श्वेता पुरोहित ।आजकल हम कई लोगों से सुनते हैं कि रावण ने सीता जी का हरण किया परंतु उन्हें हाथ नहीं लगाया। ये लोग रावण की बढ़ाई करते नहीं थकते।
परंतु क्या आप जानते हैं कि रावण के सीता जी को स्पर्श ना करने का कारण कुछ श्राप थे जिनकी जानकारी रावण को थी? वह जानता था कि यदि उसने कभी किसी स्त्री को उसकी इच्छा एवं अनुमती के बिना स्पर्श किया तो उसके सिर के सौ टुकड़े हो जाएँगे। राक्षसीय प्रवृत्तियों से उद्यत रावण स्त्रीयों के साथ दुष्कृत्य करने से झिझकता नहीं था। वह घोर पापी था।
जब रावण विश्व विजय के लिए स्वर्ग लोक पहुंचा। तब उसे वहां एक रम्भा नाम की अप्सरा मिली। उसे देखकर रावण उस पर मोहित हो गया और रावण ने उसे पकड़ लिया। रम्भा ने रावण से कहा कि मैं आपके बड़े भाई के पुत्र नलकुबेर के लिए हूँ। इसलिए आपकी पुत्रवधू के समान हूँ। परन्तु रावण ने उसकी एक न सुनी। इस कारण क्रोध में आकर कुबेर के बेटे नलकुबेर ने रावण को श्राप दिया कि यदि उसने कभी किसी स्त्री को उसकी इच्छा एवं अनुमती के बिना स्पर्श किया तो उसके सिर के सौ टुकड़े हो जाएँगे।
दूसरा श्राप सीता जी ने रावण को अपने पूर्व जन्म में वेदवती के रूप में दिया था। यह प्रसंग वाल्मिकी रामायण के उत्तरकाण्ड में सत्रहवें सर्ग में आता है । यह देवी सीता के पूर्व जन्म की कथा है –
एक बार रावण ने भूतलपर विचरता हुआ हिमालयके वनमें एक तपस्विनी कन्याको देखा, जो , अपने अङ्गोंमें काले रंगका मृगचर्म तथा सिरपर जटा देवे धारण किये हुए थी । वह ऋषिप्रोक्त विधिसे तपस्यामें दूस संलग्न हो देवाङ्गनाके समान उद्दीप्त हो रही थी ॥
उत्तम एवं महान् व्रतका पालन करनेवाली तथा रूप-सौन्दर्यसे सुशोभित उस कन्याको देखकर रावणका चित्त कामजनित मोहके वशीभूत हो गया। उसने अट्टहास करते हुए-से पूछा –
भद्रे ! तुम अपनी इस युवावस्थाके विपरीत यह कैसा बर्ताव कर रही हो? तुम्हारे इस दिव्य रूपके लिये ऐसा आचरण कदापि उचित नहीं है ॥
‘भीरु ! तुम्हारे इस रूपकी कहीं तुलना नहीं है। यह पुरुषों के हृदयमें कामजनित उन्माद पैदा करनेवाला है। अत: तुम्हारा तपमें संलग्न होना उचित नहीं है। तुम्हारे लिये हमारे हृदयसे यही निर्णय प्रकट हुआ है ॥
‘भद्रे ! तुम किसकी पुत्री हो ? यह कौन-सा व्रत कर रही हो? सुमुखि ! तुम्हारा पति कौन है? भीरु ! जिसके साथ तुम्हारा सम्बन्ध है, वह मनुष्य इस भूलोकमें महान् पुण्यात्मा है। मैं जो कुछ पूछता हूँ, वह सब मुझे बताओ। किस फलके लिये यह परिश्रम किया जा रहा है?
