श्वेता पुरोहित। पण्डित मदनमोहन मालवीयजी सफल काम हो चुके थे। हिन्दू-विश्वविद्यालय स्थापित हो चुका था और वे स्वयं उसका सुसंचालन कर रहे थे। कलकत्ता यूनिवर्सिटी के वाइस चांसलर का एक दिन एक पत्र पण्डित मालवीय जी को मिला, जिसमें लिखा था- ‘कलकत्ता यूनिवर्सिटी आपको डॉक्टरेट की सम्मानित उपाधि से अलंकृत करके गौरवान्वित होना चाहती है। आशा है, आप अपनी स्वीकृति से मुझे शीघ्र सूचित करेंगे।’ एक क्षणका भी विलम्ब न कर मालवीय जी ने स्वयं अपने हाथ से लिखकर उस पत्र का उत्तर दिया- “मैं जन्म और कर्म से ब्राह्मण हूँ। ब्राह्मणके लिये ‘पण्डित से बढ़कर अन्य कोई उपाधि नहीं हो सकती। ‘डॉक्टर मदनमोहन’ कहलाने की अपेक्षा मैं ‘पण्डित मदनमोहन’ कहलाना अधिक पसन्द करूँगा। आशा है, आप इस ब्राह्मणकी इस भावना का आदर करेंगे।”
वृद्ध मालवीय जी वाइसराय की कौंसिल के वरिष्ठ काउंसिलर भी थे। उनकी गहन और तथ्यपूर्ण आलोचनाओंके बावजूद वाइसराय उनकी मेधा, मधुरता, सज्जनताके बहुत कायल थे। एक विशेष मुलाकातमें वाइसरायने कहा – “पण्डित मालवीय! हिज मैजिस्टीकी सरकार आपको ‘सर’ की उपाधिसे अलंकृत करना पसन्द करेगी। क्या आप उसे स्वीकार करेंगे ?” मालवीयजीने तुरंत उत्तर दिया- “महामहिम! धन्यवाद, किंतु ब्राह्मणके लिये। ‘पण्डित’ की उपाधि ही सर्वोपरि उपाधि है, जो मुझे वंशपरम्परासे ही प्राप्त है।”
काशी के पण्डितों की सभा द्वारा ‘पण्डितराज ‘की उपाधि दिये जानेके सुझावपर उस देवताने कहा था- “पण्डितकी उपाधि विशेषणातीत है। मुझे ‘पण्डित’ ही रहने दीजिये।”
जब भी किसी ब्राह्मण विद्वान्के नामके पूर्व ‘डॉक्टर’ शब्दका प्रयोग होता है, मुझे पण्डित मदनमोहन मालवीयजीकी याद आ जाती है।
डॉ० भगवानदाससे एक बार उन्होंने कहा था- “ब्राह्मणेतर किसी भी विद्वान्के नामके पूर्व ‘डॉक्टर’ शब्दका प्रयोग शोभनीय है, परंतु एक ब्राह्मण विद्वान्के नामसे पूर्व ‘डॉक्टर’ शब्दके प्रयोगमें मुझे बहुत हल्कापन सा प्रतीत होता है। “
वे देवता अपने जीवनके अन्तिम क्षणतक विशुद्ध ब्राह्मण और शुद्ध पण्डित ही बने रहे। कभी स्वप्नमें भी उन्होंने किसी अन्य उपाधि अथवा विशेषणकी कामना नहीं की।
—विद्यानन्द ‘विदेह’
साभार श्वेता पुरोहित के फेसबुक वॉल से