श्वेता पुरोहित। महर्षि अगस्त्य ने समुद्र के सारे जल को पीकर महासागर को जलशून्य कर दिया भगवान् विष्णु की कही बात सुनकर देवता ब्रह्माजी की आज्ञा ले अगस्त्य के आश्रम पर गये।
देवताओं को देख कर मित्रावरुण नन्दन अगस्त्य ने पूछा – ‘देवताओ! आपलोग किसलिए यहाँ पधारे हैं और मुझसे कौन सा वर चाहते हैं?’ उनके इस प्रकार पूछने पर इन्द्र को आगे करके सब देवताओं ने हाथ जोड़कर मुनि से कहा –
‘महात्मन् ! हम आपके द्वारा यह कार्य सम्पन्न कराना चाहते हैं कि आप सारे महासागर के जल को पी जायँ। तदनन्तर हमलोग देवद्रोही कालेय नामक दानवों का उनके बन्धु-बान्धवों सहित वध कर डालेंगे ‘।
दैत्यों का एक अत्यन्त भयंकर दल है जो कालेय नाम से विख्यात है। उन दैत्यों ने वृत्रासुर का सहारा लेकर सारे संसार में तहलका मचा दिया था। इन्द्रदेव के द्वारा वृत्रासुर को मारा गया देख वे अपने प्राण बचाने के लिये समुद्र में जाकर छिप गये हैं।
नाक और ग्राहों से भरे हुए भयंकर समुद्र में घुसकर वे सम्पूर्ण जगत्का संहार करने के लिये रात में निकलते तथा वहाँ बसे ऋषियों की हत्या करते हैं। उन दानवों का संहार नहीं किया जा सकता; क्योंकि वे दुर्गम समुद्र के आश्रय में रहते हैं। अतः हमको समुद्र को सुखाने की आवश्यकता है।
आपके सिवा दूसरा कौन है जो समुद्र के पूरे जल का सेवन करने में समर्थ हो । समुद्र को सुखाये बिना वे दानव काबू में नहीं आ सकते।देवताओं का यह कथन सुनकर महर्षि अगस्त्य ने कहा – ‘बहुत अच्छा’ मैं आप लोगों का मनोरथ पूर्ण करूँगा । इससे सम्पूर्ण लोकों को महान् सुख प्राप्त होगा।
ऐसा कहकर अगस्त्य जी देवताओं तथा तपःसिद्ध ऋषियों के साथ नदीपति समुद्र के तटपर गये। उस समय मनुष्य, नाग, गन्धर्व, यक्ष और किन्नर सभी उस अद्भुत दृश्य को देखने के लिये उन महात्मा के पीछे चल दिये।
फिर वे सब लोग एक साथ भयंकर गर्जना करनेवाले समुद्र के समीप गये, जो अपने उत्ताल तरंगोंद्वारा मानो नृत्य कर रहा था; और वायु के द्वारा उछलता-कूदता-सा जान पड़ता था।
वह फेनों के समुदाय द्वारा मानो अपनी हास्यछटा बिखेर रहा था; और कन्दराओं से टकराता सा जान पड़ता था। उसमें नाना प्रकार के ग्राह आदि जलजन्तु भरे हुए थे, तथा बहुत-से पक्षी निवास करते थे। अगस्त्यजी के साथ देवता, गन्धर्व, बड़े-बड़े नाग और महाभाग ऋषिगण सभी महासागर के तटपर जा पहुँचे।
समुद्र के तटपर जाकर मित्रावरुण नन्दन भगवान् अगस्त्यमुनि वहाँ एकत्र हुए देवताओं तथा समागत ऋषियोंसे बोले – ‘मैं लोकहित के लिये समुद्र का जल पी लेता हूँ। फिर आपलोगों को जो कार्य करना हो उसे शीघ्र पूरा कर लें’।
अपनी मर्यादा से कभी च्युत न होनेवाले मित्रा- वरुण-कुमार अगस्त्यजी कुपित हो सब लोगों के देखते- देखते समुद्र को पीने लगे। उन्हें समुद्र-पान करते देख इन्द्रसहित सम्पूर्ण देवता बडे विस्मित हुए और स्तुतिया द्वारा उनका समादर करने लगे।
