मालूम था की जाना तो है सबको एक दिन,
लेकिन यूँ अचानक चले जाओगे ये सोचा न था।
जीने की सौ वजहें भी क्यों कम सी पड़ गयीं,
जान देने की एक ही वजह क्यों सब पर भारी पड़ गयी।
तुम एक क्या टूट कर बिखरे,
हज़ारों के ख्वाब भी बिखर गए।
ज़िन्दगी की जंग क्या हारी तुमने,
सबकी जीत की चाहत भी हार गयी।
मिसाल बने थे तुम तो,
सपनो को हक़ीक़त में बदलने की।
मिसाल तो अब भी बनोगे,
एक सपने के सहम कर डर जाने की।
खुद की चाहत से नहीं चलती है ज़िन्दगी आखिर,
झेलनी पड़ती हैं बंदिशें दिल को,
हासिल मुकाम करने की खातिर।
ये क्या किया तुमने सुशांत?
तुम हार कर भी उनको जिता गए।
दूसरों के कर्मों की सजा,
तुम खुद क्यों पा गए?
तौहीन की तुमने उस ज़िन्दगी की,
जो औरों के लिए ख़्वाब थी।
लोग तो बंजर में भी,
फ़ूल उगाने को जिए चले जाते है।
रह जाता नहीं कुछ भी अपना,
इस मुकाम पर पहुंच कर।
हम सब के थे तुम तो,
क्यों गए इस तरह चाहत को ठुकरा कर के।
नाज़ होता था जिनको तुम्हारी शोहरत की बुलंदिओं से,
आज घेर दिया क्यों उनको अबूझ सवालों के घेरों से।
सुशांत दुःख तो बहुत है पर नाज़ नहीं है तुम पर,
बात तो तब थी जब चालों को मात दे तुम बाज़ी ही उलट देते।
” क्या करें उस प्रतिभा व् ज्ञान का परचम नाप कर,
जब परीक्षा ही छोड़ दी तुमने जिंदगी से हताश होकर। “
दीप्ति कुलश्रेष्ठ
Beautiful..very touching..