डॉ ओमेंद्र रतनु। अबुल फ़ज़्ल जौहर के लिए लिखता है,” अकबर ने शुजात खां व भगवान दास को प्रसन्नतापूर्वक बताया कि उसने एक महत्वपूर्ण व्यक्ति को मार डाला है। एक घंटे के बाद जब्बार क़ुली ने सूचित किया कि दुर्ग की प्राचीर से सब पुरुष कहीं चले गए हैं। तभी दुर्ग में कई स्थानों पर एक साथ अग्नि की लपटें उठने लगीं।
भगवान दास बोला की यह जौहर हो रहा है। कल सुबह राजपूत आक्रमण करेंगे। चंदन की लकड़ी की एक विशाल चिता बनायी गयी, जिसमें घी धूप आदि डाला गया। फिर ये अपनी स्त्रियों को कुछ पाषाण मना,(पत्थर दिल) हठी लोगों के संरक्षण में छोड़ कर लड़ने निकल गए। जब पराजय निश्चित हो गयी तो इन हठी पुरुषों ने असहाय स्त्रियों को राख बना दिया। “
ये हठी लोग दुर्ग के चारण हुआ करते थे। ये स्त्रियों व बच्चों को पुरखों की कथाएँ सुना कर उनका तेज जागृत करते थे। संकेत आने पर ये चिताओं को अग्नि दे देते थे। यह इन चारणों के लिए असह्य वेदना की घड़ी होती थी। जिन रानियों व बच्चियों को इन्होंने शिक्षित व संस्कारित किया था, उन्हें अपने हाथों से यूँ मिटा देना कोई सरल बात नहीं थी।
अंतिम स्त्री के राख हो जाने पर ये चारण सर पर केसरिया बांध कर लड़ने चले जाते। यह भयानक उपक्रम किस लिए? केवल धर्म व स्वतंत्रता के लिए। हमें अबुल फज़्ल का नैतिक दिवलियापन भी समझना चाहिए, जिसे अपने लोगों की दरिंदगी नहीं दिख रही। बल्कि, महान राजपूतों को पाषाण हृदय, तथा उनके चारण मित्रों को हठी कह रहा है।
जिन प्रमुख रानियों व सामंतों की महिलाओं ने जौहर किया उनमें से कुछ नाम इस प्रकार हैं :
1) रानी सज्जन बाई सोनगरा – पत्ता चूँडावत की माता श्री।
2) रानी जीवा बाई सोलंकिनी – पत्ता की पत्नी जो लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुईं।
3) रानी भगवती देवी चौहान – ईसरदास चौहन की पुत्री
4) रानी मदालसा बाई कच्छावा – सहसमल्ल की पुत्री।
5) रानी पद्मावती बाई झाला
6) रानी रतन बाई राठौड़
7) रानी बालेसा बाई चौहान
8)रानी बगड़ी बाई चौहान – डूंगर सिंह परमार की पुत्री
9) रानी आशा बाई परमार – “
10) पत्ता चूंडावत दो नन्हे बेटे और पाँच नन्ही बेटियाँ ।
उस दिन धरती की छाती क्या फटी न होगी?
क्या आकाश उस दिन पिघल न गया होगा?
क्या इंद्र का आसन उस दिन डोला न होगा?
क्या देवताओं ने मानवों की वेदना पर अश्रु न बहाए होंगे?
क्या चित्रगुप्त के कर्मों की बही रक्त से नहाई न होगी?
क्या ब्रह्मा सोच में न पड़े होंगे कि इस दिन के लिए सृष्टि रची थी?
क्या बुद्ध की अकंप चेतना उस दिन कंपी न होगी?
क्या कृष्ण का स्थिर चित्त भी उस दिन डोला न होगा?
क्या अपने खप्पर से रक्त पीती काली के हाथ न काँपे होंगे?
क्या अपना त्रिशूल महादेव उस दिन उठा पाए होंगे?
सर्वप्रथम जयमल जी राठौड़ व पत्ता चूंडावत की हवेलियों से जौहर के धुएँ उठे। तत्पश्चात् पूरे चित्तौड़ में जगह-जगह जीवित चिताएँ धधक उठीं। आकाश में उठते धुएँ और लपटों को देखकर मुग़ल समझ नहीं पाए कि क्या हो रहा है। आमेर के राजा भगवानदास ने अचंभित अकबर एवं मुग़ल सेना को बताया कि दुर्ग की स्त्रियाँ सामूहिक आत्मदाह कर रही हैं।
अब मेवाड़ की सेना अंतिम आक्रमण करनेवाली है। अर्थात् अब योद्धाओं ने स्वयं और परिवार के मोह को अग्नि में समर्पित कर दिया है, अब मेवाड़ के सभी योद्धा एक-दूसरे को अंतिम बीड़ा खिलाएँगे तथा केसरिया बाना पहनकर वीरगति के लिए रण में उतरेंगे। अगली सुबह, चित्तौड़ दुर्ग के कपाट खोल दिए गए।
अबुल फज़ल लिखता है— “आज तक किसी ने ऐसा युद्ध नहीं देखा। आज तक किसी ने ऐसा युद्ध न तो सुना है और न ही कभी लड़ा है। इस युद्ध के विषय में कुछ भी कहना मेरे सामर्थ्य से बाहर है। मैं इस युद्ध में घटित हजारों शौर्यपूर्ण कृत्यों में से एक का भी उचित वर्णन नहीं कर पाऊँगा।”
मेरी आने वाली पुस्तक का एक अंश अपने बंधुओं को समर्पित कर रहा हूँ।
पढ़ें और रोएँ अपने पुरखों के लिए ।
इस दिन के लिए वे जिवित जले थे कि उनके बलिदान को उनके बच्चे साम्राज्यवाद या सत्ता का संघर्ष बता कर उनकी जली हुई हड्डियों पर अपनी रोटियाँ सेकें ।