रावणके इस प्रकार पूछनेपर वह यशस्विनी तपोधना कन्या उसका विधिवत् आतिथ्य-सत्कार करके बोली –
अमिततेजस्वी ब्रह्मर्षि श्रीमान् कुशध्वज मेरे पिता थे, जो बृहस्पति के पुत्र थे और बुद्धिमें भी उन्हीं के समान माने जाते थे। प्रतिदिन वेदाभ्यास करनेवाले उन महात्मा पितासे वाङ्मयी कन्याके रूपमें मेरा प्रादुर्भाव हुआ था। मेरा नाम वेदवती है । जब मैं बड़ी हुई, तब देवता, गन्धर्व, यक्ष, राक्षस और नाग भी पिताजी के पास जा-जाकर उनसे मुझे माँगने लगे ।
महाबाहु राक्षसेश्वर ! पिताजीने उनके हाथमें मुझे नहीं सौंपा क्योंकि उनकी इच्छा थी कि तीनों लोकोंके स्वामी देवेश्वर भगवान् विष्णु मेरे दामाद हों। इसीलिये वे दूसरे किसी के हाथमें मुझे नहीं देना चाहते थे। उनके इस अभिप्रायको सुनकर बलाभिमानी दैत्यराज शम्भु उनपर कुपित हो उठा और उस पापीने रातमें सोते समय मेरे पिताजीकी हत्या कर डाली। इससे मेरी महाभागा माता को बड़ा दुःख हुआ और वे पिताजी के शवको हृदयसे लगाकर चिताकी आगमें प्रविष्ट हो गयीं। तबसे मैंने प्रतिज्ञा कर ली है कि भगवान् नारायणके प्रति पिताजीका जो मनोरथ था, उसे मैं सफल करूँगी। इसलिये मैं उन्हींको अपने हृदय- मन्दिर में धारण करती हूँ ।
यही प्रतिज्ञा करके मैं यह महान् तप कर रही हूँ। राक्षसराज। नारायण ही मेरे पति हैं। उन पुरुषोत्तम के सिवा दूसरा कोई मेरा पति नहीं हो सकता। उन नारायणदेव को प्राप्त करने के लिए ही मैंने इस कठोर व्रतका आश्रय लिया है ।
‘राजन् ! पौलस्त्यनन्दन ! मैंने आपको पहचान लिया है। आप जाइये। त्रिलोकीमें जो कोई भी वस्तु विद्यमान है, वह सब मैं तपस्याद्वारा जानती हूँ।
यह सुनकर रावण कामबाणसे पीड़ित हो विमानसे उतर गया और उस उत्तम एवं महान् व्रतका पालन करनेवाली कन्यासे फिर बोला-
‘सुश्रोणि! तुम गर्वीली जान पड़ती हो, तभी तो तुम्हारी बुद्धि ऐसी हो गयी है। मृगशावकलोचने! इस तरह पुण्यका संग्रह बूढ़ी स्त्रियोंको ही शोभा देता है, तुम-जैसे युवतीको नहीं। तुम तो सर्वगुणसम्पन्न एवं त्रिलोकीकी अद्वितीय सुन्दरी हो। तुम्हें ऐसी बात नहीं कहनी चाहिये। भीरु ! तुम्हारी जवानी बीती जा रही है।
भद्रे ! मैं लङ्काका राजा हूँ। मेरा नाम दशग्रीव है। तुम मेरी भार्या हो जाओ और सुखपूर्वक उत्तम भोग भोगो। पहले यह तो बताओ, तुम जिसे विष्णु कहती है, वह कौन है ? अङ्गने! भद्रे ! तुम जिसे चाहती हो, वह बल, पराक्रम, तप और भोग-वैभवके द्वारा मेरी समानता नहीं कर सकता।
उसके ऐसा कहनेपर कुमारी वेदवती उस निशाचरसे बोली- ‘नहीं, नहीं, ऐसा न कहो ।राक्षसराज ! भगवान् विष्णु तीनों लोकों के अधिपति हैं। सारा संसार उनके चरणों में मस्तक झुकाता है। तुम्हारे सिवा दूसरा कौन पुरुष है, जो बुद्धिमान् होकर भी उनकी अवहेलना करेगा।
