श्वेता पुरोहित। महाभारत में, तीर्थयात्रा पर्व में जब पांडव लोमेश ऋषि के साथ नन्दा और अपरनन्दा (अलखनंदा) नदियों की यात्रा करके हेमकूट पर्वत पर पहुँचे तो राजा युधिष्ठिर ने वहाँ बहुत-सी अचिन्त्य एवं अद्भुत बातें देखीं।
वहाँ वायु का सहारा लिये बिना ही बादल उत्पन्न हो जाते और अपने-आप हजारों पत्थर (ओले) पड़ने लगते थे। जिनके मन में खेद भरा होता था ऐसे मनुष्य उस पर्वत पर चढ़ नहीं सकते थे।
वहाँ प्रतिदिन हवा चलती और रोज-रोज मेघ वर्षा करता था। वेदों के स्वाध्याय की ध्वनि तो सुनायी पड़ती; परंतु स्वाध्याय करने वाले का दर्शन नहीं होता था । सायंकाल और प्रातःकाल भगवान् अग्निदेव प्रज्वलित दिखायी देते थे। तपस्या में विघ्न डालनेवाली मक्खियाँ वहाँ लोगों को डंक मारती रहती थीं, अतः वहाँ विरक्ति होती और लोग घरों की याद करने लगते थे। इस प्रकार बहुत-सी अद्भुत बातें देखकर पाण्डुनन्दन युधिष्ठिर ने लोमशजी से इस अद्भुत अवस्था के विषय में पूछा।
युधिष्ठिर ने कहा – महातेजस्वी भगवन्! इस परम तेजोमय पर्वत पर जो ये आश्चर्यजनक बातें होती – हैं, इसका क्या रहस्य है? यह सब विस्तारपूर्वक मुझे बताइये।
तब लोमशजी ने कहा- शत्रुसूदन ! हमने पूर्वकाल में जैसा सुन रखा है वैसा बताया जाता है। तुम एकाग्रत्ति हो मेरे मुखसे इसका रहस्य सुनो।
पहले की बात है, इस ऋषभकूट पर ऋषभ नाम से प्रसिद्ध एक तपस्वी रहते थे। उनकी आयु कई सौ वर्षों की थी। वे तपस्वी होने के साथ ही बड़े क्रोधी थे। उन्होंने दूसरों के बुलानेपर कुपित होकर उस पर्वत से कहा – ‘जो कोई यहाँ पर बातचीत करे उसपर तू ओले बरसा।’
इसी प्रकार वायु को भी बुलाकर उन तपस्वी मुनि ने कहा – ‘देखो, यहाँ किसी प्रकार का शब्द नहीं होना चाहिये।’ तब से जो कोई पुरुष यहाँ बोलता है उसे मेघकी गर्जनाद्वारा रोका जाता है। राजन् ! इस प्रकार उन महर्षि ने ही ये अद्भुत कार्य किये हैं। उन्होंने क्रोधवश कुछ कार्यों का विधान और कुछ बातों का निषेध कर दिया है।
राजन् ! यह सुना जाता है कि प्राचीन काल में देवतालोग नन्दा के तटपर आये थे, उस समय उनके दर्शन की इच्छा से बहुतेरे मनुष्य सहसा वहाँ आ पहुँचे। इन्द्र आदि देवता उन्हें दर्शन देना नहीं चाहते थे, अतः विघ्नस्वरूप इस पर्वतीय प्रदेश को उन्होंने जनसाधारण के लिये दुर्गम बना दिया।
कुन्तीनन्दन ! तभी से साधारण मनुष्य इस पर्वत को देख भी नहीं सकते, चढ़ना तो दूरकी बात है।कुन्तीकुमार ! जिसने तपस्या नहीं की है वह मनुष्य इस महान् पर्वत को न तो देख सकता है और न चढ़ ही सकता है; अतः तुम मौन व्रत धारण करो।
उन दिनों सम्पूर्ण देवताओं ने यहाँ आकर उत्तम यज्ञोंका अनुष्ठान किया था। उनके ये चिह्न आज भी प्रत्यक्ष देखे जाते हैं। यह दूर्वा कुश के आकार की दिखायी देती है भ और यह भूमि ऐसी लगती है मानो इसपर कुश बिछाये देश गये हों। महाराज! ये वृक्ष भी यज्ञयूपके समान जान मृर पड़ते हैं।
भारत! आज भी यहाँ देवता तथा ऋषि निवास करते हैं। सायंकाल और प्रातःकाल यहाँ उनके द्वारा प्रज्वलित की हुई अग्निका दर्शन होता है। कुन्तीनन्दन ! इस तीर्थ में गोता लगाने वाले मानवों का राजा सारा पाप तत्काल नष्ट हो जाता है। अतः कुरुश्रेष्ठ ! तुम अपने भाइयोंके साथ यहाँ स्नान करो।
है ना हेमकूट पर्वत कितना रहस्यमयी!