श्वेता पुरोहित-
🌼 सत्यमय जीवन 🌼
साधनकी बातें जब जीवनमें उतरें तब जीवनकी सच्चाई है। और, जीवनमें उतरी हुई चीज उसी प्रकारका जीवन बना देती है। साधन जीवनका स्वरूप बन जाता है।
युधिष्ठिर और दुर्योधनके बर्तावकी बात है, महाभारतकी नहीं, अन्यत्रकी है। युद्ध समाप्त हो गया। अब केवल दुर्योधनका वध शेष है। दुर्योधनके मरे बिना पाण्डवोंकी विजय कैसे होती ? दुर्योधनका वध करनेके लिये भीमसेन कृतसंकल्प हैं और दुर्योधन बचना चाहते हैं। दुर्योधन माँके पास गया। गान्धारी मैयामें तो पातिव्रत्यका परम प्रताप था। एक बार क्रोधकी आँखोंसे उन्होंने देख लिया तो युधिष्ठिरके नख जल गये। इसी प्रकार उनका प्रबल तेज था। माँने तो पहलेसे ही आशीर्वाद देना बंद कर दिया था। जिस दिन द्रौपदीकी साड़ी उतरी, उस दिन माँ गान्धारीने कह दिया कि अब आशीर्वाद नहीं देना है। कौरवोंका विनाश होगा। कुलवधूपर उन्होंने अत्याचार किया है। वे नहीं बचेंगे। माँ गान्धारीके पास दुर्योधन पहुँचा और बोला- माँ, मैं बचना चाहता हूँ।
गान्धारीके पास चीज थी पर अपने मुँहसे गान्धारी कैसे कहे ? गान्धारीने कहा- बेटा बचना चाहते हो तो युधिष्ठिरके पास जाओ, उनसे पूछो। यह समझमें आने लायक बात नहीं है; जिनसे साक्षात् युद्ध है युधिष्ठिरकी विजय दुर्योधनके वधपर है। सारा युद्ध समाप्त हो चुका है। अब दुर्योधन अपना वध न होनेका उपाय पूछने जाय युधिष्ठिरके पास ? यह बात किसी भी राजनीतिज्ञके समझमें नहीं आ सकती। मूलतः यह तो राजनीतिकी चीज नहीं, राजनीतिके संसारसे बिलकुल अलग चीज है। ऐसा भी कहीं हो सकता है क्या ? कल्पनातीत बात है। दुर्योधनने माँकी बात मान ली। निर्भय हो दुर्योधन युधिष्ठिरके पास पहुँचा। युधिष्ठिरने स्वागत किया-आओ भाई! आओ, बैठो। बड़े प्रेमसे बैठाया। कहा- बोलो, भैया! मेरे लायक कुछ काम बताओ। इसपर दुर्योधनने कहा- भाई! एक कामसे आया हूँ। युधिष्ठिर बोले- क्या काम ? साफ कह दिया कि भीम मुझे मारना चाहता है और मैं बचना चाहता हूँ। आप कोई उपाय बतायें जिससे मैं बच जाऊँ,भीमसेन मुझे न मार सकें। मेरा सारा शरीर वज्रका हो जाय, मुझे कोई आघात न लगे।
इसपर महाराज युधिष्ठिरने निःसंकोच और बड़ी सरलतासे कह दिया-उपाय है, भैया! माँ गान्धारीके पास जाओ और माँसे कह दो कि एक बार आँखोंकी पट्टी खोल दें और तुम वस्त्ररहित हो जाओ। माँ एक बार आँखोंसे तुम्हारे अङ्गोंको देख लेंगी तो तुम्हारे अङ्ग वज्रके हो जायँगे, फिर भीमकी ताकत नहीं कि तुम्हें मार सके। दुर्योधनने बात सुन ली। विश्वास हो गया इसलिये कि युधिष्ठिर झूठ नहीं बोलते, सत्य कहते हैं। युधिष्ठिरके सम्बन्धमें दुर्योधनके मनमें भी यह विश्वास है कि यद्यपि युधिष्ठिर मेरे शत्रु हैं फिर भी वे सत्य कहेंगे, झूठ नहीं बोलेंगे। इस विश्वासके आधारपर दुर्योधन गया था और युधिष्ठिरने सच्ची बात बता दी। दुर्योधन वहाँसे लौटने लगा तो भगवान् कृष्णने देखा कि थोड़ेमें बना-बनाया सारा काम खत्म हो जायगा। इसलिये युक्तिसे काम लिया।