‘लोकभावन महर्षे! आप हमारे रक्षक तथा सम्पूर्ण लोकों के विधाता हैं। आपकी कृपा से अब देवताओं सहित सम्पूर्ण जगत् विनाश को नहीं प्राप्त होगा’।
इस प्रकार जब देवता महात्मा अगस्त्य की प्रशंसा कर रहे थे, सब ओर गन्धर्वों के वाद्यों की ध्वनि फैल रही थी और अगस्त्यजीपर दिव्य फूलों की बौछार हो रही थी, उसी समय अगस्त्यजी ने सम्पूर्ण महासागर को जलशून्य कर दिया ।
उस महासमुद्र को निर्जल हुआ देख सब देवता बड़े प्रसन्न हुए। उन्होंने अपने दिव्य एवं श्रेष्ठ आयुध लेकर अत्यन्त उत्साह से सम्पन्न हो दानवों पर आक्रमण किया। महान् बलवान् वेगशाली और महाबुद्धिमान् देवता जब सिंहगर्जना करते हुए दैत्यों को मारने लगे उस समय वे उन वेगवान् महामना देवताओं का वेग न सह सके। देवताओं की मार पड़ने पर दानवों ने भी भयंकर गर्जना करते हुए दो घड़ीतक उनके साथ घोर युद्ध किया।
उन दैत्यों को शुद्ध अन्तःकरण वाले मुनियों ने अपनी तपस्या द्वारा पहले से ही दग्ध-सा कर रखा था, अतः पूरी शक्ति लगाकर अधिक-से-अधिक प्रयास करने पर भी देवताओं द्वारा वे मार डाले गये। सोने की मोहरों की मालाओं से भूषित तथा कुण्डल एवं बाजूबंद धारी दैत्य वहाँ मारे जाकर खिले हुए पलाश के वृक्षों की भाँति अधिक शोभा पा रहे थे। मरने से बचे हुए कुछ कालेय दैत्य वसुन्धरा देवी को विदीर्ण करके पाताल में चले गये।
सब दानवों को मारा गया देख देवताओं ने नाना प्रकार के वचनों द्वारा मुनिवर अगस्त्यजी का स्तवन किया और यह बात कही – आपकी कृपा से समस्त लोकों ने महान् सुख प्राप्त किया है; क्योंकि क्रूरतापूर्ण पराक्रम दिखानेवाले कालेय दैत्य आपके तेजसे दग्ध हो गये । ‘मुने ! आपकी बाँहें बड़ी हैं। आप नूतन संसार की सृष्टि करने में समर्थ हैं। अब आप समुद्र को फिर भर दीजिये। आपने जो इसका जल पी लिया है उसे फिर इसी में छोड़ दीजिये ‘।
उनके ऐसा कहने पर मुनिप्रवर भगवान् अगस्त्य ने वहाँ एकत्र हुए इन्द्र आदि समस्त देवताओं से उस समय यों कहा – ‘देवगण! वह जल तो मैंने पचा लिया, अतः समुद्र को भरने के लिये सतत प्रयत्नशील रहकर आपलोग कोई दूसरा ही उपाय सोचें।’
महर्षि का यह वचन सुनकर सब देवता बड़े विस्मित हो गये; उनके मनमें विषाद छा गया। वे आपस में सलाह करके मुनिवर अगस्त्यजी को प्रणाम कर वहाँ से चल दिये। फिर सारी प्रजा जैसे आयी थी, वैसे ही लौट गयी। देवतालोग भगवान् विष्णु के साथ ब्रह्माजी के पास गये।
इसके पश्चात बहुत समय के बाद राजा भगीरथ ने तपस्या करके अपने पितरों को स्वर्गलोक की प्राप्ति कराने के लिए गंगाअवतरण करवाया जिससे समुद्र फिर से जल से भर गया।
मित्रावरुण नन्दन महर्षि अगस्त्य की जय