श्वेता पुरोहित। तपस्या और विवाह राजकुमार हंस और डिम्भक भगवान् शंकर के अपने अंशसे उत्पन्न और परम बुद्धिमान् थे। उन दोनों ने तपस्या करने का विचार किया। नरेश्वर! हिमालय के पास जाकर वायु और जल का आहार करते हुए वे दोनों एकाग्र एवं संयतचित्त हो मन में यह संकल्प लेकर कि ‘हमें दिव्य पराक्रम और अस्त्र प्राप्त हो जायँ’ कल्याणकारी कष्टहारी नीलकण्ठ भगवान् उमापति की प्रसन्नता के उद्देश्य से सानन्द तपस्या करने लगे ।
वे दिन-रात देवाधिदेव ! शंकर! हर! शर्व! शिवानन्द ! नीलग्रीव ! उमापते! वृषभध्वज ! विरूपाक्ष! हर्यक्ष ! जगत्पते! भक्तप्रिय! गिरीश ! ईश ! वासुदेव! शिव! अच्युत! सद्योजात! महादेव! देवदेव! अन्तर्यामीरूप से हृदय गुहा में शयन करनेवाले ! भूतभावन! देवेश्वर! ओङ्कारस्वरूप! सदाशिव ! आपको नमस्कार है, इत्यादि रूप से भगवान्के नामों द्वारा नित्य-निरन्तर कल्याणकारी भगवान् भव की स्तुति करते हुए उन्हीं भगवान् विरूपाक्ष (शिव) – को हृदय में धारण कर के सुखपूर्वक तपस्या में लगे रहे ।
उनमें ममता और अहंकार का अभाव हो गया। वे मौनव्रत का आश्रय लेकर उन दिनों पाँच वर्षों तक उत्साहपूर्वक तपस्या में लगे रहे। उन दोनों के तप और संयम से भगवान् शंकर को बड़ी प्रसन्नता हुई। उन्होंने उन दोनों को अपने स्वरूप का दर्शन दिया। उस समय उनके श्रीअङ्गों पर व्याघ्रचर्ममय वस्त्र शोभा पा रहा था। वे पापहारी, त्रिनेत्रधारी और कल्याणकारी उमावल्लभ भगवान् शिव हाथ में त्रिशूल लिये वहाँ उपस्थित थे। चन्द्रार्धशेखर भगवान् शिव को अपने सामने खड़ा देख वे दोनों प्रसन्नचित्त हो उन्हें बारम्बार नमस्कार करने लगे ।
तब श्रीभगवान् बोले – राजकुमारो! तुम दोनों का
कल्याण हो! तुम कोई वर माँगो ! तुम्हारी जैसी इच्छा हो, वह पूर्ण हो। राजन्! यह सुनकर वे दोनों बोले ‘भगवन्! यदि आप प्रसन्न हैं तो हम आपकी कृपा से देवताओं और असुरों के मुख्य-मुख्य सेनापतियों, यक्षों, गन्धर्वो और दानवों के लिये भी अजेय हो जायँ। सर्वात्मन्! यही हम दोनों का पहला वर है। ‘विरूपाक्ष! हमारा दूसरा वर यह है कि हमारे पास सभी भयंकर अस्त्रों का संग्रह हो। माहेश्वरास्त्र, रौद्रास्त्र तथा महान् ब्रह्मशिर नामक अस्त्र हमें उपलब्ध हों । शर्व! अभेद्य कवच, दिव्य एवं अच्छेद्य धनुष और परशु-ये सदा हमें रक्षाके लिये सुलभ हों । महादेव! युद्धमें आपके दो-दो भूत हमारी सहायता के लिये जाया करें।’ तब देवेश्वर हरने ‘ऐसा ही होगा’, यह कहकर अपने दो पार्षद भृङ्गि और रिटि से तथा कुण्डोदर एवं समस्त प्राणियों के हित में तत्पर रहनेवाले विरूपाक्ष से कहा – ‘तुम दोनों दो-दो करके दो भूतेश्वर हो, तुम युद्धके अवसरपर सदा घोर-से-घोर संग्राममें इन दोनों बलशाली वीरों की सहायता के लिये अवश्य पहुँच जाना।’ ऐसा कहकर भगवान् शर्व वहीं अन्तर्धान हो गये ।
तदनन्तर बल और पराक्रम से सम्पन्न हंस और डिम्भक सम्पूर्ण अस्त्रोंके ज्ञाता, अस्त्र-शस्त्रों के सञ्चय से युक्त, धनुर्धर एवं अत्यन्त बलवान् हो गये । कवच बाँधकर वे दोनों वीर जब युद्धमें खड़े होते, उस समय देवता और दानवों के लिये भी उन्हें जीतना असम्भव हो जाता था। नीललोहित भगवान् शंकर में उन दोनोंकी बड़ी भक्ति थी । वे महादेवजी के लिये नित्य उत्सव रचाते, अपने अङ्गोंमें भस्म लगाकर सुशोभित होते, ललाट में त्रिपुण्ड्र लगाते और सदा सिरपर जटाएँ धारण करते थे । सारे अङ्गोंमें रुद्राक्ष धारण करते, अपने अङ्गोंको व्याघ्रचर्म से आच्छादित करते और ‘परमबुद्धिमान् शान्तस्वरूप महान् देव शिव को नमस्कार है’ इत्यादि नामों द्वारा महादेव शिव की स्तुति करते थे।
इस प्रकार वे दोनों अपनी भीगी जटाओं में जल धारण करके साक्षात् गङ्गाधर महादेव के दो विग्रहों के समान शोभा पाते थे । तदनन्तर उन दोनों बलवान् वीरोंने अपने घर जाकर पिता के चरण पकड़े, पिता के सखा मित्रसह के पैर छुये और माता के चरणों में प्रणाम किया । परम बुद्धिमान् धर्मात्मा जनार्दन ने भी दीर्घकालतक अध्ययन करके योगयुक्त होकर सम्पूर्ण विद्याओं में पारङ्गत योग्यता प्राप्त की । वह अपनी इन्द्रियों को वश में करके ब्रह्मतत्त्व के चिन्तन में तत्पर रहकर नित्य-निरन्तर इन्द्रियों के प्रेरक, रेशमी पीताम्बरधारी भगवान् विष्णु को उपासना करता था ।
सर्वे ते यज्ञनिरताः पञ्चयज्ञपरास्तथा ।
स्वदारनिरताः सर्वे गुरुशुश्रूषणे रताः।
धर्म एव परं श्रेय इति ते मेनिरे नृप ॥
हंस और डिम्भक के विवाह हो गये, फिर धर्मात्मा जनार्दन ने भी पत्नी का पाणिग्रहण किया । वे सब के सब यज्ञमें तत्पर, पञ्चयज्ञपरायण और अपनी ही पत्नी में अनुरक्त रहकर गुरुजनोंकी सेवामें संलग्न रहते थे। वे यह मानते थे कि ‘धर्म ही परम कल्याण करने वाला है’ ।
हंस और डिम्भक धर्म परायण क्षत्रिय भाई थे जो भगवान शिव के अंश से जन्मे थे। उन्होंने शास्त्रीय विधि से अपनी-अपनी पत्नी से विवाह किया था और वो धर्म को सर्वोपरि मान कर जीवन निर्वाह करते थे।
शेष अगले भाग में..
ॐ नमः शिवाय