राजीव रंजन प्रसाद. बस्तर, छत्तीसगढ में नक्सली हत्या एक परिपाटी और श्रद्धांजलि देना औपचारिकता भर है। जवानों की इस देश को कितनी चिंता है इसकी बानगी लेनी है तो देखें कि आज सभी अखबारों के हैडलाईन बदल गये हैं और छत्तीसगढ में हुई वामपंथी हिंसा पर चर्चा दूसरे-तीसरे पन्ने पर सिमट गयी है।
इस मुद्दे पर Sandeep Deo का Video
एक सरकार आती है तो नक्सल नीति कुछ और दूसरी आती है तो कुछ और इसी रवैय्ये से लाल-आतंकवाद के विरुद्ध लडने-भिडने का नाटक जारी है। विडम्बना यह भी है कि केंद्र और राज्य सरकारों की हटा देंगे-मिटा देंगे वाली “पंचवर्षीय घोषणायें” चलते चलते लाल-आतंकवाद को अब पचास साल होने को आये लेकिन उपलब्धि शून्य बटे सन्नाटा।
अब तक यही देखा है कि कार्रवाई के नाम पर उन सक्रिय सेना-अर्धसैनिकबलों और पुलिस अधिकारियों की टांगे खीची जाती रही है, कमजोर तो हमारी प्रतिक्रिया है, नक्सल तो मजबूत ही हुए हैं।
नक्सल जब सरकारों द्वारा बातचीत के प्रोपागेंडा वाले दौर में चुपचाप अपनी ताकत बढाते रहते है तो उसे प्रशासनिक उपलब्धि माना जाता है, फिर वे मजबूत हो कर सामने आ जाते है तब विफलता का श्रेय लेने वाले नदारद।
मानव-अधिकार की दूकाने छत्तीसगढ से ले कर दिल्ली तक अपने पावरपोईंट प्रेजेंटेशन से हत्या से पहले बडी कार्रवाई की जमीन तैयार करती हैं और हत्याओं के बाद लाल-तंत्र को जस्टीफाई करने के लिये अपना हाड-मांस तपाती हैं, यह सब कौन नहीं जानता? केवल हिडमा क्यों, केवल हरी वर्दी पहने लाशों पर नाचने वाले ही दोषी क्यों उनके लिये बौद्धिक जमीन तैयार करने वाले भी हत्यारे क्यों नहीं?
एक आईएएस की तैयारी कराने वाला प्रसिद्ध चैनल है “स्डडी आई क्यू” वहाँ इस माओवादी घटना का विश्लेषण सुना और निष्कर्ष यह कि नक्सली भी तो भारतीय हैं इसलिये ” यही “इसलिये करने वालों” में से कुछ लोग कल हमारे ब्यूरोक्रेट्स होंगे और ऐसे ही सभी हत्याओं पर सिर झुकाये खडे रहेंगे? क्या वियतनाम ने अपने माओवादियों पर काबू नहीं पाया? भारत ही इतना कमजोर क्यों है