श्वेता पुरोहित। (रामप्रेममूर्ति श्रीमद् गोस्वामी तुलसी दास जी की मुख्यतः श्रीमद बेनी माधव दास जी विरचीत मूल गोसाई चरित पर आधारीत अमृतमयी लीलाएँ )
श्रीरघुपती का कथन है कि ‘मोते संत अधिक करी लेखा’ मेरे विशुद्ध भक्तों को मुझसे भी अधिक मानना चाहिए। नारद भक्ति सूत्र मे भी देवर्षि नारदजी ने महत्त्वपूर्ण सूत्र दिया
‘तस्मिंस्तज्जने भेदाभावात’
अर्थात्:
भगवान और उनके विशुद्ध भक्तों मे भेद का अभाव होता है । पद्मपुराण मे भगवान शिव माता पार्वतीसे कहते है-
आराधनानां सर्वेषां विष्णोर आराधनं परम् ।
तस्मात परतरं देवी तदीयानां समार्चनम् ॥
अर्थात्:
सब प्रकार की आराधनाओं में, भगवान विष्णु की आराधना परम (श्रेष्ठ) है, और विष्णु की आराधना से भी श्रेयस्कर उनके विशुद्ध भक्तों की आराधना होती है।” अतः यदि किसी व्यक्ति की इच्छा है की उसके हृदय मे श्रीभानुकुलकैरवचंद्र का विशुद्ध प्रेम प्रकट हो तो उसे श्रीमद गोस्वामी तुलसीदासजी कि चरणधूल की हि याचना करनी चाहिए । क्यों की गोस्वामीजी मुर्तिमान रामप्रेम हि है । अतः गोस्वामीजी की भक्तिबिना रामप्रेम की प्राप्ति लगभग असंभवनीय है ।
गोस्वामीजी के प्रिय शिष्य श्रीमद बेनीमाधवदासजी के प्रति सभी राम प्रेमीयों को कृतज्ञ होना चाहिए क्योकी यदी वे मूल गोसाई चरित की रचना न करते तो श्रीगोस्वामीजी के चरित्र की और घटनाए तो छोडीये, उनकी जन्मतिथी भी हमलोगों को ज्ञात नही होती ।
श्रीमद बेनीमाधवदासजी कितने गुरुपरायण थे इस बात का अनुमान उनके द्वारा रचित गोस्वामी जी और रामचरितमानसकी स्तुती मे रचित इस पद से हो जाता है । जरा देखिये वे कितने सटिक (Perfect) शब्दों मे अपने गुरु की स्तुती करते है –
बेदमत सोधि-सोधि कै पुरान सबै संत औ असंतन को भेद को बतावतो ।
अर्थात्:
वेदोंके और पुराणोंके सारे मतोंका संशोधन कर कर के संत और असंत के भेद को कौन समझाता?
कपटी कुराही कूर कलिके कुचाली जीव कौन रामनामहू की चरचा चलावतो ॥
कलियुगके इन कपटी, कुमार्गगामी, क्रूर, कुचाली जीवोंके बिच मे रामनाम की चर्चा (प्रचार) कौन चलाता?
बेनी कवि कहै मानो-मानो हो प्रतीति यह पाहन-हिये में कौन प्रेम उपजावतो ।
कवि श्रीमद बेनीमाधवदासजी कहते है की इस बात को प्रतीति (अनुभव) करके मानही लो की पाषाणसदृश्य (कठोर) हृदयोंमे भी (राम)प्रेम कौन उपजाता ?
भारी भवसागर उतारतो कवन पार जो पै यह रामायन तुलसी न गावतो ॥
इस भारी (विशाल) भवसागर से हमे पार भी कौन उतारता, अगर श्रीमद गोस्वामी तुलसीदास इस रामायण (रामचरितमानस) को न गाते?
क्रमशः… (भाग – ३)