विपुल रेगे। देश के दूसरे प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री की प्रासंगिकता आज तक बनी हुई है। इतने प्रासंगिक तो उनके समकालीन महात्मा गांधी भी नहीं रहे होंगे। शास्त्री जी के जन्मदिन पर देश उन्हें याद करता है। ये याद करना वैसी ही एक रस्म बन गया है, जैसे हमारे देश में आज ध्वज फहराया जाता है। भारत में अनमोल राजनीतिक व्यक्तित्वों का चुनावी दोहन आज भी बदस्तूर जारी है। शास्त्री जी को एक मापदंड बनाकर आप देख सकते हैं कि आर्थिक सम्पन्नता की ओर बढ़ता ये राष्ट्र अपने मूल्यों को चिता लगाता जा रहा है।
आज देश के युवाओं को जो राष्ट्र मिला है, ये सदा से ऐसा नहीं हुआ करता था। अंग्रेज़ों द्वारा श्रीहीन और धन विहीन किये जाने के बाद भारत की उन्नति और आत्मसम्मान पूर्ण रुप से भारत के राजनेताओं के हाथ में था। देश की स्वतंत्रता एक ऐसा बिंदु था, जहाँ से भारत को नैतिक रुप से संपन्न और विश्वगुरु बनने की नींव डाली जा सकती थी। पीछे पांच सौ साल के विध्वंस के बाद भारत का उठ खड़ा होना एक ऐतिहासिक घटना थी। ब्रिटिश दासता से मुक्त होकर भारत बस उठकर दौड़ने ही जा रहा था लेकिन बीच में भारत की व्यक्तिवादी राजनीति आ गई। राजतंत्र से मुक्त हुआ भारत लोकतंत्र के मार्ग पर चल पड़ा था।
नेहरु काल में ही ‘नेपोटिज्म’ के रोग ने भारतीय राजनीति में प्रवेश कर लिया था। ये नेपोटिज्म आगे चलकर भारत के तंत्र में ऐसा घुल मिल जाने वाला था कि बहुत साल बाद किसी अयोग्य नेता पुत्र के क्रिकेट संघ के अध्यक्ष बनने के बाद देश की जनता ने इसे बेहिचक स्वीकार कर लिया था। लाल बहादुर शास्त्री ऐसे समय पर हमें बहुत याद आए। नेहरु ने इस देश की जनता को बताया कि देश के प्रधान को शानौ शौकत से रहना चाहिए। वह शानौ शौकत आज तक बदस्तूर जारी है। आज हम पार्षद स्तर के नेताओं का ऐश्वर्य भरा सार्वजनिक जीवन देखते हैं लेकिन प्रश्न नहीं करते।
महंगी गाड़ियों से युक्त इनके काफिले निकलते देख लगता है कि राजतन्त्र तो पुनः दूसरे रास्ते से भारत में प्रवेश पा गया है। आजकल देश के लिए युद्ध करने का चलन चला गया है। आजकल की सरकारें सर्जिकल स्ट्राइक द्वारा यश कमाने की चाह रखती है। सन 1964 में जब लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री के रूप में देश की कमान संभाली, तब भारत गेहूं संकट और अकाल की चुनौती का सामना कर रहा था। जब 1965 में पाकिस्तान ने घुसपैठ की तो शास्त्री जी ने बिना हिचक पाकिस्तान पर हमले का आदेश दे दिया था। शास्त्री से लेकर अटल बिहारी बाजपेयी तक कम से कम युद्ध करने में देश के प्रधानमंत्रियों ने फ्रंट पर चुनौती देने का साहस दिखलाया, जो आज के नेतृत्व में दिखाई नहीं देता।
लाल बहादुर शास्त्री ने एक बार एक कपड़ा मिल से 500 रुपये की साड़ी खरीदने से मना कर दिया था क्योंकि अपने वेतन से वे ऐसी फिजूलखर्ची नहीं कर सकते थे। आज के दौर में देश के प्रधानमंत्री लोगों के लिए कोई घोषणा करते हैं तो ऐसा जताते हैं कि ये धन वे अपने घर से दे रहे हो। अटल जी के ज़माने से देश के प्रधानमंत्रियों ने सादगी से रहना छोड़ दिया था। अटल बिहारी तो फिर भी ग्लेमर से दूर रहे लेकिन आज के प्रधानमंत्री को देखकर ऐसा नहीं कहा जा सकता। आज के प्रधानमंत्री तो देश के सबसे ग्लैमरस प्रधान हैं। देश के राजनीतिज्ञों का ग्लैमर भरा जीवन देख विदेश से आए किसी पत्रकार को आसानी से ये गुमान हो सकता है कि भारत सोने की चिड़िया है।
आज देश की पहचान हमारा आम आदमी नहीं, बल्कि हुक्मरान बन गए हैं। जबकि देश का आम नागरिक आज भी छोटी-छोटी आवश्यकताओं के लिए संघर्ष कर रहा है। सत्तर वर्ष से अधिक का लोकतंत्र शनैः शनैः राजतन्त्र बन गया है। पिछले नौ वर्ष से आई सरकार के कार्यकाल में भी आम नागरिक को सम्मान मिले, ऐसा दिखाई नहीं दे रहा। लाखों के कोट और करोड़ों की जन सभाओं की अय्याशियां अब भी चल रही है। घोटाले आज भी जारी है, बस सरकार और मीडिया को नहीं दिखाई देते। देश का धन और प्रभाव राजनेताओं और बिजनेस घरानों के कब्जे में है।
हर 2 अक्टूबर को महात्मा गाँधी और लाल बहादुर शास्त्री को याद करने से वे प्रासंगिक नहीं हो रहे हैं। शास्त्री आज इसलिए प्रासंगिक हैं क्योंकि उनके जैसा एक भी नेता हमारे पास नहीं है। ‘शास्त्री विहीन’ इस भारत को ऐसा शासक चाहिए, जो एक किसान की मौत पर उतना ही दुःखी हो, जितना वह एक दलित छात्र की कायराना आत्महत्या पर होता है। वह मणिपुर में स्त्रियों की दशा पर वैसा ही प्रश्न करें, जैसे वह किसी अभिनेत्री की तबियत खराब होने पर करता है। भारत अब भी प्रतीक्षारत है कि उसका नायक कब आएगा।