व्हाट्स ऍप कर्टसी. भगवान शिव की दो अवस्थाएं बताई गई है समाधि अवस्था – अतिसंवेदनशील अवस्था शिव की निर्गुण अवस्था भी कहते है तांडव अवस्था – नृत्य अवस्था नटराज।
तांडव शब्द शिव के परिचारक तांदु से लिया गया है यह वही व्यक्ति है जिसने भरत मुनि को तांडव के सिद्धांतों से अवगत कराया था और वही सुन कर भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में तांडव का विषद उदाहरण पेश किया था, नाट्य शास्त्र में उल्लेखित संगीत, नृत्य, योग, व्याकरण, व्याख्यान आदि के प्रवर्तक शिव ही हैं।
शिवमहापुराण के अनुसार शिव के पहले संगीत के बारे में किसी को भी जानकारी नहीं थी। नृत्य, वाद्य यंत्रों को बजाना और गाना उस समय कोई नहीं जानता था, क्योंकि शिव ही इस ब्रह्मांड में सर्वप्रथम आए हैं
भगवान भोलेनाथ दो तरह से तांडव नृत्य करते हैं। पहला- जब वो गुस्सा होते हैं, तब बिना डमरू के तांडव नृत्य करते हैं।
दूसरे – तांडव नृत्य करते समय जब, वह डमरू भी बजाते हैं तो प्रकृति में आनंद की बारिश होती थी। ऐसे समय में शिव परम आनंद से पूर्ण रहते हैं। लेकिन जब वो शांत समाधि में होते हैं तो नाद करते हैं।
माना जाता है कि नाट्य शास्त्र की रचना स्वयं ब्रह्मा ने की और इसका ज्ञान उन्होंने भरत मुनि को दिया जिसको भरत मुनि ने नाट्य शास्त्र में वर्णित किया। इसी नाट्य शास्त्र में दो विशेष नृत्य के शैलियों का उल्लेख हमें प्राप्त होता है, लास्य और तांडव।
जैसा हम जानते हैं कि तांडव भगवान् शिव द्वारा किया गया एक रचनात्मक और विनाशकारी लौकिक नृत्य है, लास्य पार्वती द्वारा तांडव के समानांतर किया जाने वाला नृत्य था।
भरत मुनि ने नाट्यशास्त्र का पहला अध्याय लिखने के बाद अपने शिष्यों को तांडव का प्रशिक्षण दिया था। उनके शिष्यों में गंधर्व और अप्सराएं थीं। नाट्यवेद के आधार पर प्रस्तुतियां भगवान शिव के समक्ष प्रस्तुत की जाती थीं।
भरत मुनि के दिए ज्ञान और प्रशिक्षण के कारण उनके नर्तक तांडव भेद अच्छी तरह जानते थे और उसी तरीके से अपनी नृत्य शैली परिवर्तित कर लेते थे। पार्वती ने यही नृत्य बाणासुर की पुत्री को सिखाया था। धीरे-धीरे ये नृत्य युगों- युगान्तरों से वर्तमान काल में भी जीवंत है। शिव का यह तांडव नटराज रूप का प्रतीक है।
नटराज, भगवान शिव का ही रूप है, जब शिव तांडव करते हैं तो उनका यह रूप नटराज कहलता है। नटराज शब्द दो शब्दों के मेल से बना है। ‘नट’ और ‘राज’, नट का अर्थ है ‘कला’ और राज का अर्थ है ‘राजा’।’
वर्तमान में शास्त्रीय नृत्य से संबंधित जिनती भी विद्याएं प्रचलित हैं। वह तांडव नृत्य की ही देन हैं। तांडव नृत्य की तीव्र प्रतिक्रिया है। वहीं लास्य सौम्य है। लास्य शैली में वर्तमान में भरतनाट्यम, कुचिपुडी, ओडिसी और कत्थक नृत्य किए जाते हैं यह लास्य शैली से प्रेरित हैं। जबकि कथकली तांडव नृत्य से प्रेरित है।
शास्त्रों में प्रमुखता से भगवान् शिव को ही तांडव स्वरूप का प्रवर्तक बताया गया है। परंतु अन्य आगम तथा काव्य ग्रंथों में दुर्गा, गणेश, भैरव, श्रीराम आदि के तांडव का भी वर्णन मिलता है।
लंकेश रावण विरचित शिव ताण्डव स्तोत्र के अलावा आदि शंकराचार्य रचित दुर्गा तांडव (महिषासुर मर्दिनी संकटा स्तोत्र), गणेश तांडव, भैरव तांडव एवं श्रीभागवतानंद गुरु रचित श्रीराघवेंद्रचरितम् में राम तांडव स्तोत्र भी प्राप्त होता है।
