एक स्वयंसेवक। टिड्डियों की तरह वो छा गए हैं
बहुत से बाल स्वयमसेवक आ गए हैं!
समय की नब्ज के माहिर खिलाड़ी
बदलते चाल के अद्भुत जुआरी
विचारों के नए घुसपैठिया ये
घर को अंदर अंदर खा गए हैं ॥
बदलकर भेष भूषाकुटिल वाणी
परिक्रमा,आरती में निपुण ज्ञानी
केंचुल छोड़कर रहना हो तो कोई इनसे सीखे
समय के साथ हो बहना तो कोई इनसे सीखें
विचारों के नए बहुरूपिये ये
हमारे घर को हीं दरका गए हैं ।
नहीं थकते थे कल तक गाली देकर
नहीं कल तक जिन्हें कुछ भी पता था
हिमाक़त देखिए उनका ज़रा सा
वही अब पुछते पहचान मेरा
वही अब भाग्य तय करते हमारा ।
नए संस्कार का रिश्ता चला है
गुरु अब शिष्य का चेला बना है
बड़ी खुश है कि वह उपकार करता
गुरु अब शिष्य से मनुहार करता
छात्र करता है तय कि किसको क्या बनाओ
दिखाता रास्ता जाकर कहाँ पर सर झुकाओ
दिखाए रास्ता अब कौन किसको
गिरा ले शिक्षक ही जब स्वयं खुद को
बहुत अफ़सोस होता देखकर यह
पतन का निम्न स्तर सोचकर यह
भला आती है कैसे नींद उनको
गिरा लेते हैं जो हर बार खुद को ॥
गुरु नहीं जब स्वत्व की रक्षा करेगा
भला कैसे कोई उसे सम्मान देगा
नहीं जब कण्व का तप तेज उसमें
कोई दुष्यन्त क्यों आदर करेगा
झुकाकर क्यों कोई फिर राजसत्ता
उठाकर धूल आश्रम का धरेगा ॥