वे दुर्योधनसे रास्तेमें मिले और पूछा- दुर्योधनजी ! कहाँ पधारे थे ? दुर्योधनने सत्य कह दिया कि मैं युधिष्ठिरके पास गया था। क्यों गये थे ? बताया- यह पूछने गया था कि मेरा शरीर वज्रका कैसे होगा ? भगवान्ने पूछा- उन्होंने क्या बताया ? दुर्योधनने युधिष्ठिरकी बात ज्यों-की-त्यों बताते हुए कहा-माँ गान्धारीके सामने वस्त्रहीन होकर चले जाओ और माँसे कह दो कि पट्टी खोलकर एक बार देख लें तो पूरा शरीर वज्रका हो जायगा। भगवान् कृष्ण बोले-बिलकुल सत्य बात है। युधिष्ठिरने सत्य ही कहा है, माँ गान्धारीकी आँखमें यह शक्ति है, फिर भी दुर्योधनजी! आप इतने शूर वीर, फिर आप मृत्युके भयसे इस अवस्थामें माँक सामने नंगे होकर जायँगे, शरम नहीं आयेगी आपको ! दुर्योधनने कहा- महाराज ! बात तो ठीक कही आपने। लेकिन इसके अतिरिक्त कोई उपाय भी नहीं दीखता। श्रीकृष्ण बोले- कोई बात नहीं, उनकी भी बात रह जाय और आपका भी काम हो जाय। इसलिये आप कटिसे नीचे और जहाँतक जंघा प्रान्त ढक जाय, उतना वस्त्र पहन लें और फिर चले जायँ माँके पास।
दुर्योधनने कहा- ठीक है। बात समझमें आ गयी। भगवान् की मायाका खेल था। दुर्योधनकी मति फिर गयी। युद्धसे पूर्व अर्जुनके साथ भी ऐसा ही हुआ था। वह मोहके वशीभूत हो गया था, तब भगवान्ने कहा- ‘निमित्तमात्रं भव सव्यसाचिन्’ (गीता ११ । ३३) हे सव्यसाचिन् ! तुम निमित्तमात्र बनो। तुम कौन करनेवाले हो, उसपर भी अभिमान करते हो कि युद्ध नहीं करूँगा, नहीं लड़ेंगा। मैंने इन सबको पहले ही मार रखा है। ‘मयैवैते निहताः पूर्वमेव’ (गीता ११। ३३) देखना हो तो देख लो मेरी दाढ़ोंमें – ‘चूर्णितैरुत्तमाङ्गैः’ (गीता ११। २७) उत्तम उत्तम सारे अङ्ग चूर्ण-विचूर्ण हो रहे हैं। तुम निमित्त हो। तुम कौन मारनेवाले और तुम कौन न मारनेवाले ? युधिष्ठिर चाहे कह दें, चाहे गान्धारी देख लें, पर श्रीकृष्ण जो चाहते हैं वही होगा, दूसरा कैसे होगा ?
दुर्योधनकी बुद्धि पलट गयी। जाँघियाँ पहनकर गया माँके सामने। माँसे कहा कि पट्टी खोलो। उस समय दुर्योधन उस बातको भूल गया कि भीमने प्रतिज्ञा की थी कि तुम्हारी जाँघको तोड़ेंगा। इसलिये युद्धका वह नियम-कटिसे नीचे गदा न मारनेका, यहाँ नहीं लागू हो सकता। भीमकी प्रतिज्ञा थी पर भूल गया, भगवान् की मायासे भूल गया। माँके सामने गया जाँघको ढककर। माँने आँख खोली और कहा- बेटा ! रास्तेमें तुम्हें कृष्ण तो नहीं मिले थे ? बोला- हाँ, मैया! वही मिले थे। मैया बोलीं कि उनकी इच्छा सफल हो। बेटा! तुम नहीं बच सकते।
बादमें गदायुद्ध हुआ। भीमने जाँघपर गदा मारी। जाँघ टूट गयी। बलदेवजी आ गये। बलदेवजी उसके गुरु थे। दुर्योधनको गदा सिखलानेवाले पहलवान थे। बलदेवजीने कहा- भीमने क्या अनर्थ किया ? सारा-का-सारा नियम तोड़ दिया, कटिके नीचे गदा मारी ! इसपर भगवान् कृष्ण बोले- दाऊजी ! जरा बात तो सुनो। भगवान् की यह बात सुनकर दाऊजी हँस पड़े। दाऊजीको श्रीकृष्णने पकड़ लिया और कहा- दाऊजी ! सुनो, भीमने प्रतिज्ञा की थी; इसलिये कि भरी सभामें दुर्योधनने द्रौपदीसे कहा था- मेरी खुली जाँघपर नंगी होकर बैठ जाओ। उस समयसे भीमके हृदयमें आग लगी थी। उस समय आप होते तो क्या करते ? भीमने प्रण किया था इसकी जाँघको तोडूंगा, इसलिये तोड़ दी, इससे क्या पाप हुआ ! दाऊजी बोले- भैया ! तुम जानो तुम्हारा काम जाने, हम तो चलते हैं। दाऊजी चलते बने।
इस दृष्टान्तके कहनेका मेरा तात्पर्य सत्यसे और जीवनमें सत्यके मूर्तिमान् रहनेकी विशेषतासे था। युधिष्ठिरके सत्यपर शत्रुको भी विश्वास है कि वे झूठ नहीं बोलते।
जय श्री सीताराम !!🌼