श्वेता पुरोहित। ॥ श्री भविष्य महापुराणम् ॥
चित्रगुप्तश्च भगवान् धर्मवाक्यैः प्रबोधयन्।
भो भो दृष्कृतकर्माणः परद्रव्यापहारिणः।।
गर्विता रूपवीर्येण परदारविमर्दकाः ।॥
यत्स्वयं क्रियते कर्म तत्स्वयं भुज्यते पुनः।
तत्किमात्मोपघातार्थं भवद्भिर्दुष्कृतं कृतम् ॥
इदानीं किं प्रतप्यध्वं पीड्यमानाः स्वकर्मभिः।
भुञ्जध्वं स्वानि कर्माणि नात्र दोषोऽस्ति कस्यचित् ।।

भगवान् चित्रगुप्त अपने धर्मवाक्यों द्वारा प्राणिगण को प्रबोधित करते हैं- “हे दुष्कृतकर्मी! तुमने दूसरे के द्रव्य का अपहरण किया है। अपने रूप-वीर्य से गर्वित होकर परस्त्रीगमन किया है। प्राणी जो कर्म करता है, उसे उसका फलभोग निश्चित रूप से भोगना पड़ता है। तुम लोगों ने आत्मा का घात करने वाला दुष्कर्म क्यों किया? अब अपने ही दुष्कर्मों का फल पाने के कारण क्यों पीड़ित हो रहे हो? तुम अपने कृतकर्मों का फल भोग करो। इसमें किसी का दोष नहीं है।॥
ये शिवायतनारामवापीकूपमठाङ्गणात्।
अभिद्रवन्ति पापिष्ठा नरास्तत्र वसन्ति च।। व्यायामोद्वर्तनाभ्यङ्गस्नानमापानभोजनम्।
क्रीडनं मैथुनं द्यूतमाचरन्ति रमन्ति च ॥
ते बाधैर्विविधैर्घोरैरिक्षुयन्त्रादिपीडनैः।
निरयाग्निषु पच्यन्ते यावदाचन्द्रतारकम्।।
ये शृण्वन्ति गुरोर्निन्दां तेषां कर्णः प्रपूर्च्यते।
अग्निवर्णैरयः कीलैस्तप्तताम्रादिभिद्रुतैः ।।
त्रपुसीसारकूटाद्यैः क्षारेण जतुना पुनः।
क्रमादापूर्यते कर्णो नरकेषु च यातनाः।।
अनुक्रमेण सर्वेषु भवन्त्येताः समन्ततः ।।

अर्थात्:
जो पापी शिवालय, बाग, बावली, कूप, मठ को नष्ट करके वहाँ गृह बनाकर रहता है, अथवा ऐसे स्थान पर व्यायाम, उबटन, अभ्यङ्ग स्नान, पान, भोजन, क्रीड़न, मैथुन तथा द्यूत-क्रीड़ा करता है, वह अनेक घोर यातना सहता है तथा कोल्हू में पेरा जाता है, तब तक नरकाग्नि में तप्त किया जाता है, जब तक चन्द्र-तारक की स्थिति रहती है। जो गुरुनिन्दा सुनते हैं, उनके कर्णद्वय में आग के सामान तपी कील, सन्तप्त ताम्र, सीसे के टुकड़े भर कर ऊपर से तप्त लौह छोड़ा जाता है। इस प्रकार उसकी समस्त देह का यमदूत पीड़ित करते रहते हैं। इसमें समस्त इन्द्रियाँ यातना से पीड़ित बनी रहती है। इस प्रकार सभी पापियों को यातना भोगनी पड़ती है।॥
सर्वेन्द्रियाणामप्येवं क्रमात्पापेन यातनाः।
भवन्ति घोराः प्रत्येकं शरीरे तत्कृतेन च।॥
स्पर्शलोभेन ये मूढाः संस्पृशन्ति परस्क्रियम्।
तेषां त्वगग्निवर्णाभिः सूचीभिः पूर्वते भृशम्॥
ततः क्षारादिभिः सर्वैः शरीरमनुलिप्यते।
यातना च महाकष्टा सर्वेषु नरकेषु च ॥
गुरोः कुर्वन्ति भुकुटिं क्रूरं चक्षुश्च ये नराः।
परदारांश्च पश्यन्ति लुब्धाः स्निग्धेन चक्षुषाः॥ सूचीभिरग्निवर्णाभिस्तेषां नेत्रं प्रपूर्यते।
क्षाराद्यैश्च क्रमात्सर्वैर्देह सर्वाश्च यातनाः ।।
देवाग्निगुरुविप्राणां येऽनिवेद्य प्रभुञ्जते। लोहकीलशतैस्तप्तैस्तज्जिह्वास्यं प्रपूर्यते ॥

अर्थात्:
दण्डभोग द्वारा समस्त इन्द्रियाँ यातनाओं से व्याकुल रहती हैं। यहाँ पर प्रत्येक व्यक्ति को घोर यातना पापों के कारण मिलती है। जिस मूढ़ ने स्पर्श लोभ में पड़कर परस्त्री का स्पर्श किया है, उसकी त्वचा अग्नि में तप्त सूचिका से विदीर्ण की जाती है। यमगण उस पर क्षारप्रभृति कष्टप्रद द्रव्यों का लेपन करते हैं। इससे वह समस्त नरक यातना का अनुभव करता है। जो पुरुष अपने गुरु के प्रति क्रूर भुकुटी करता है तथा उनको क्रूर दृष्टि से देखता है, पराई नारी को लुब्ध दृष्टि से देखता है, उसके नेत्र में अग्नि की तप्त सूई डाली जाती है। उस पर क्षार पदार्थों का लेपन करके क्रमशः पूरी देह में यातना प्रदान की जाती है।॥
भोगभूमिः स्मृतः स्वर्गः कर्मभूमिरियं मता।
इह यत्क्रियते कर्म स्वर्गे तदुपभुज्यते ॥
यावत्स्वास्थ्यं शरीरस्य तावद्धर्म समाचर ।
अस्वस्थश्चातियत्लेन न किञ्चित्कर्तुमुत्सहेत् ।।
स्वर्ग तो भोगभूमि है। यह (भारत) कर्मभूमि है। इस कर्मभूमि में प्राणी जो शुभ कर्म करता है, स्वर्ग में उसी का वह भोग करता है। जब तक शगैर ठीक है, तब तक धर्म का आचरण करना चाहिये, अस्वस्थ व्यक्ति अतीव यत्न करने पर भी कुछ नहीं कर सकता।।