह दिन देखना पड़ रहा है। यह उसके पुरखों का ही कुकर्म और अत्याचार का फल है जो उन्हें आज चुकाना पड़ रहा है। कलकत्ता के शांति टॉउन की एक मैली बस्ती में रहने वाली यह हैं सुल्ताना बेगम। इन्हें देखकर क्या कोई कहेगा कि यह वही महिला हैं जिनके पूर्वजों ने इस देश पर तीन सौ सालों तक राज किया था? लेकिन सच्चाई यही है कि सुल्ताना बेगम नाम की यह महिला मुगल खानदान के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर के पर-पोते शाह जफर की पत्नी है। कहां बड़े-बड़े राजभवनों में रहने वाले इनके पूर्वज और कहां गरीबी में बसर करने वाली बेगम। अपने पुरखों के अत्याचार का फल आज इन्हें भुगतना पड़ रहा है।
जिस देश में आज भी मुगल शासकों द्वारा बनाए गए स्मारक और भवन हजारों की संख्या में बिखरे पड़े हों उसी देश में मुगल खानदान की बहू को रहने को एक घर न हो, इसे भाग्यफल नहीं कहेंगे तो और क्या कहेंगे? जिनके पूर्वजों के पास हजारों नौकर-चाकर हों उसी खानदान के वारिसों को इसलिए सरकारी नौकरी नहीं मिली क्योंकि वे अनपढ़ होने की साथ-साथ सरकारी नौकरी के लिए आवश्यक बेसिक पात्रता भी नहीं रखते! इसे तकदीर की मार नहीं कहेंगे तो क्या कहेंगे? ऐसे कई उदाहरण मिल जाएंगे जिससे साफ होता है कि उनके पूर्वजों की करनी का खामियाजा आज उनके वारिसों को उठाना पड़ रहा है।
सुल्ताना बेगम के पति मोहम्मद बेदर बख्त का देहांत 1980 में हो गया था और पति की मृत्यु के बाद उसकी गरीबी दिनोंदिन बढ़ती चली गई। हालात यहां तक पहुंच गए कि मुगल साम्राज्य की वारिस को आखिरकार एक मैली बस्ती में दो कमरों में गुजारा करने के लिए आना पड़ा। यह कलकत्ता के हावड़ा का स्लम एरिया कहलाता है। उन्हें अपने पड़ोस के साथ रसोईघर साजा करना पड़ता है। गली में ही नहाना-धोना पड़ता है और सरकारी पानी का उपयोग करना पड़ता है। एक समय था जब देश की हर वस्तु उनके पुरखों की हुआ करती थी, और आज का वक्त है जब कोई भी वस्तु उनके निजी अधिलार में नहीं है।
जब बुरा समय आता है तो पहचान भी नहीं छिपने देता। 19वीं शताब्दी के राजशाही परिवार से संबंध होने के बावजूद सुल्ताना अपने गुजारे के लिए मिलने वाली मासिक पेंशन लेने खुद जाती हैं। उन्हें प्रतिमाह साठ पाउंड (करीब 6,000 रुपये) पेंशन मिलती है। इसी रकम से वह अपनी पांच बेटियों और एक बेटे की परवरिश कर रही हैं! वह अपनी अविवाहित बेटी मधु बेगम के साथ रहती हैं। उनका कहना है कि अभी तो दोनों साथ रहती हैं लेकिन अल्लाह ही जाने कब तक ऐसे रहेंगें। सुल्ताना ने कहा कि उनकी और बेटियां हैं लेकिन वे सब अपने परिवार के साथ ख़स्ता माली हालत में जीवन बसर कर रहे हैं। उनलोगों की स्थिति ऐसी नहीं कि हमारी मदद करें। इसलिए हमें ही उनकी मदद करनी पड़ती है।
पिछले कुछ वर्षों में कुछ संस्थाओं ने सुल्ताना की आर्थिक दुर्दशा को प्रकाश में लाने का प्रयास किया ताकि सरकार देश के मुगल राजशाही खानदान की वारिस होने की वजह से उनके रहन सहन को ऊँचा उठा सके। जिस मुगल वंश से सुल्ताना का वास्ता है उसने 16 वीं, 17 वीं और 18 वीं शताब्दी के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप में एक विशाल वास्तुशिल्प विरासत बनाने में योगदान दिया था। उसी विरासत की अनूठा उदाहरण आगरा में बना ताजमहल है। मुगलों के समय में महज ताजमहल ही नहीं बल्कि दिल्ली स्थित लाल किला, आगरा फोर्ट तथा लाहोर शालीमार गार्डन बनाया था जो आज यूनेस्को विश्व की धरोहर है।
सुल्ताना ने बतााय कि उसने अपने जीवन यापन की व्यवस्था करने तथा समुचित पेंशन के लिए वर्षों तक केंद्र और राज्य सरकार से गुहार लगाई। अंत में सरकार ने उनकी पोती रोशन आरा को नौकरी दी, जिसे अभी करीब 15 हजार रुपये तनख्वाह मिलती है। हालांकि सरकार ने परिवार के अन्य सदस्यों को भी नौकरी ऑफर किया। चूंकि वे लोग अनपढ़ थे और बेसिक टेस्ट में फेल हो गए इसलिए किसी को नौकरी नहीं मिल पाई। महिलाओं के कपड़े बेचना शुरू करने से पहले वर्षों तक उन्होंने चाय बेचकर अपना गुजारा किया। उनका कहना है कि जब तक उनके पति जिंदा थे वे यही कहा करते थे कि हम राजशाही परिवार से हैं इसलिए हम भीख मांगकर जीवन यापन नहीं कर सकते।
मुगल वंश के अंतिम बादशाह बहादुर शाह जफर ही सुल्ताना के पति के परदादा थे। उन्हें मुगल वंश के अंतिम शासक के रूप में 1837 में ताज मिला। 1857 में जब भारतीय सैनिक ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ इकट्ठा हुए तो बहादुर शाह जफर को ही सेना की कमान सौंपी गई। 1858 में स्वतंत्रता संग्राम को दबाने के बाद ही बहादुर शाह जफर को बंदी बनाकर रंगून भेज दिया। जहां पांच साल रहने के बाद 87 साल की उम्र में उनकी मौत हो गई। जफर के साथ उनकी पत्नी जीनत महल को भी भेज दिया गया था, लेकिन परिवार के बाकी सदस्य यहीं रह गए। बहादुर शाह की निर्वासन के दौरान रंगून, जो आज वर्मा की राजधानी यांगून के नाम से प्रसिद्ध है, में 7 नवंबर 1862 में को मौत हो गई। उन्हें जहां दफनाया गया वह जगह आज बहादुर शाह जफर दरगाह के नाम से प्रसिद्ध है।
इसे तो ही कर्मफल कहते हैं, जिस मुगल वंश ने तीन सौ सालों तक भारत पर शासन किया हो, उसी वंश के अंतिम शासक को उस देश की मिट्टी तक नसीब नहीं हुई। उसी वंश की वारिस सुल्ताना बेगम आज अदद एक छत और गरीबी से पार पाने की जद्दोजहद में लगी हैं।
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