श्वेता पुरोहित-
नित्य प्रसन्न राम आज रो रहे हैं। माता कौसल्या उद्विग्न हो गयी हैं। उनका लाल आज किसी प्रकार शान्त नहीं होता है। वे गोदमें लेकर खड़ी हुईं, पुचकारा, थपकी दीं, उछाला; किंतु राम रोते रहे । बैठकर स्तनपान कराने का प्रयत्न किया; किंतु आज तो रामलला को पता नहीं क्या हो गया है। वे बार-बार चरण उछालते हैं, कर पटकते हैं और रो रहे हैं। पालने में झुलानेपर भी वे चुप नहीं होते। उनके दीर्घ दृगों से बड़े-बड़े बिन्दु टपाटप टपक रहे हैं।
श्रीराम रो रहे हैं। सारा राजपरिवार चिन्तित हो उठा है। तीनों माताएँ व्यग्र हैं। भरत, लक्ष्मण, शत्रुघ्न- तीनों शिशु बार-बार उझकते हैं, बार-बार हाथ बढ़ाते हैं। उनके अग्रज रो क्यों रहे हैं? माताएँ अत्यन्त व्यथित हैं। अत्यन्त चिन्तित हैं-‘कहीं ये तीनों भी रोने न लगें।’
‘अवश्य किसी ने नजर लगा दी है।’ किसी ने कहा, सम्भवतः किसी दासी ने । अविलम्ब रथ गया महर्षि वसिष्ठके आश्रमपर। रघुकुलके तो एकमात्र आश्रय ठहरे वे तपोमूर्ति ।
‘श्रीराम आज ऐसे रो रहे हैं कि चुप होते ही नहीं।’ महर्षि ने सुना और उन ज्ञानघन के गम्भीर मुखपर मन्दस्मित आ गया। वे चुपचाप रथ में बैठ गये।
‘मेरे पास क्या है। तुम्हारा नाम ही त्रिभुवन का रक्षक है, मेरी सम्पत्ति और साधन भी वही है।’ महर्षि ने यह बात मन में ही कही। राजभवन में उन्हें उत्तम आसन दिया गया था। उनके सम्मुख तीनों रानियाँ बैठी थीं। सुमित्रा और कैकेयीजी ने लक्ष्मण तथा शत्रुघ्न को गोद में ले रखा था और माता कौसल्याकी गोद में थे दो इन्दीवर-सुन्दर कुमार। महर्षि ने हाथ में कुश लिया, नृसिंह-मन्त्र पढ़कर श्रीराम पर कुछ जल-सीकर डाले कुशाग्रसे।
महर्षि हाथ बढ़ाकर श्रीरामको गोद में ले लिया और उनके मस्तकपर हाथ रखा। उन नीलसुन्दरके स्पर्श से महर्षिका शरीर पुलकित हो गया, नेत्र भर आये। उधर रामलला रुदन भूल चुके थे। उन्होंने तो एक बार महर्षि के मुख की ओर देखा और फिर आनन्द से किलकारी मारने लगे।
‘देव! इस रघुवंश के आप कल्पवृक्ष हैं।’ रानियों ने अञ्चल हाथ में लेकर भूमिपर मस्तक रखा महर्षि के सम्मुख ।
‘मुझे कृतार्थ करना था इन कृपामय को ।’ महर्षि के नेत्र तो शिशु राम के विकच कमल-मुखपर स्थिर थे। महर्षि के वटु शिष्य एक ओर बैठे तथा अन्तःपुरकी वात्सल्यवती परिचारिकाएँ खड़ी यह मधुर दृश्य देख रही थीं।