‘तांडव’ प्रकरण में भारत की सरकार जनभावनाओं का आंकलन ठीक से नहीं कर सकी है। वेब सीरीज के निर्देशक अली अब्बास ज़फर की गिरफ्तारी न होने पर आक्रोशित जनता और संत समाज सड़कों पर है। किसानों को हर दिन उनके खेमे में जाकर समझाने वाली सरकार ‘तांडव’ के मामले में नागरिकों से बात करने के लिए तैयार नहीं दिखती। जब कोई सरकार इस तरह जन भावनाओं का अनादर करती है तो उसकी अजर-अमर लोकप्रियता पर काले दाग पड़ने लगते हैं।
प्रकाश जावड़ेकर के कारण मोदी सरकार पर अलोकप्रियता के काले बादल छाने लगे हैं। ‘तांडव’ मामले में कोई ठोस कार्रवाई न होती देख संत समाज भी चिढ़ गया है और आंदोलन की चेतावनी दे रहा है। देश का मीडिया ‘तांडव’ के विरोध में उतरे लोगों को सलाह दे रहा है कि कानून पर भरोसा रखें, सड़क पर पैनिक न फैलाए। ऐसी सलाह उसने पंजाब के किसानों को नहीं दी, जो पिछले 56 दिन से किसान बिल के विरोध में उतरे हुए हैं।
इस घटनाक्रम को ध्यान से देखें तो अनुभव हो रहा है कि केंद्र मीडिया के साथ मिलकर तांडव प्रकरण को जल्द से जल्द निपटाना चाहता है। स्पष्ट है कि फिल्म निर्देशक की माफ़ी और फिल्म के दृश्य काटने से लोगों का गुस्सा शांत होता नहीं दिख रहा। उत्तरप्रदेश पुलिस द्वारा कड़ी कार्रवाई की आशंका के चलते जिस ढंग से मामले की लीपापोती की जा रही है, उससे लोग और क्रोधित हो गए हैं। बहुत जल्दी ये प्रश्न भी उठेगा कि क्या या अली को धर्म विशेष का होने के कारण गिरफ्तार नहीं किया गया। भारत में विशेष रूप से मनोरंजन उद्योग के शांतिदूत अभिनेताओं के साथ सरकारें और न्यायालय नरमी से पेश आता है।
सलमान खान को ही ले लीजिये। काला हिरण शिकार मामले में न्यायालय ने अभी पांच दिन पहले सलमान को कोर्ट में हाज़िरी लगाने से छूट दे दी। वकील ने कहा सलमान को शूटिंग करनी है, इसलिए वे कोर्ट नहीं आ सकते। न्यायालय ने तुरंत छूट प्रदान कर दी। न्यायालय उन लोगों को नहीं देखता जो दशकों से एक हत्यारे को सज़ा दिलवाने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।
अली अब्बास जफ़र को आसानी से छोड़ दिए जाने के बाद ये तथ्य और भी प्रबल हो जाता है कि भारतीय सिस्टम यहाँ प्रभावशाली लोगों का धर्म देखकर आचरण करता है। यदि तांडव प्रकरण में गिरफ्तारी हो जाती तो ये ओटीटी प्लेटफॉर्म के लिए एक सबक होता। जब कोई सरकार मीडियाई ट्रायल से भयभीत होने लग जाए तो अली जैसे टुच्चे निर्देशकों को अभय दान तो मिल ही जाएगा। भारतीय संविधान में सबके अपने अधिकार हैं।
ऐसे ही अधिकार हिन्दुओं को भी अपने धर्म की रक्षा के लिए मिले हुए हैं। जब संत समाज अपने इस अधिकार का प्रयोग कर अली की गिरफ्तारी की मांग करता है तो क्या गलत करता है। क्यों केंद्र सरकार प्रकाश जावड़ेकर के कार्यों की समीक्षा नहीं करती। केंद्र को कैसे बताया जाए कि उनके ये प्रिय मंत्री महोदय जनता का मूड भांपने में सदा ही नाकाम रहे हैं।
आखिर ऐसा कौनसा रास्ता है, जिससे हम देश के प्रधानमंत्री को बता सके कि उनके कार्यकाल में भारत तो आगे बढ़ रहा है लेकिन सांस्कृतिक आतंकवाद को वे एक दिन के लिए भी रोक नहीं सके हैं। अभी तो ओटीटी पर ऐसी फिल्मों का ढेर लगने वाला है। भविष्य में जनता का आक्रोश और बढ़ेगा। प्रकाश जावड़ेकर जिस तरह से चुपके-चुके बॉलीवुड की सहायता कर रहे हैं, उससे क्रोध और बढ़ता जा रहा है।
केंद्र सचेत हो जाए तो बेहतर। केंद्र को समझना चाहिए कि देश के किसान, शाहीनबाग के उत्पाती महत्वपूर्ण हैं तो यहाँ के हिन्दू भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं। वे ये सोचकर निराश है कि हिन्दू हितैषी सरकार का कोई प्रतिनिधि तांडव के मामले पर उनसे बात करने नहीं आया, जबकि किसानों से भेंट करने आधा मंत्रिमंडल दौड़ा जाता है। सभी को बराबर तौलिये केंद्र सरकार।
ये बात सत्य है पर सिद्ध होने से पूर्व मंत्री जी जाग जायेंगे, तो समस्त लोगों के हित में है। हम संस्कृति को ऐसे असहाय नहीं। छोड़ सकते आवाज उठाते रहेंगे जरूरत पड़ी तो और भी बहुत कुछ उठा लेंगे।