विपुल रेगे। सिद्धार्थ शुक्ला की मृत्यु के बाद मीडिया का अतिरेक पुनः एक प्रश्न चिन्ह खड़ा कर गया है। सिद्धार्थ की मृत्यु महज एक खबर थी लेकिन न्यूज़ चैनलों ने उसको भी वैसे ही प्रस्तुत किया, जैसे वे किसी प्रसिद्ध हस्ती का मीडिया ट्रायल करते हैं। एक सामान्य मृत्यु को अपनी ख़बरों से विवादों में डालने की कोशिश की जा रही है। जबकि सिद्धार्थ के परिजनों ने पहले ही स्पष्ट कर दिया था कि उनकी मृत्यु एकदम सामान्य है।
सिद्धार्थ के परिवार ने बाकायदा एक बयान जारी किया था। बयान में स्पष्ट रुप से कहा गया था कि सिद्धार्थ की मृत्यु का कारण सामान्य है, उसमे संदेह जैसी कोई बात नहीं है। इस बयान के बाद भी न्यूज़ चैनलों पर कहा जाता रहा कि सिद्धार्थ की मृत्यु में कुछ तो संदिग्ध है। गत वर्ष सुशांत के केस में संदिग्ध तो खोजा नहीं गया और अब एक सामान्य मृत्यु को विवादास्पद बनाने में जुट गए हैं चैनल।
भारतीय मीडिया की एक विशेषता है कि ब्रेकिंग खबर को वे लोग ऐसे चूस लेते हैं, जैसे रस निकल जाने के बाद गन्ने का ठूंठ रह जाता है। एक समाचार की इस कदर पिराई से देश के नागरिकों में तनाव फैलता है, वह तो एक अलग ही बात है। अभी सुप्रीम कोर्ट की एक पैनल ने देश में चल रहे विभिन्न वेब पोर्टल्स पर चिंता जाहिर की लेकिन उनकी सामूहिक चिंता में न्यूज़ चैनलों के ऐसे कृत्य की कोई चिंता दिखाई नहीं दी।
सिद्धार्थ की कार का शीशा टूटा है तो वहां संदेह है, सिद्धार्थ का पोस्टमार्टम दो बार हुआ है तो वहां संदेह है, सिद्धार्थ को कूपर अस्पताल ले जाया गया था, तो वहां भी संदेह है। यहाँ पुलिस के बयान और सिद्धार्थ के परिजनों के बयान का तो कोई मतलब ही नहीं रह जाता है। किसी सितारे की अंतिम यात्रा दिखाना तो ठीक है किन्तु वहां एक अभिनेत्री संभावना सेठ के पति को किसी पुलिसकर्मी ने तमाचा मार दिया, उसे भी कवर करना हमारे चैनलों का फ़र्ज़ है।
अभिनेत्री अनुष्का शर्मा ने इस अतिरेक से नाराज होकर सिद्धार्थ को संबोधित करते हुए लिखा ‘सिद्धार्थ ये तुम्हे इंसान नहीं समझते।’ अनुष्का का ये कथन न्यूज़ चैनलों पर सटीक बैठ रहा है। एक अभिनेता की मौत से कितनी टीआरपी खींची जा सकती है, वह हम देख ही रहे हैं। एक अभिनेता चला गया, उसका अपना निजी जीवन था। पत्रकारिता की गरिमा इसमें ही होती है कि उसके निजी जीवन पर बात न करे।
और यहाँ हम देख रहे हैं कि सिद्धार्थ की सभी प्रेमिकाओं को याद किया जा रहा है। उसे भी जिसने कहा था कि ये मर जाए तो पानी भी नहीं पिलाऊंगी। जब सुप्रीम कोर्ट को वेब पोर्टल्स की झूठी ख़बरें दिखाई देती है तो टीआरपी का ये खेल क्यों नहीं दिखाई देता। जब किसी देश का मीडिया सरकार बनाने और गिराने की ज़िम्मेदारी उठाने लगे तो समझिये उस देश को वैचारिक रुप से बंधक बना लिया गया है।
भारत में मीडिया ‘प्रहरी’ नहीं ‘विलेन’ बनकर उभर रहा है। सिद्धार्थ शुक्ला के परिजनों ने यदि विगत दो दिनों में टीवी देखा होगा, तो उन्हें बड़ा कष्ट पहुंचा होगा। वे लोग पहले ही बेटे के चले जाने की पीड़ा में हैं और ऊपर से ये मीडिया ट्रायल उन्हें परेशान करेगा। कभी इन चैनलों को अपने प्रतिनिधियों को आम जनता से मिलने के लिए भेजना चाहिए। जब वे फीडबैक देखेंगे तो पाएंगे वे नायक नहीं है और न उनके अंदर कोई नायकत्व वाले गुण ही हैं।