वेदवती के ऐसा कहने पर उस रावण ने अपने हाथ से उस कन्या के केश पकड़ लिये। इससे वेदवती को बड़ा क्रोध हुआ। उसने अपने हाथ से उन केशों को काट दिया। उसके हाथने तलवार बनकर तत्काल उसके केशोंको मस्तकसे अलग कर दिया।
वेदवती रोष से प्रज्वलित-सी हो उठी। वह जल मरनेके लिये उतावली हो अग्निकी स्थापना करके उस निशाचरको दग्ध करती हुई-सी बोली-
नीच राक्षस! तूने मेरा तिरस्कार किया है; अतः अब इस जीवनको सुरक्षित रखना मुझे अभीष्ट नहीं है। इसलिये तेरे देखते-देखते मैं अग्निमें प्रवेश कर जाऊँगी ।
तुझ पापात्माने इस वनमें मेरा अपमान किया है। इसलिये मैं तेरे वधके लिये फिर उत्पन्न होऊँगी ।
स्त्री अपनी शारीरिक शक्तिसे किसी पापाचारी पुरुषका वध नहीं कर सकती। यदि मैं तुझे शाप दूँ तो मेरी तपस्या क्षीण हो जायगी ।
यदि मैंने कुछ भी सत्कर्म, दान और होम किये हों तो अगले जन्ममें मैं सती-साध्वी अयोनिजा कन्याके रूपमें प्रकट होऊँ तथा किसी धर्मात्मा पिताकी पुत्री बनूँ’ ॥ ऐसा कहकर वह प्रज्वलित अग्नि में समा गयी ।
उस समय उसके चारों ओर आकाशसे दिव्य पुष्पोंकी वर्षा होने लगी। तदनन्तर दूसरे जन्म में वह कन्या पुनः एक कमलसे प्रकट हुई। उस समय उसकी कान्ति कमल के समान ही सुन्दर थी। उस राक्षसने पहलेकी ही भाँति फिर वहाँसे भी उस कन्याको प्राप्त कर लिया ।
कमलके भीतरी भागके समान सुन्दर कान्तिवाली उस कन्या को लेकर रावण अपने घर गया। वहाँ उसने मन्त्रीको वह कन्या दिखायी।
मन्त्री बालक-बालिकाओं के लक्षणोंको जाननेवाला था। उसने उसे अच्छी तरह देखकर रावणसे कहा- राजन् ! यह सुन्दरी कन्या यदि घर में रही तो आपके वधका ही कारण होगी, ऐसा लक्षण देखा जाता है।
यह सुनकर रावण ने उसे समुद्र में फेंक दिया। तत्पश्चात् वह भूमि को प्राप्त होकर राजा जनक के यज्ञमण्डप के मध्यवर्ती भूभाग में जा पहुँची। वहाँ राजा के हलके मुखभाग से उस भूभाग के जोते जानेपर वह सती साध्वी कन्या फिर प्रकट हो गयी। वही यह वेदवती महाराज जनककी पुत्री के रूपमें प्रादुर्भूत हो प्रभु श्रीराम की पत्नी हुई है। महाबाहो ! श्रीराम ही सनातन विष्णु हैं।
इस प्रकार यह महाभागा देवी विभिन्न कल्पोंमें पुनः रावणवधके उद्देश्यसे मर्त्यलोकमें अवतीर्ण होती रहेगी। यज्ञवेदीपर अग्निशिखाके समान हलसे जोते गये क्षेत्रमें इसका आविर्भाव हुआ है ।
यह वेदवती पहले सत्ययुगमें प्रकट हुई थी। फिर त्रेतायुग आनेपर उस राक्षस रावणके वधके लिये मिथिलावर्ती राजा जनकके कुलमें सीतारूपसे अवतीर्ण हुई। सीता (हल जोतनेसे भूमिपर बनी हुई रेखा) – से उत्पन्न होनेके कारण मनुष्य इस देवीको सीता कहते हैं।
जय सिया राम
साभार: श्वेता पुरोहित के WhatsApp से।