
सिस्टर अभया, न्याय में रिलिजन को प्राथमिकता और सीरिएक जोसेफ की भूमिका!
28 साल बाद ही सही, सिस्टर अभया का मामला अंतत: न्याय को प्राप्त हुआ है। परन्तु एक सत्य यह है भी है कि यह मामला कई मोड़ के बाद न्याय की देहरी पर पहुँच सका।
इसमें देरी में स्थानीय प्रशासन तो उत्तरदायी था ही, जिसने हर संभव प्रयास किया कि यह मात्र आत्महत्या की ही कहानी बन जाए। यह बेहद ही साधारण सा कत्ल था, जिसे आराम से सुलझाया जा सकता था।
पर स्थानीय शासन और स्थानीय चर्च के साथ उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश जज सीरिएक जोसेफ की भूमिका भी महत्वपूर्ण है।
यह ध्यान में रखा जाए कि जोसेफ उसी छोटे कैथोलिक चर्च के एक सदस्य थे, जहाँ पर सिस्टर अभया का क़त्ल हुआ था तथा जिस चर्च से दोषी सम्बन्धित थे। जोसेफ वर्ष 1992 में केरल के एडवोकेट जनरल अर्थात राज्य महाधिवक्ता थे एवं वह वर्ष 1994 में कर्नाटक उच्च न्यायालय में जज बने थे तथा वह वर्ष 2008 में उच्चतम न्यायालय में मुख्य न्यायाधीश बने थे।
परन्तु उससे पहले उनपर इस मामले को दबाने का आरोप लगा था। उन पर कई आरोप लगे थे। जिसमें मुख्य आरोप था कि वह न्याय के स्थान पर अपने रिलिजन को अधिक महत्व देते हैं। तो उन्होंने कई अवसरों पर स्वीकार भी किया था कि वह एक कैथोलिक ईसाई हैं और उनकी वफादारी चर्च के प्रति है।
एर्नाकुलम में भारत के सबसे बड़े कैथोलिक चर्च, सायरो मालाबार चर्च के अंतर्राष्ट्रीय समाज के सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने कहा था “मुझे नहीं लगता कि किसी भी व्यक्ति को इसलिए अपना प्यार चर्च के प्रति नहीं दिखाना चाहिए क्योंकि वह किसी पेशे में है।
अपने रिलिजन को लेकर यह प्रेम ही था जिन्होनें उन्हें इस बात के लिए प्रेरित किया कि वह कर्नाटक उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में बेंगलुरु में उस फोरेंसिक साइंस लाइब्रेरी में जाएं, जहाँ पर दोषियों के नारको टेस्ट के टेप रखे हुए थे।
सिस्टर अभया के सनसनीखेज मामले की जांच करने वाली संस्था सीबीआई ने वर्ष 2009 में केरल उच्च न्यायालय में बताया था कि जोसेफ अपने पद के प्रभाव के चलते ही एफएसएल गए थे।
सीबीआई ने न्यायालय को यह भी बताया कि जोसेफ के एफएसएल में जाने की जानकारी एफएसएल की पूर्व सहायक निदेशक, डॉ.एस. मालिनी ने दी थीं, जब उनसे सीबीआई ने जून में पूछताछ के थी।
सीबीआई के वकील के अनुसार कि डॉ.मालिनी ने यह बताया कि जोसेफ एफएसएल में 23 मई 2008 को आए थे और यह उनकी व्यक्तिगत यात्रा थी। जोसेफ ने इस मामले में तीनों आरोपियों के नारको टेस्ट देखे।
इसके साथ ही उन्होंने आतंक संबंधी मामले में एक आरोपी पर भी किए गए टेस्ट का वीडियो टेप देखा। यद्यपि जोसेफ ने यह आरोप लगाया कि इन टेप्स में छेड़छाड़ की गयी, परन्तु उनकी यह दलील नहीं मानी गयी।
थॉमस ने अपने पद का किस प्रकार दुरुपयोग किया वह इस बात से साबित होता है कि उन्होंने उच्च न्यायालय में यह दलील दी कि असली वीसीडी को सीबीआई को सौंपने से पहले काफी हद तक बदल दिया गया था।
इस मामले में सरकार किस हद तक दोषियों के पक्ष में खड़ी थी यह इस बात से साबित होता है कि केरल राज्य सरकार द्वारा संचालित सेंटर फॉर इमेजिंग टेक्नोलोजी ने एर्नाकुलम मुख्य न्यायिक मजिस्ट्रेट के सम्मुख कहा कि वीसीडी में बहुत ज्यादा छेड़छाड़ की गयी है।
हालांकि सीबीआई ने इसे अस्वीकार किया एवं कहा कि यह संस्था किसी भी प्रकार से यह आरोप सत्यापित करने के लिए पात्र नहीं है। ऐसा नहीं है कि जोसेफ पर केवल यही आरोप थे।
उन पर और भी आरोप थे और गंभीर आरोप थे। वर्ष 2008-2012 के दौरान उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में उनके तीन वर्ष सबसे बुरे कार्यकालों में थे।
तत्कालीन केन्द्रीय मंत्री कपिल सिब्बल ने टेलीकॉम ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के रूप में मलाईदार पद पर नियुक्ति को लेकर अपनी आपत्ति दर्ज की थी। उन्होंने अपने पत्र में कहा था कि जोसेफ के कार्य करने की शैली अत्यंत अजीब है।
वह कोई भी मामला अंत तक नहीं पहुंचाते हैं। उनकी आदत मुकदमों को बीच में छोड़ देने की है। कपिल सिब्बल ने कहा कि जस्टिस जोसेफ ने अपने कैरियर में 1000 से अधिक मुकदमों को बिना फैसला दिए छोड़ दिया है।
विवादों ने उनका हालाँकि साथ नहीं छोड़ा, परन्तु इसी के साथ उनका साथ उनकी नियुक्तियों ने नहीं छोड़ा। कपिल सिब्बल द्वारा उठाई गयी आपत्तियों के बाद टेलीकॉम ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष के रूप में उनकी नियुक्ति नहीं हो पाई,
परन्तु उनके रिलिजन की लॉबी इतनी मजबूत थी कि वह मनमोहन सरकार में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के सदस्य के रूप में चुन लिए गए। उस समय संसद के दोनों सदनों में विपक्ष के नेता श्री अरुण जेटली एवं सुषमा स्वराज ने सरकार के इस निर्णय पर असंतोष जाहिर किया था कि ऐसे विवादास्पद व्यक्ति को आयोग का सदस्य कैसे बनाया जा सकता है
जिसकी एक संस्था में नियुक्ति को लेकर केन्द्रीय मंत्री ही विरोध कर चुके हैं। परन्तु जोसेफ ने अपना कार्यकाल सफलतापूर्वक पूरा किया एवं वह वर्ष 2017 में आयोग के अध्यक्ष से सेवानिवृत्त हुए तथा वह वर्तमान में केरल में लोकायुक्त के रूप में कार्य कर रहे हैं।
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