मान्यता है कि रावण के भवन में पूजन के समाप्त होने पर शिव जी ने, महिषासुर को मारने के बाद दुर्गा माता ने, गजमुख की पराजय के बाद गणेश जी ने, ब्रह्मा के पंचम मस्तक के च्छेदन के बाद आदिभैरव ने एवं रावण के वध के समय श्रीरामचंद्र जी ने तांडव किया था।
तांडव में सृजन, संरक्षण, और विघटन ये तीनों चक्रों को दिखाया गया है। तांडव में भी एक प्रकार है रूद्र तांडव का जो कि मात्र हिंसक स्वभाव को दर्शाता है। तांडव ब्रह्माण्ड निर्माण को और ब्रह्माण्ड के विध्वंश दोनों को प्रदर्शित करने का कार्य करता है।
तांडव के विषय में जब हम बात करते हैं तो इसमें नटराज की छवि को सबसे उत्तम और उत्कृष्ट माना जाता है। कई अन्य विद्वानों का अलग मत भी है, उनके अनुसार तांदु खुद रंगमंच पर कार्य करते होंगे या लेखक होंगे और उन्हें बाद में नाट्य शास्त्र में शामिल किया गया।
भरत मुनि के नाट्य शास्त्र के चौथे अध्याय तांडव लक्षणं में 32 अनुग्रहों और 108 करणों का जिक्र किया गया है। करण अर्थात हाथ और पैर के समायोजन से नृत्य को प्रस्तुत करना। ये समायोजन नृत्य से लेकर युद्ध तक के मुद्राओं को जन्म देते हैं।
तांडव निम्नलिखित पांच सिद्धांतों पर कार्य करता है।
सृष्टि – निर्माण, विकास
षष्ठी – संरक्षण, समर्थन
संहार – विनाश, विकास
तिरोधन – भ्रम
अनुग्रह – विमोचन, मुक्ति मान्यता के अनुसार उपरोक्त लिखित बिन्दुओं के आधार पर ही पूरी श्रृष्टि का सृजन हुआ था।
तांडव के कुल सात प्रकार पाए जाते हैं
1.आनंद तांडव,- आनंदमय होकर शिव के द्वारा किया जाने वाला तांडव
2.त्रिपुर तांडव,-
3.संध्या तांडव, –
4.संहार तांडव,
5.काली तांडव,
6.उमा तांडव (सबसे भयावक
7.गौरी तांडव
तांडव के एक अन्य रूप को लास्य के रूप में जाना जाता है, यह नृत्य पार्वती द्वारा किया गया था। पौराणिक मान्यता है कि यह नृत्य शिव के तांडव के समानार्थ ही प्रस्तुत किया गया था। लास्य के शाब्दिक अर्थ सौंदर्य, ख़ुशी, काम और अनुग्रह आदि है।
लास्य को हिन्दू पौराणिक कथाओं में वर्णित अप्सराओं आदि के नृत्य को भी कहा जाता है भगवान श्री कृष्ण को भी नटवर कहा जाता है इसके पीछे की एक कथा है कि जब आनंदमय होकर शिव तांडव कर रहे थे
तब माँ काली उनके उस रूप को देखकर बड़ी प्रसन्न हुई उन्होंने शिव से कहा आपके नृत्य से में बड़ी प्रसन्न हुई में चाहती हु की आप कोई वर प्राप्त करे शिव जी कहते है कि हे देवी में चाहता हु की मेरे ये नृत्य रूपों का वर्णन धरती माँ तक पहुँचे आप ऐसा कुछ करिए कि पृथ्वी के प्राणी भी इस को देख सके किंतु में अब तांडव से विरक्त होकर के अब केवल रास करना चाहता हु
भगवान शिव की बात सुनकर तत्क्षण भगवती काली ने समस्त देवताओं के विभिन्न रूपो में अवतरित होने का आदेश दिया माँ काली फिर श्याम का रूप लेकर वृंदावन आयी और भगवान शिव ने ब्रज में राधा के रूप में अवतार ग्रहण किया दोनों ने देव दुर्लभ नृत्य रास लीला का आयोजन किया तभी से भगवान शिव के नटराज की उपाधि भगवान श्री कृष्ण को प्राप्त हुई।
इसके साथ ही योग विशेषज्ञ बताते है कि ताडंव के दौरान की जाने वाली मुद्राएं पैर के तलवे और भुजाओं पे दवाब डालती है इससे मस्तिष्क की कोशिकाओं पर असर पड़ता है कोध्र या भावशून्य या सारे विकारों से मुक्ति बदले में प्रतिक्रिया स्वरूप होते है अतः तांडव नृत्य के साथ साथ एक उच्च कोटि का योगासन भी है सलंगित चित्र तमिलनाडु का रामप्पा मंदिर है यहा तांडव की 108 मुद्राओं का बड़ी सुंदरता से वर्णन है
Bahut sundar hai.